📖 - स्तोत्र ग्रन्थ

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अध्याय 105

1) अल्लेलूया! प्रभु की स्तुति करो, उसका नाम धन्य कहो; राष्ट्रों में उसके महान् कार्यों का बखान करो।

2) उसके आदर में गीत गाओ और बाजा बजाओ; उसके सब चमत्कारों को घोषित करो।

3) उसके पवित्र नाम पर गौरव करो। प्रभु को खोजने वालों का हृदय आनन्दित हो।

4) प्रभु और उसके सामर्थ्य का मनन करो। उसके दर्शनों के लिए लालायित रहो।

5) उसके चमत्कार, उसके अपूर्व कार्य और उसके निर्णय याद रखो।

6) प्रभु-भक्त इब्राहीम की सन्तति! याकूब के पुत्रों! प्रभु की चुनी हुई प्रजा!

7) प्रभु ही हमारा ईश्वर है; उसके निर्णय समस्त पृथ्वी पर व्याप्त हैं।

8) प्रभु को अपना विधान सदा स्मरण रहता है, हजारों पीढ़ियों के लिए अपनी प्रतिज्ञाएँ,

9) इब्राहीम के लिए निर्धारित विधान, इसहाक के सामने खायी हुई शपथ,

10) याकूब को प्रदत्त संहिता, इस्राएल के लिए चिरस्थायी विधान।

11) उसने कहा था: मैं तुम्हें कनान देश प्रदान करूँगा, वह तुम्हारे लिए निश्चित की हुई विरासत है।

12) उस समय उनकी संख्या बहुत कम थी, वे मुट्ठी-भर अप्रवासी थे।

13) वे एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में, एक राज्य से दूसरे राज्य में भटकते फिरते थे।

14) फिर भी प्रभु ने किसी को उन पर अत्याचार नहीं करने दिया, उसने उनके कारण राजाओं को डाँटा :

15) "मेरे अभिषिक्तों पर हाथ नहीं लगाना, मेरे नबियों को कष्ट नहीं देना"।

16) उसने उस देश में अकाल पड़ने दिया, उसने जीवन-निर्वाह के सब साधन नष्ट कर दिये।

17) उसने उस से पहले एक मनुष्य को वहाँ भेजा: यूसुफ़ वहाँ दास के रूप में बिक गया।

18) उसके पैरों में बेड़ियाँ डाली गयीं और उसकी गर्दन में लोहे की जंजीरें।

19) उसकी भविष्यवाणी पूरी हो गयी; प्रभु की वाणी ने उसे सच्चा प्रमाणित किया।

20) राजा ने उसे रिहा करने का आदेश दिया, राष्ट्रों के शासक ने उसे मुक्त किया,

21) उसे अपने घराने का अधिपति और अपनी सारी सम्पत्ति का प्रबन्धक बनाया,

22) जिससे वह उसके पदाधिकारियों को प्रशिक्षण दे और वयोवृद्धों को प्रज्ञा प्रदान करे।

23) तब इस्राएल ने मिस्र देश में प्रवेश किया; याकूब हाम के देश में अप्रवासी के रूप में रहने लगा।

24) ईश्वर ने अपनी प्रजा की संख्या बहुत अधिक बढ़ायी और उसे उसके विरोधियों से अधिक शक्तिशाली बनाया।

25) उसने मिस्रियों का हृदय बदल दिया, जिससे वे उसकी प्रजा से बैर करें और उसके साथ छल-कपट करें।

26) तब उसने अपने सेवक मूसा को और अपने कृपापात्र हारून को भेजा।

27) इन दोनों ने मिस्र में प्रभु के चमत्कार दिखाये; हाम के देश में ईश्वर के अपूर्व कार्य सम्पन्न किये।

28) उसने अन्धकार भेजा और समस्त देश पर अन्धकार छाया रहा; किन्तु उन्होंने उसका कहना नहीं माना।

29) उसने उनका जल रक्त में बदल दिया और उनकी मछलियों का विनाश कर दिया।

30) उनका देश मेढ़कों से भर गया; वे उनके शासकों के महलों में घुस गये।

31) उसके कहने पर उनके समस्त देश पर डाँस और मच्छर छा गये।

32) उसने वर्षा के बदले उनके सारे देश पर ओले बरसाये और धधकती आग गिरायी।

33) उसने उनकी दाख और अंजीर की बारियों को नष्ट किया और उनके सीमान्तों के पेड़ों को तोड़ दिया।

34) उसके कहने पर टिड्डियाँ और असंख्य कीड़े-मकोड़े उमड़ आये।

35) इन्होंने देश भर की वनस्पतियों को खाया; इन्होंने धरती की फसलों को चाट डाला।

36) उसने मिस्र के सब पहलौठों को, उनकी जवानी की पहली सन्तानों को मारा।

37) तब वह अपनी प्रजा को सोने-चाँदी के साथ निकाल लाया; उसके वंशों में वहाँ एक भी नहीं छूटा।

38) उनके प्रस्थान पर मिस्र आनन्दित हो उठा, क्योंकि उस पर आतंक छा गया था।

39) उसने उनकी रक्षा के लिए बादल फैला दिया और रात में प्रकाश के लिए आग।

40) उनके माँगने पर उसने बटेरों को भेजा और उन्हें स्वर्ग की रोटी से तृप्त किया।

41) उसने चट्टान को फाड़ा; जल फूट निकला और नदी की तरह निर्जल भूमि में बहने लगा।

42) उसने अपने सेवक इब्राहीम के प्रति अपनी पवित्र प्रतिज्ञा को स्मरण रखा।

43) वह अपनी प्रफुल्लित प्रजा को, उपने कृपापात्रों को, आनन्द के गीत गाते हुए निकाल लाया।

44) उसने उन्हें राष्ट्रों की भूमि दे दी; वे अन्य जातियों के परिश्रम का फल पाते हैं,

45) बशर्ते वे उसके विधान के अनुसार चलते और उसकी संहिता का पालन करते हों। अल्लेलूया!



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