📖 - मक्काबियों का पहला ग्रन्थ

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अध्याय 03

1) मत्तथ्या का पुत्र यूदाह, जो मक्काबी कहलाता था, उसका उत्तराधिकारी बना।

2) उसके सभी भाइयों और उन सब लोगों ने, जो उसके पिता के पक्ष में थे, उसका साथ दिया।

3) वे इस्राएल के लिए सहर्ष लड़ते रहे। उसने अपनी जाति के लिए यश कमाया, उसने भीमकाय योद्धा की तरह कवच पहना और अपने अस्त्र-शस्त्र धारण किये। वह लड़ता और अपनी तलवार से शिविर की रक्षा करता रहा।

4) वह युद्ध मे सिंह-जैसा था, सिंहशावक-जैसा, जो शिकार पर गरजता है।

5) उसने जगह-जगह विधर्मियों का पता लगाया और उनका पीछा किया। जो लोग उसकी जाति पर अत्याचार करते थे, उसने उन्हें जला दिया।

6) उसके आतंक से विधर्मी लोग दब गये और सब कुकर्मी घबरा गये। उसने अपने बाहुबल से उद्धार का मार्ग प्रशस्त्र किया।

7) उसने बहुत से राजाओं को तंग किया, किंतु याकूब को उस से सुख मिला। उसके नाम का यश सदा गाया जायेगा।

8) उसने यूदा के नगरों में जा-जा कर दुष्टों को वहाँ से भगाया और इस्राएल पर से ईश्वर का प्रकोप दूर किया।

9) उसका नाम संसार के सीमांतों तक फैल गया। उसने उन्हें एकत्र किया, जिनका विनाश निकट था।

10) अपल्लोनियस ने इस्राएल से लडने के लिए गैर-यहूदियों और समारिया के निवासियों की एक बड़ी सेना तैयार की।

11) जैसे ही यूदाह को इस बात कर पता चला, वह उसका सामना करने निकला। उसने उसे पराजित किया और उसका वध किया। बहुत-से लोग घायल हुए और मारे गये शेष योद्धा भाग खडे़ हुए।

12) उन्होंने उनका सामान लूटा। यूदाह ने अपल्लोनियस की तलवार ले ली और बाद में जीवन भर युद्ध में उसका उपयोग किया।

13) जब सीरिया के सेनापति सेरोन ने सुना कि यूदाह ने अपने अनुयायियों की सैना तैयार रखी है,

14) तो उसने कहा, "मैं नाम कमाऊँगा, राज्य में ख्याति प्राप्त करूँगा। मैं यूदाह और उसके अनुयायियों को पराजित करूँगा, जो राजा की अवहेलना करते हैं।"

15) इसलिए उसने इस्राएलियों से बदला लेने के लिए विधर्मियों की एक बड़ी सेना तैयार की और उसके साथ प्रस्थान किया।

16) वह बेतहोरोन के चढाव तक ही आ सका था कि उस समय यूदाह अपना छोटा-सा दल ले कर उसका सामना करने पहुँचा।

17) यूदाह के योद्धाओं ने अपने विरुद्ध आयी सेना को देख कर उस से कहा, “हमारी संख्या बहुत कम है। हम इतनी बड़ी और शक्तिशाली सेना से कैसे युद्ध करेंगे, इसके सिवा हमें खाने को आज कुछ भी नहीं मिला है और हम थके-माँदे हैं।“

18) यूदाह ने उत्तर दिया, "यह आसानी से हो सकता है कि एक बड़ा दल थोड़े लोगों से हार जाये; क्योंकि थोड़े लोग हो या बहुत बड़ी सेना हो, इसका ईश्वर के लिए कोई महत्व नहीं।

19) युद्ध में विजय सेना की विशालता पर नहीं, बल्कि उस शक्ति पर निर्भर है, जो स्वर्ग से मिलती है।

20) ये अहंकारी और दुष्ट लोग हमारी पत्नियों और हमारे बच्चों का नाश करने और हमें लूटने हम पर आक्रमण करने आ रहे हैं;

