📖 - विधि-विवरण ग्रन्थ

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अध्याय 28

1) “यदि तुम प्रभु, अपने ईश्वर की वाणी पर ध्यान दोगे और उन सब आदेशों का पालन करोगे, जिन्हें मैं आज तुम को दे रहा हूँ। तो वह तुम्हें पृथ्वी भर के राष्ट्रों से महान् बनायेगा।

2) यदि तुम प्रभु, अपने ईश्वर की वाणी पर ध्यान दोगे, तो ये सब वरदान तुम को मिलेंगे और तुम्हारा साथ देते रहेंगे।

3) “नगर मे तुम्हारा कल्याण होगा और देहात में तुम्हारा कल्याण होगा।

4) तुम्हारी संतान, तुम्हारी भूमि की उपज, तुम्हारे पशु धन, तुम्हारी गायों और भेड़-बकरियों के बच्चों को आशीर्वाद प्राप्त होगा।

5) तुम्हारी टोकरी और आटा गुँधने के पात्र को आशीर्वाद प्राप्त होगा।

6) घर आने पर और घर से बाहर जाने पर, दोनों समय तुम्हें आशीर्वाद प्राप्त होगा।

7) "प्रभु तुम्हारा विरोध करने वाले शत्रुओं को पराजित करेगा। वे एक मार्ग से तुम पर आक्रमण करने आयेंगे, परन्तु तुम्हारे सामने से हो कर सात मार्गों से भाग निकलेंगे।

8) प्रभु तुम को तुम्हारे भण्डारों और तुम्हारे सब कार्यों में आशीर्वाद देता रहेगा। प्रभु, तुम्हारा ईश्वर तुम्हें उस देश में आशीर्वाद देता रहेगा, जिसे वह तुम्हें प्रदान करने वाला है।

9) यदि तुम प्रभु, अपने ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करते हुए उसके बताए हुये मार्गों पर चलोगे, तो प्रभु तुमको अपनी पवित्र प्रजा बनायेगा, जैसी कि उसने तुम से शपथ पूर्वक प्रतिज्ञा की है।

10) पृथ्वी की समस्त जातियाँ देखेंगी कि तुम प्रभु की अपनी प्रजा हो और वे तुम्हारा सम्मान करेंगी।

11) प्रभु तुम्हें अपने सब तरह के वरदानों से सम्पन्न बनायेगा - सन्तानों की दृष्टि से, पशुओं के बच्चों की दृष्टि से और उस देश की भूमि की उपज की दृष्टि से, जिसे प्रभु ने तुम्हें देने की तुम्हारे पूर्वजों से शपथपूूर्वक प्रतिज्ञा की है।

12) प्रभु अपने आकाश का अपूर्व भण्डार खोलकर तुम्हारी भूमि पर ठीक समय पर पानी बरसाएगा और तुम्हारे सब कार्यों में तुम्हें आशीर्वाद देता रहेगा। तुम अन्य अनेक राष्ट्रों को उधार दे सकोगे और तुम्हें किसी से उधार लेने की आवश्यकता नहीं होगी।

13) (13-14) प्रभु तुम्हें नेता बनाएगा, किसी का अनुयायी नहीं। यदि तुम मेरे द्वारा अपने को दी गई प्रभु, अपने ईश्वर की आज्ञाओं का सावधानी से पालन करोगे और अन्य देवताओं की सेवा और पूजा करने से उन नियमों से जरा भी विचलित नहीं होगे, जिन्हें में तुम्हें आज दे रहा हूँ, तो तुम्हारी अवनति नहीं, बल्कि उन्नति होती रहेगी।

15) "परन्तु यदि तुम प्रभु, अपने ईश्वर की वाणी पर ध्यान नहीं दोगे और उसके सब आदेशों और विधि-निषेधों का सावधानी से पालन नहीं करोगे, जिन्हें में आज तुम्हें दे रहा हूँ, तो ये समस्त अभिशाप तुम पर आ पड़ेंगे और तुम्हें दबोचेंगे।

16) तुम नगर में अभिशप्त होगे और तुम देहात में अभिशप्त होगे।

17) तुम्हारी टोकरी और तुम्हारा आटा गूँधने का पात्र अभिशप्त होगा।

18) तुम्हारी संतान, तुम्हारी भूमि की उपज, तुम्हारी गायों के बच्चे और तुम्हारी भेड़-बकरियाँ के बच्चे अभिशप्त होंगे।

