📖 - मक्काबियों का दूसरा ग्रन्थ

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अध्याय 15

1) जब निकानोर को पता चला कि यूदाह के आदमी समारिया में एकत्र हैं, तो उसने सुरक्षा के विचार से विश्राम के दिन ही उन पर आक्रमण करने का निश्चय किया।

2) दबाव के कारण जो यहूदी उसके साथ थे, उन्होंने उस से कहा, "आप क्रूर और बर्बर रीति से उनका वध न करें। आप उस दिन का आदर करें, जिसे सर्वज्ञ ईश्वर ने प्रारम्भ से सम्मानित और पवित्र किया है।"

3) लेकिन उस अभिशप्त व्यक्ति ने पूछा, "क्या स्वर्ग में कोई प्रभु है, जिसने विश्राम का दिन मनाने का आदेश दिया है?"

4) उन्होंने स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया, "स्वयं जीवन्त प्रभु, स्वर्ग के सर्वशक्तिमान् शासक ने सातवाँ दिन पवित्र करने का आदेश दिया है"।

5) इस पर उसने कहा, "तो मैं इस पृथ्वी का शासक हूँ और मैं यह आज्ञा देता हूँ कि तुम अस्त्र-शस्त्र धारण कर राजाज्ञा का पालन करो"। किन्तु वह दुष्ट अपनी योजना में सफल नहीं हुआ।

6) निकानोर ने उत्कट घमण्ड में निश्चय किया कि वह यूदाह और उसके आदिमयों की लूट से एक भव्य स्मारक का निर्माण करेगा।

7) किन्तु मक्काबी अटल विश्वास से प्रभु की सहायता की प्रतीक्षा करता रहा।

8) उसने अपने आदमियों को समझाया कि वे विदेशियों के इस आक्रमण से नहीं डरें, बल्कि याद रखें कि उन्हें कितनी ही बार स्वर्ग की ओर से सहायता मिल चुकी है। इसलिए वे अब भी विश्वास करें कि सर्वशक्तिमान् उन्हें विजय दिलायेगा।

9) उसने संहिता और नबियों का हवाला देते हुए हुए उन्हें उत्साहित किया। उसने उन्हें याद दिलाया कि वे कितनी लडाइयाँ लड़ चुके हैं।

10) उसने उन में लडने का उत्साह भर कर यह भी बतलाया कि विदेशी कैसे विश्वासघाती है और कैसे अपनी शपथें भंग करते रहे हैं।

11) इस प्रकार उसने ने केवल ढालों और भालों से, बल्कि अपनी प्रभावशाली बातों से प्रत्येक व्यक्ति को तैयार किया। इसके बाद उसने उन्हें एक विश्वास योग्य स्वप्न के विषय में भी बताया, जिससे सभी अत्याधिक आनन्दित हो उठे।

12) उसका वह दर्शन इस प्रकार था: उसने देखा कि ओनियस, जो कभी प्रधानयाजक रह चुका था, जो कुलीन और विनम्र व्यक्ति था तथा जिसका व्यवहार बड़ा मधुर था, जो अच्छा वक्ता था और बचपन से ही सभी सद्गुणों से संपन्न था, हाथ उठा कर समस्त यहूदी प्रजा के लिए प्रार्थना कर रहा है।

13) इसके बाद यूदाह को एक ऐसा पुरुष दिखाई पडा, जो उसी तरह प्रार्थना कर रहा था। वह वृद्ध था और उसका स्वरूप गौरव, ऐश्वर्य और प्रताप से समन्वित था।

14) तब ओनियस ने यूदाह से कहा, "यह ईश्वर के नबी यिरमियाह हैं, जो अपने भाइयों को प्यार करते और अपने देश-भाइयों और पवित्र नगर के लिए बराबर प्रार्थना करते हैं"।

15) इसके बाद यिरमियाह ने दाहिना हाथ बढ़ा कर यूदाह को सोने की एक तलवार देते हुए कहा,

16) "यह पवित्र तलवार ले लो, यह ईश्वर का उपहार है। इस से तुम शत्रुओं को कुचल दोंगे।"

17) यूदाह की प्रभावशाली बातों ने उन का साहस बँधाया और युवकों के हृदयों को उत्साह से भर दिया। इसलिए यहूदियों ने निश्चिय किया कि वे पड़ाव न डाल कर सीधे साहस के साथ आक्रमण करेंगे और पूरी शक्ति से लड़ कर निर्णयात्मक युद्ध करेंगे; क्योंकि नगर, स्वधर्म और मंदिर खतरे में थे।

18) उन्हें अपनी पत्नियों, बाल-बच्चों और भाई-बंधुओं की भी चिंता थी, लेकिन यह चिंता उतनी नहीं थी, जितनी पवित्र मंदिर की।

19) वे लोग भी बड़ी चिंता में थे, जो नगर में पड़े थे। वे इस बात से घबरा रहे थे कि लडाई खुले मैदान में होने जा रही थी।