21) किन्तु हम अपने प्राणों और अपनी संहिता की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं।

22) ईश्वर हमारी आँखों के सामने इनका नाश करेगा। तुम इन से मत डरो।"

23) यूदाह अपनी बात समाप्त कर अचानक शत्रु पर टूट पड़ा। उसके सामने सेरोन और उसकी सेना का विनाश हो गया।

24) उन्होंने बेत-होरोन के उतार से मैदान तक उनका पीछा किया। शत्रु के आठ सौ आदमी मारे गये और बाकी लोग फिलिस्तियों के देश भाग गये।

25) तब लोग यूदाह और उसके भाइयों से डरने लगे और आसपास के गैर-यहूदियों पर उनका आतंक छा गया।

26) उसकी ख्याति राजा के कानों तक पहुँच गयी और यूदाह की युद्धकुशलता की चरचा सर्वत्र होने लगी।

27) यह सुन कर राजा अन्तियोख आग-बबूला हो उठा। उसने अपने राज्य के सब योद्धाओं को बुलाया और एक विशाल सेना एकत्र हो गयी।

28) उसने अपने कोष से सैनिकों को वर्ष भर का वेतन दिया और यह आज्ञा दी कि वे हर स्थिति के लिए तैयार हो जायें।

29) उसने देखा कि कोष में पैसा समाप्त हो रहा है और प्रदेशों से कर कम मिल रहा है; क्योंकि देश भर में इसलिए अशान्ति और आतंक फैल रहा था कि उसने प्राचीन काल से चले आ रहे विधि-निषेधों को रद्द कर दिया था।

30) उसे डर था कि अब दैनिक खर्च और उन उपहारों के लिए उसके पास धन नहीं बचेगा, जिन्हें वह अब तक इस प्रकार खुले हाथों लुटाता था, जिस प्रकार उसके पहले किसी राजा ने नहीं किया था।

31) इस से वह बहुत घबरा गया और फारस के प्रांतों से कर वसूलने और बहुत-सा धन एकत्र करने के उद्देश्य से उसने वहाँ जाने का निश्चय किया।

32) उसने लीसियस नामक कुलीन और राजवंशी मनुष्य को फरात नदी से ले कर मिस्र की सीमा तक के राज्य पर नियुक्त किया।

33) और लौटने तक उसे अपने पुत्र अंतियोख की शिक्षा-दीक्षा का भार सौंपा।

34) उसने उसके हाथ आधी सेना और अपने हाथी दिये और उसे अपनी सब योजनाएँ, विशेष कर यहूदियों और येरूसालेम के निवासियों के संबंध में बता दीं।

35) उसने कहा कि वह उनके विरुद्ध एक ऐसी सेना भेजे, जो इस्राएल की शक्ति और येरूसालेम के बचे हुए लोगों का सर्वनाश करने और वहाँ उनकी स्मृति मिटाने में समर्थ हो।

36) इसके बाद वह उनके क्षेत्र में विदेशियों को बसा दे और चिट्ठियाँ डाल कर उनका देश बाँट दे।

37) सेना का शेष आधा भाग ले कर राजा ने एक सौ सैंतालीसवें वर्ष अपनी राजधानी अंताकिया से चल कर फरात नदी पार की और वह फारस के पठार की ओर बढ़ा।

38) लीसियस ने राजा के मित्रों में इन शक्तिशाली व्यक्तियों को चुना- दोरिमेनस के पुत्र पतोलेमेउस, निकानोर और गोरगियस को

39) उसने उन्हें चालीस हजार पैदल सैनिक और सात हजार घुडसवार दिये, जिससे वे यूदा देश पर आक्रमण कर राजा के आज्ञानुसार उसका विनाश कर दें।

40) वे अपनी सारी सेना ले कर निकल पडे और उन्होंने अम्माऊस के पास के मैदान में पड़ाव डाला।