19) घर आने पर और घर से बाहर जाने पर, दोनों समय तुम्हें अभिशाप मिलता रहेगा।

20) ’तुम्हारे सब कार्यों में, प्रभु तुमको अभिशाप, विपत्ति और धमकी देगा जिससे तुम्हारा सर्वनाश होता जायेगा और तुम शीघ्र ही अपने कुकर्मों के कारण मिट जाओगे। यह इसलिए होगा कि तुमने मुझे त्याग दिया है

21) और जब तक कि तुम उस देश से जो तुम अपने अधिकार में लेने जा रहे हो, समूल नष्ट नहीं हो जाओगे, तब तक प्रभु तुम पर बीमारियाँ भेजता रहेगा।

22) प्रभु तुम पर क्षय रोग, ज्वर, सूजन, भयंकर गर्मी, सूखा, पाला और फफँूदी भेजेगा। जब तक तुम निर्मूल नहीं हो जाओगे, वे तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेंगे।

23) तुम्हारे सिर के ऊपर का आकाश काँसे-सा हो जायेगा और तुम्हारे पाँव तले की भूमि लोहे-सी हो जायेगी

24) और जब तक तुम्हारा सर्वनाश न हो जायेगा, तब तक प्रभु आकाश से तुम्हारी भूमि पर पानी की जगह धूल और राख की वर्षा करता रहेगा।

25) "प्रभु ऐसा करेगा कि तुम अपने शत्रुओं से पराजित हो जाओगे। तुम एक मार्ग से उन पर आक्रमण करने जाओगे, किन्तु हार खा कर उनके सामने से सात मार्गों से भाग निकलोगे। इस प्रकार तुम पृथ्वी के सब राष्ट्रों की दृष्टि में घृणित बन जाओगे।

26) तुम्हारी लाषों को आकाश के पक्षी और पृथ्वी के जानवर खायेंगे। कोई उन्हें भगाने वाला नहीं होगा।

27) "प्रभु तुम्हें मिस्री फोड़े और व्रण, खुजली तथा सेहुएँ से पीड़ित करेगा और उनका कोई उपचार नहीं हो सकेगा।

28) प्रभु तुम्हें उन्माद, अंधापन और पागलपन से पीड़ित करेगा।

29) जिस तरह अन्धा अन्धेरे में टटोलता-फिरता है, उसी तरह तुम दिन-दोपहर करोगे और अपने रास्ते में आगे नहीं बढ़ सकोगे, बल्कि तुम पर निरंतर अत्याचार होते रहेंगे और तुम लुटते जाओगे। कोई तुम्हारी सहायता नहीं करेगा।

30) "यदि किसी स्त्री से तुम्हारी मँगनी होगी, तो दूसरा व्यक्ति उसके साथ संसर्ग करेगा। तुम अपने लिए घर बनाओगे और कोई दूसरा उस में निवास करेगा। तुम दाखबारी लगाओगे और तुम स्वंय उसके प्रथम फल नहीं खाओगे।

31) तुम्हारे देखते तुम्हारा बैल मार डाला जायेगा और तुम्हें उससे कुछ नहीं मिलेगा। तुम्हारे देखते तुम्हारा गधा तुम से ज़बरदस्ती ले लिया जायेगा और वह कभी वापस नहीं मिलेगा। तुम्हारी भेड़-बकरियाँ तुम्हारे शत्रुओं के हाथ पड़ जायेगी और कोई तुम्हारी सहायता नहीं कर पायेगा।

32) तुम्हारे पुत्र-पुत्रियाँ तुम्हारी आँखों के सामने किसी दूसरे राष्ट्र के हाथ पड़ जायेंगे और तुम असहाय हो कर उनके फिर मिलने की आकांक्षा करते रह जाओगे।

33) तुम्हारी भूमि की उपज और तुम्हारे परिश्रम का सारा फल एक ऐसा राष्ट्र खायेगा, जिसे तुम नहीं जानते। तुम्हारा निरंतर दमन किया जायेगा और तुम्हारे साथ दुव्र्यवहार होता रहेगा।

34) जो दृश्य तुम्हारी आँखें देखेगी, उन से तुम पागल हो उठोगे।

35) प्रभु तुम्हारे पाँवों और घुटनों में ऐसे असाध्य भयंकर फोड़े उत्पन्न करेगा, जिनका कोई उपचार नहीं हो सकेगा और जो तुम्हारे पैरों के तलवे से तुम्हारे सिर की चोटी तक फैल जायेंगे।