20) युद्ध का परिणाम जानने को सभी उत्सुक थे। इतने में शत्रु की सेना एकत्र हो गयी और व्यहूरचना कर चुकी। हाथियों को उपयुक्त स्थानों पर रखा गया और घुड़सवारों को पाश्र्वभागों में।

21) जब मक्काबी ने शक्तिशाली शत्रु को निकट आते देखा और यह देखा कि उनके पास कितने प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हैं और उनके हाथी कितने डरावने हैं, तो वह स्वर्ग की ओर हाथ जोड़कर उस प्रभु की दुहाई देने लगा, जो चमत्कार दिखाता है। उसे पूरा विश्वास था कि विजय अस्त्र-शस्त्रों पर निर्भर नहीं होती, बल्कि उनकी होती है, जिन्हें प्रभु इसके योग्य मानता है।

22) उसने यह प्रार्थना की, "प्रभु! तूने यूदा के राजा हिज़कीया को सहायता के लिए अपना दूत भेजा, जिसने सनहेरीब के पड़ाव में लगभग एक लाख पचासी हजार आदमियों का वध किया।

23) स्वर्ग के प्रभु! अब फिर अपना एक उत्तम दूत भेज, जो हमारे आगे-आगे चल कर शत्रुओं में भय और आतंक उत्पन्न करे।

24) जो लोग ईशनिंदा करते हुए अपनी पवित्र प्रजा पर आक्रमण करने आ रहे हैं, उन्हें अपने भुजबल से मार गिरा।" उसने इन शब्दों के साथ अपनी प्रार्थना समाप्त की।

25) निकानोर के सैनिक नरसिंघे बजाते और गीत गाते आगे बढे।

26) यूदाह के आदमी प्रार्थना करने के बाद प्रभु की दुहाई देते हुए शत्रुओं पर टूट पड़े।

27) वे हाथों से लड़ रहे थे और हृदय से ईश्वर की प्रार्थना कर रहे थे। उन्होंने ईश्वर की सहायता का अनुभव करते हुए उल्लासित हो कर पैंतीस हजार आदमियों को मार गिराया।

28) जब लडाई समाप्त हुई और वे आनन्द के साथ पीछे हटे तो उन्होंने देखा कि निकानोर कवच पहने मरा पड़ा है।

29) इस पर वे गगनभेदी नारे लगाने और अपनी मातृभाषा में सर्वशक्तिमान् प्रभु को धन्य कहने लगे।

30) तब यूदाह ने, जो अपनी सहनागरिकों के लिए सदा तन-मन से प्रथम पंक्ति में लडता रहा और बाल्यावस्था से अपने देश-भाइयों को प्यार करता आया, निकानोर का सिर और उसकी पूरी दाहिनी बाँह काट देने और उन्हें येरूसालेम ले जाने का आदेश दिया।

31) वहाँ पहुँच पर उसने अपने देश-भाइयों और याजकों को एकत्र किया और स्वयं वेदी के सामने खड़ा रहा। उसने गढ़ के लोगों को बुला भेजा।

32) और उन्हें दुष्ट निकानोर का सिर और उस ईशनिंदक का हाथ दिखाया, जिसे उसने घमण्ड के आवेश में सर्वेश्वर के मंदिर के विरुद्ध उठाया था।

33) उसने विधर्मी निकानोर की जीभ काटवा कर उसके टुकडे पक्षियों को दे देने और उन्माद के पुरस्कार के रूप में उसका हाथ मंदिर के सामने लटकाने का आदेश दिया।

34) तब सब ने स्वर्ग की ओर आँखें उठा कर प्रभु को धन्यवाद दिया, जिसने प्रकट रूप से उनकी सहायता की थी। उन्होंने कहा, "धन्य हैं वह, जिसने अपने निवास को दूषित होने से बचाया है!"

35) यूदाह ने निकानोर का सिर गढ की दीवार पर लटकवा दिया, जिससे वह सब के लिए एक सुस्पष्ट प्रमाण हो कि प्रभु ने उनकी सहायता की थी।

36) यह निर्णय सर्वसम्मति से किया गया कि उन दिन को नहीं भुलाया जाये, बल्कि (सीरिया की भाषा में) अदार नामक महीने के तेरहवें दिन, मोरदकय-दिवस के पूर्वदिन, समारोह के साथ उसका उत्सव मनाया जाये।

37) ये हैं-निकानोर के समय की घटनाएँ। उस समय से नगर इब्रानियों के ही अधिकार में रहा। अब यहाँ मैं भी अपनी रचना समाप्त करता हूँ।

38) यदि यह सुंदर और सुगठित है, तो मैं समझूँगा कि मेरा उद्देश्य सफल हुआ। किंतु यदि यह शिथिल और बहुत साधारण है, तो मैं इतना ही कर सकता था।

39) जिस तरह केवल मदिरा या केवल पानी पीना हानिकर है, जब कि पानी-मिली मदिरा रूचिकार होती और मन प्रसन्न कर देती है, उसी तरह कोई रचना सुंदर वस्तु-विन्यास के कारण पाठकों के लिए श्रुतिमधुर हो जाती है। बस, यही मेरा वृतांत।



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