41) जब उस प्रांत के व्यापारियों ने इस विषय में सुना, तो वे बहुत-सी-सोना-चाँदी तथा हथकड़ियाँ लिये उनके शिविर पहुँचे, जिससे वे इस्राएली दासों को खरीदें। सीरिया से और फिलिस्तियों के देश से एक-एक दल उनका साथ देने आया।

42) इधर यूदाह और उसके भाइयों ने देखा कि स्थिति गंभीर है और शत्रुओं की सेना उनके देश में आ गयी है। उन्होंने यह भी सुना कि राजा ने आदेश दे रखा हैं कि उनकी जाति का सर्वनाश कर दिया जाये।

43) वे आपस में कहने लगे, "हम अपनी जाति को विनाश से बचायें और अपने पवित्र-स्थान के लिए लड़ें"।

44) लोगों की सभा बुलायी गयी, जिससे वे युद्ध की तैयारी करें और दया और अनुकम्पा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें।

45) येरूसालेम उजाडखण्ड की तरह निर्जन पड़ा था। उसके निवासियों में न तो कोई नगर आता और न कोई वहाँ से जाता था। मंदिर रौंद गया था। गैर-यहूदी गढ में बस गये; वह विदेशियों का अड्डा बन गया। याकूब से आनंद का विलोप हो गया और बांसुरी-सितार सब मौन हो गये।

46) वे एकत्रित हो कर मिस्पा आ पहुँचे, जो येरूसालेम के सामने हैं। मिस्पा में पहले इस्राएलियों का एक प्रार्थना-स्थान था।

47) उन्होंने उस दिन वहाँ उपवास किया, टाट ओढ़ा, सिर पर राख डाली और अपने वस्त्र फाडे़।

48) जिस प्रकार गैर-यहूदी अपनी देवमूर्तियों के सामने शकुन विचारते हैं, उसी प्रकार उन्होंने संहिता का ग्रंथ खोला।

49) वे याजकीय वस्त्र ले आये। उन्होंने प्रथम फल और दशमांश चढाये। उन्होंने उन लोगों को बुलाया, जिनका नाजीर-व्रत पूरा हो चुका था।

50) जब उन्होंने स्वर्ग के ईश्वर की दुहाई देते हुए पूछा, "हम इन लोगों के लिए क्या करे, हम इन्हें कहाँ ले जाये?

51) तेरा मंदिर रौंदा और अपवित्र किया गया है। तेरे याजक अपमानित हो कर शोक मनाते हैं।

52) गैर-यहूदी हमारा विनाश करने एकत्र हो गये हैं। तू जानता है कि वे हमारे साथ क्या करना चाहते हैं।

53) हम तेरी सहायता के बिना उनका सामना कैसे कर पायेंगे?"

54) इसके बाद उन्होंने तुरहियाँ बजायीं और ऊँचे स्वर में दुहाई दी।

55) इसके बाद यूदाह ने लोगों पर सेनापति नियुक्त किये-प्रति हजार, सौ, पचास और दस पर एक-एक अध्यक्ष।

56) जो व्यक्ति घर बना रहे थे, जिनका विवाह हाथ में हुआ था या जो दाखबारी लगा रहे थे या जो कायर थे, उनसे उसने संहिता के अनुसार यह कहा कि वे घर लौट सकते हैं।

57) सेना ने प्रस्थान कर अम्माऊस के दक्षिण में पडाव डाला।

58) यूदाह ने कहा, ’शस्त्र धारण करो, वीरों की संतान की तरह दृढ़ रहो और कल सुबह उन विदेशियों से लड़ने के लिए तैयार रहो, जो हमारा और हमारे पवित्र-स्थान का विनाश करने हम पर आक्रमण करने आये हैं।

59) अपनी जाति और पवित्र-स्थान का विनाश देखने से तो यह कहीं अच्छा है कि हम युद्ध में मारे जायें।

60) ईश्वर जो चाहता है, वह पूरा हो कर रहेगा।"



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