36) "प्रभु तुम को और उस राजा को, जिसे तुम अपना शासक बनाओगे, एक अन्य राष्ट्र में निर्वासित करेगा, जिसे न तो तुम जानते थे और न तुम्हारे पूर्वज। तुम वहीं लकड़ी और पत्थर से बने पराए देवताओं की पूजा करोगे।

37) इस प्रकार तुम उन सब राष्ट्रों के बीच, जिनके पास प्रभु तुम्हें ले जायेगा, घृणा, तिरस्कार और उपहास के पात्र बनोगे।

38) "तुम अपने, खेत में बहुत बीज बोओगे, किन्तु कम लुनोगे; क्योंकि सारी फ़सल टिड्डियाँ चाट जायेगी।

39) तुम दाखबारियाँ लगा कर उनमें श्रम करोगे; किन्तु उनकी अंगूरी नहीं पिओगे और उनके फल एकत्र नहीं करोगे, क्योंकि कीड़े उन्हें खा जायेंगे।

40) अपने देश में सर्वत्र जैतून वृक्षों के होते हुये भी तुम उनके तेल का उपयोग नहीं करोगे, क्योंकि जैतून के फल झड़ जायेंगे।

41) तुम्हारे यहाँ पुत्र-पुत्रियाँ उत्पन्न होंगे, किन्तु वे तुम्हारे नहीं रहेंगे, क्योंकि वे बंदी बनाकर ले जाये जायेंगे।

42) तुम्हारे सब वृक्ष और तुम्हारी भूमि सब फल टिड्डियाँ चाट जायेगी।

43) "तुम्हारे यहाँ का प्रवासी तुम से अधिक उन्नति करता रहेगा और तुम्हारी हालत बराबर बदतर होती जायेगी।

44) वह तुम को उधार दे सकेगा, परन्तु तुम उसे उधार नहीं दे सकोगे। वह सिर हो जायेगा और तुम पुँछ।

45) यदि तुमने प्रभु, अपने ईश्वर की बातों पर ध्यान न देकर उसके दिये हुये आदेशों और विधि-निषेधों का पालन नहीं किया, तो तुम्हें ये सारे अभिशाप तब तक भोगने पडेंगे, जब तक तुम्हारा सर्वनाश नहीं हो जायेगा।

46) ये अभिशाप संकेत और चेतावनी के रूप में तुम्हें और तुम्हारे वंशजों को याद रहेंगे।

47) "तुमने समृद्धि के दिनों में प्रसन्नता और आनन्द के साथ प्रभु की सेवा नहीं की,

48) इसलिए तुमको भूखे-प्यासे रहकर, नंगे और सब तरह से निर्धन हो कर अपने शत्रुओं की सेवा करनी पड़ेगी, जिन्हें प्रभु तुम्हारे विरुद्ध भेजेगा। जब तक वह तुम्हारा सर्वनाश नहीं करेगा, वह तुम्हारी गर्दन पर लोहे का जुआ रखेगा।

49) प्रभु दूर से, पृथ्वी के सीमांतों से एक राष्ट्र तुम्हारे पास भेजेगा, जो गरूड़ की तरह अपने शिकार पर झपटता है; एक ऐसा राष्ट्र जिसकी भाषा तुम नहीं समझते हो;

50) एक निर्दयी राष्ट्र जो न वृद्धों का सम्मान करेगा और न बालकों पर दया।

51) जब तक वह तुम्हारा सर्वनाश न कर लेगा, तब तक वह तुम्हारी भेड़-बकरियों और तुम्हारी भूमि की उपज को खाता रहेगा। जब तक वह तुम्हारा समूल नाश नहीं करेगा, तब तक वह न तुम्हारा अनाज छोडे़गा, न अंगूरी, न तेल, न तुम्हारी गायों के बच्चे और न तुम्हारी भेड़-बकरियों के बच्चे।

52) जब तक तुम्हारे देश भर के नगरों की ऊँची पक्की दीवारों, जिन पर तुम्हारा भरोसा होगा, गिरा नहीं दी जायेगी, तब तक वह तुम्हारे उन सब नगरों का घेराव करता रहेगा, जिन्हें प्रभु, तुम्हारा ईश्वर तुम्हें देने वाला है।

53) अपने शत्रुओं द्वारा डाले हुये घेरे से तंग होकर तुम प्रभु की दी हुई अपनी सन्तति, अर्थात् अपने ही पुत्र-पुत्रियों का मांस खाओगे।

