📖 - स्तोत्र ग्रन्थ

अध्याय ➤ 01- 02- 03- 04- 05- 06- 07- 08- 09- 10- 11- 12- 13- 14- 15- 16- 17- 18- 19- 20- 21- 22- 23- 24- 25- 26- 27- 28- 29- 30- 31- 32- 33- 34- 35- 36- 37- 38- 39- 40- 41- 42- 43- 44- 45- 46- 47- 48- 49- 50- 51- 52- 53- 54- 55- 56- 57- 58- 59- 60- 61- 62- 63- 64- 65- 66- 67- 68- 69- 70- 71- 72- 73- 74- 75- 76- 77- 78- 79- 80- 81- 82- 83- 84- 85- 86- 87- 88- 89- 90- 91- 92- 93- 94- 95- 96- 97- 98- 99- 100- 101- 102- 103- 104- 105- 106- 107- 108- 109- 110- 111- 112- 113- 114- 115- 116- 117- 118- 119- 120- 121- 122- 123- 124- 125- 126- 127- 128- 129- 130- 131- 132- 133- 134- 135- 136- 137- 138- 139- 140- 141- 142- 143- 144- 145- 146- 147- 148- 149- 150-मुख्य पृष्ठ

अध्याय 138

1) प्रभु! मैं सारे हृदय से तुझे धन्यवाद देता हूँ; क्योंकि तूने मेरी सुनी है। मैं स्वर्गदूतों के सामने तेरी स्तुति करता हूँ।

2) मैं तेरे पवित्र मन्दिर को दण्डवत् करता हूँ। मैं तेरे अपूर्व प्रेम की सत्यप्रतिज्ञा के कारण तेरे नाम का गुणगान करता हूँ। तूने पहले से भी अधिक अपनी सत्यप्रतिज्ञता का यश बढ़ाया है।

3) जिस दिन मैंने तुझे पुकारा, उस दिन तूने मेरी सुनी और मुझे आत्मबल प्रदान किया।

4) प्रभु! पृथ्वी भर के राजा तेरा गुण-गान करें, क्योंकि वे तेरे मुख की प्रतिज्ञाएँ सुन चुके हैं।

5) वे प्रभु के कार्यों का बखान करें, "प्रभु की महिमा अपार है"।

6) प्रभु महान् है। वह दीनों पर दया-दृष्टि करता और धमण्डियों से मुँह फेर लेता है।

7) विपत्ति में तू मुझे नवजीवन प्रदान करता और मेरे शत्रुओं पर हाथ उठाता है। तेरा दाहिना हाथ मेरा उद्धार करता है।

8) प्रभु अन्त तक तेरा साथ देगा। प्रभु! तेरी सत्यप्रतिज्ञता चिरस्थायी है। अपनी सृष्टि को सुरक्षित रखने की कृपा कर।



Copyright © www.jayesu.com