📖 - अय्यूब (योब) का ग्रन्थ

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अध्याय 35

1) एलीहू ने फिर कहा:

2) क्या तुम अपना यह कहना सही मानते हो: "मैं ईश्वर की अपेक्षा अधिक न्यायी हूँ"?

3) तुमने कहा, "इसका क्या महत्व है? मुझे अपनी धार्मिकता से क्या लाभ होता है?"

4) मैं तुम्हारे मित्रों के साथ तुम को अपने भाषण द्वारा निरूत्तर कर दूँगा।

5) आकाश की ओर आँखे ऊपर उठा कर देखो, ऊँचे-ऊँचे बादलों पर दृष्टि डालो।

6) जब तुम पाप करते हो, तो ईश्वर का क्या बिगड़ता है? तुम्हारे पाप भले ही असंख्य हो, किंतु उस से ईश्वर को क्या?

7) तुम्हारे सदाचरण से ईश्वर को कोई लाभ नहीं, उसे तुम्हारी ओर से कुछ नहीं मिलता!

8) तुम्हारे अधर्म का प्रभाव केवल तुम्हारे-जैसे लोगों पर पड़ता है, मनुष्यों को ही तुम्हारी धार्मिकता से लाभ होता है।

9) अत्याचार से पीड़ित मनुष्य दुहाई देते हैं, वे शक्तिशालियों से दब कर आह भरते हैं।

10) कोई यह नहीं कहता, "मेरा वह सृष्टिकर्ता ईश्वर कहाँ है, जो लोगों को रात में गीत गाने के लिए प्रेरित करता है,

11) जो पृथ्वी के पशुओं द्वारा हमें शिक्षा देता और हमें आकाश के पक्षियों से अधिक समझदार बनाता है?"

12) दुष्टों के अहंकार के कारण ईश्वर मनुष्यों की दुहाई का उत्तर नहीं देता।

13) ईश्वर उसकी खोखली दुहाई नहीं सुनता, सर्वशक्तिमान् उस पर ध्यान ही नहीं देता।

14) अय्यूब! ईश्वर तुम्हारी बात नहीं सुनेगा; क्योंकि तुमने कहा, "ईश्वर मुझे दिखाई नहीं देता, मेरा मामला उसके सामने है और मैं प्रतीक्षा करता हूँ।"

15) यदि वह अभी भी क्रुद्ध हो कर हस्तक्षेप नहीं करता और तुम्हारी चुनौती स्वीकार नहीं करता,

16) तो तुम बेकार डींग मारते और बेसिर-पैर की बात करते हो



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