54) तुम्हारे बीच सब से सौम्य और सुकुमार मनुष्य भी अपने भाई, अपनी प्राणप्रिय पत्नी और अपनी बची हुई सन्तान के साथ दया नहीं करेगा और जब वह अपने बच्चों का मांस खाता होगा, तो उस में से उन्हें कुछ नहीं देगा।

55) कारण यह होगा कि अपने शत्रु द्वारा अपने नगरों के घेरे के समय तुम्हारी इतनी दुर्दशा होगी कि उसके पास कुछ नहीं रहेगा।

56) तुम्हारे बीच सब से सौम्य और सुकुमार स्त्री, जो अपनी सुकुमारता और कोमलता के कारण भूमि पर नंगे पाँव तक न रखती होगी, अपने प्राण प्रिय पति, अपने पुत्र औैर अपनी पुत्री पर दया नहीं करेगी और

57) वह उन्हें अपने गर्भ का आँवल और अपने नवजात शिशु नहीं देगी। कारण यह होगा कि तुम्हारे शत्रुओं द्वारा तुम्हारे नगरों के घेरे के समय तुम्हारी इतनी दुर्दशा होगी कि वह स्वयं उन्हें छिप कर खाना चाहेगी।

58) यदि तुम इस संहिता के सब नियमों का सावधानी से पालन नहीं करोगे और प्रभु अपने ईश्वर के महिमामय और पूज्य नाम पर श्रद्धा नहीं रखोगे,

59) तो प्रभु तुम पर और तुम्हारे वंशजों पर भयंकर महामारियाँ भेजेगा, विकट और दीर्घ कालीन विपत्तियाँ, घोर और असाध्य रोग।

60) वह तुम्हारे विरुद्ध मिस्र की वे समस्त व्याधियाँ भेजेगा जिन से तुम डरते हो और वे तुम्हारे पीछे लगी रहेंगी।

61) जब तक तुम्हारा सर्वनाश नहीं हो जायेगा, तब तक प्रभु सब प्रकार की बीमारियों और विपत्तियों से तुम को पीड़ित करता रहेगा, जिनके विषय में संहिता के इस ग्रन्थ में कुछ नहीं लिखा है।

62) तुम आकाश के तारों की तरह असंख्य थे, किन्तु तुम में थोड़े ही लोग शेष रहेंगे; क्योंकि तुमने प्रभु, अपने ईश्वर के आदेश का पालन नहीं किया।

63) जैसे पहले प्रभु को तुम्हारी भलाई करने और तुम्हारी संख्या बढ़ाने में सुख मिलता था, वैसे ही प्रभु तुम्हें नष्ट और निर्मूल करना चाहेगा, जब तक कि तुम उस देश से उखाड़ कर नहीं फेंक दिये जाओगे, जिसे तुम अपने अधिकार में करने जा रहे हो।

64) प्रभु तुमको पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक सब राष्ट्रों में बिखेर देगा। तब तुम वहाँ लकड़ी और पत्थर के बने ऐसे देवताओं की पूजा करोगे, जिन्हें न तो तुम जानते हो और न तुम्हारे पूर्वज ही जानते थे।

65) तुम को उन राष्ट्रों के बीच शान्ति नहीं मिलेगी और तुम किसी एक स्थान पर नहीं रह पाओेगे। वहाँ प्रभु तुम्हारे मन में चिंता भर देगा, तुम्हारी आँखें प्रतीक्षा में पथरा जायेंगी और तुम्हारा हृदय निराश होगा।

66) तुम्हारा जीवन निरन्तर जोखिम में रहेगा, तुम दिन-रात डरते रहोगे, क्योंकि तुम्हारी कोई सुरक्षा नहीं होगी।

67) अपने मन की घबराहट के कारण और उन सब दुःखदायक दृष्यों के कारण, जिन्हें तुम देखोगे, तुम सबेरे सोचोगे की शाम होती, तो अच्छा होता और शाम को साचोगे की सबेरा होता, तो अच्छा होता।

68) प्रभु तुम को जलयानों में फिर मिस्र वापस भेज देगा, यद्यपि मैंने तुमको यह वचन दिया था कि तुम फिर कभी उस मार्ग पर नहीं लौटोगे। तुम वहाँ जाकर अपने शत्रुओं के यहाँ अपने को दास-दासी के रूप में बेच देना चाहोगे, लेकिन तुम्हें कोई नहीं ख़रीदेगा।"

69) प्रभु ने इस्राएलियों के लिए होरेब में जो विधान निर्धारित किया था, उसके सिवा उसने मूसा को आदेश दिया कि वह मोआब में यह विधान घोषित करें।



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