📖 - स्तोत्र ग्रन्थ

अध्याय ➤ 01- 02- 03- 04- 05- 06- 07- 08- 09- 10- 11- 12- 13- 14- 15- 16- 17- 18- 19- 20- 21- 22- 23- 24- 25- 26- 27- 28- 29- 30- 31- 32- 33- 34- 35- 36- 37- 38- 39- 40- 41- 42- 43- 44- 45- 46- 47- 48- 49- 50- 51- 52- 53- 54- 55- 56- 57- 58- 59- 60- 61- 62- 63- 64- 65- 66- 67- 68- 69- 70- 71- 72- 73- 74- 75- 76- 77- 78- 79- 80- 81- 82- 83- 84- 85- 86- 87- 88- 89- 90- 91- 92- 93- 94- 95- 96- 97- 98- 99- 100- 101- 102- 103- 104- 105- 106- 107- 108- 109- 110- 111- 112- 113- 114- 115- 116- 117- 118- 119- 120- 121- 122- 123- 124- 125- 126- 127- 128- 129- 130- 131- 132- 133- 134- 135- 136- 137- 138- 139- 140- 141- 142- 143- 144- 145- 146- 147- 148- 149- 150-मुख्य पृष्ठ

अध्याय 97

1) प्रभु राज्य करता है। पृथ्वी पर उल्लास हो! असंख्य द्वीप आनन्द मनायें।

2) अन्धकारमय बादल उसके चारों ओर मँडराते हैं। उसका सिंहासन धर्म और न्याय पर आधारित है।

3) अग्नि उसके आगे-आगे चलती है और उसके शत्रुओं को चारों ओर जलाती है।

4) उसकी बिजली संसार पर चमकती है, पृथ्वी यह देख कर काँपने लगती है।

5) पृथ्वी के अधिपति के आगमन पर पर्वत मोम की तरह पिघलने लगते हैं।

6) आकाश प्रभु का न्याय घोषित करता है। सभी राष्ट्र उसकी महिमा के दर्शन करते हैं।

7) जो लोग देवमूर्तियों की पूजा करते हैं, जो उन मूर्तियों पर गौरव करते हैं, उन्हें निराश होना पड़ेगा। सभी देवताओं! प्रभु को दण्डवत् करो।

8) प्रभु! तेरा निर्णय सुन कर सियोन आनन्दित हो उठता है, याकूब के गाँव उल्लास के गीत गाते हैं;

9) क्योंकि तू समस्त पृथ्वी पर सर्वोच्च प्रभु है। तू ही सभी देवताओं से महान् है।

10) प्रभु-भक्तो! बुराई से घृणा करो! प्रभु अपने भक्तों की रक्षा करता और उन्हें दुष्टों के पंजे से छुड़ाता है।

11) धर्मी के लिए ज्योति का उदय होता है, निष्कपट लोग आनन्द मनाते हैं।

12) धर्मियों! प्रभु में आनन्द मनाओ! उसके पवित्र नाम को धन्य कहो।



Copyright © www.jayesu.com