📖 - टोबीत का ग्रन्थ

अध्याय ➤ 01- 02- 03- 04- 05- 06- 07- 08- 09- 10- 11- 12- 13- 14- मुख्य पृष्ठ

अध्याय 12

1) टोबीत ने विवाहोत्सव के बाद अपने पुत्र टोबीयाह को बुला कर उस से कहा, "हमें उस व्यक्ति को, जो तुम्हारे साथ गया, वेतन के सिवा कुछ और देना चाहिए"।

2) उसने कहा, "पिताजी! मैं उसे कितना वेतन दूँ? मैं जो धन अपने साथ लाया, यदि मैं उसे उसका आधा भाग देता, तो भी मुझे कोई कमी नहीं होती।

3) उसने मुझे सुरक्षित वापस पहुँचाया, मेरी पत्नी को स्वस्थ किया, मेरे साथ रूपया ले आया और आप को स्वस्थ किया। मैं उसे कितना दे दूँ?"

4) टोबीत ने उस से कहा, "बेटा! यह उचित है कि तुम जो धन लाये हो, उसका आधा भाग उसे दिया जाये"।

5) टोबीयाह ने उसे बुलाया और कहा, "जो कुछ तुम अपने साथ ले आये, उसका आधा भाग वेतन के रूप में स्वीकार करो और सकुशल विदा लो"।

6) इस पर रफ़ाएल ने दोनों को एकान्त में बुला कर उन से कहा, "ईश्वर का धन्यवाद कीजिए और सब प्राणियों के सामने यह घोषित कीजिए कि उसने हमारा कितना उपकार किया है। उसके नाम के आदर में धन्यवाद और स्तुतिगान कीजिए। ईश्वर के सत्कार्य प्रकट करने में संकोच मत कीजिए।

7) राजा का रहस्य अवश्य गुप्त रखना चाहिए, किन्तु ईश्वर के कार्य घोषित करना और योग्य रीति से उसकी स्तुति करना उचित है। भलाई कीजिए और बुराई आपके पास नहीं फटकेगी।

8) प्रार्थना तथा उपवास और भिक्षादान तथा धार्मिकता उत्तम हैं। दुष्टता से संचित धन-सम्पदा की अपेक्षा धार्मिकता से कमाया हुआ थोड़ा धन भी अच्छा है। भिक्षादान स्वर्ण-संचय से श्रेष्ठ है।

9) भिक्षादान मृत्यु से बचाता और हर प्रकार का पाप हरता है। जो भिक्षादान करता है, उसे पूर्ण जीवन प्राप्त होगा।

10) जो पाप और अन्याय किया करते हैं, वे अपने को हानि पहुँचाते हैं।

11) मैं आपके लिए पूरा सत्य प्रकट करूँगा और आप लोगों से कुछ भी नहीं छिपाऊँगा। मैं आप से कह चुका हूँ कि राजा का रहस्य अवश्य गुप्त रखना चाहिए, किन्तु ईश्वर के कार्य घोषित करना उचित है।

12) जब आप और सारा प्रार्थना कर रहे थे, तो मैं आपकी प्रार्थना ईश्वर की महिमा के सामने प्रस्तुत कर रहा था। जब आप मुरदों को दफ़नाते थे, तो मैं यही करता था।

13) जब आप आगा-पीछा किये बिना अपना भोजन छोड़ कर मुरदा दफ़नाने गये, तो मुझे आपकी परीक्षा करने भेजा गया।

14) ईश्वर ने मुझे फिर भेजा, जिससे मैं आप को और आपकी बहू को स्वस्थ करूँ।

15) मैं स्वर्गदूत रफ़ाएल हूँ। मैं उन सात स्वर्गदूतों में से एक हूँ, जो प्रभु की महिमा के सामने उपस्थित रहते हैं।"

16) यह सुन कर दोनों घबरा कर मुँह के बल गिर पड़े और भयभीत हो गये।

17) उसने उन से कहा, "मत डरिए। आप को शान्ति मिले! सदा-सर्वदा ईश्वर की स्तुति कीजिए।

18) जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि ईश्वर की इच्छा से आपके साथ रहा। आप दिन-प्रतिदिन उसका स्तुतिगान कीजिए।

19) जब आपने मुझे खाते देखा, तो वह खाने का दिखावा मात्र था।

20) अब पृथ्वी पर प्रभु का धन्यवाद कीजिए और ईश्वर के महान् कार्यो का बखान कीजिए। मैं अब उसके पास जा रहा हूँ, जिसने मुझे भेजा है। आपके साथ जा कुछ घटित हुआ, वह सब लिख लीजिए"। स्वर्गदूत ऊपर चल पड़ा।

21) जब वे उठे, तो वह अन्तर्धान हो गया।

22) उन्होंने ईश्वर को गाते हुए धन्यवाद दिया। वे ईश्वर के महान् कार्यो का बखान करते रहे; क्योंकि उन्हें ईश्वर का दूत दिखाई दिया था।



Copyright © www.jayesu.com