📖 - प्रज्ञा-ग्रन्थ (Wisdom)

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अध्याय 08

1) प्रज्ञा की शक्ति पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक सक्रिय है और वह सुचारू रूप से विश्वका संचालन करती है।

2) मैंने उस को प्यार किया और युवावस्था से उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहा। मैंने उसे अपनी दुलहन बना कर अपने घर में लाना चाहा, क्योंकि मैं उसके सौन्दर्य का उपासक बन गया था।

3) वह अपनी कुलीनता पर गर्व करती है, क्योंकि वह ईश्वर के यहाँ निवास करती है और सर्वेश्वर उस को प्यार करता है।

4) वह ईश्वर-सम्बन्धी ज्ञान में दीक्षित हो चुकी है और ईश्वर के कार्य निर्धारित करती है।

5) यदि जीवन मेंं सम्पत्ति वांछनीय है, तो प्रज्ञा से बड़ी सम्पत्ति क्या है, जो सब कार्य सम्पन्न करती है?

6) यदि हमारी बुद्धि कार्यकुशल है, तो प्रज्ञा कहीं अधिक कार्यकुशल है, क्योंकि वह सब कुछ की जन्मदात्री है।

7) यदि कोई धार्मिकता को प्यार करता है, तो सद्गुण प्रज्ञा के परिश्रम से उत्पन्न होते हैं; क्योंकि वह संयम, विवेक, न्याय और धैर्य की शिक्षा देती है और मानव जीवन में इन से लाभदायक कुछ नहीं हो सकता।

8) और यदि कोई प्रचुर मात्रा में अनुभव प्राप्त करना चाहता है, तो प्रज्ञा अतीत जानती और भविष्य का अनुमान लगाती है। वह सूक्तियों की व्याख्या करती और पहेलियाँ सुलझाती है। उसे चिन्हों चमत्कारों, कालों और युगों का पूर्वज्ञान है।

9) इसलिए मैंने उसे अपनी जीवन-संगिनी बनाने का संकल्प किया; क्योंकि मैं जानता था कि इस प्रकार मुझे उस से कल्याणकारी परामर्श और चिन्ताओें एवं दुःख में सान्त्वना मिलती।

10) उसी के कारण मुझे जनता में यश और युवक होते हुए भी बड़ों का सम्मान प्राप्त होता।

11) मैं निर्णय देने में प्रवीण बनता और मुझे शासकों की प्रशंसा प्राप्त होती।

12) यदि मैं मौन रहता, तो लोग प्रतीक्षा करते, यदि मैं बोलता, तो वे ध्यान से सुनते। यदि मैं बहुत देर तक भाषण देता, तो वे दाँत तले उँगली दबाते।

13) मैं प्रज्ञा द्वारा, अमरत्व प्राप्त करता और आने वाली पीढ़ियों में मेरी स्मृति सदा बनी रहती।

14) मैं जातियों पर राज्य करता और राष्ट्र मेरे अधीन हो जाते।

15) मेरा नाम सुनते ही दुर्जेय राजा काँपते। मैं जनता के बीच भला और युद्ध में वीर दिखता।

16) अपने यहाँ लौटने पर मैं उसके पास विश्राम करता; क्योंकि उसकी संगति में न तो कोई कटुता है और न उसके सान्निध्य में कोई क्लान्ति वहाँ केवल सुख और आनन्द मिलता है।

17) मन-ही-मन विचार कर और हृदय में यह सोच कर कि प्रज्ञा के रिष्ते से अमरता प्राप्त होती है,

18) उसकी मित्रता से शुभ आनन्द, उसके हाथ के कार्यों से अक्षय सम्पत्ति, उसके साहचर्य से विवेक और उसके साथ वार्तालाप से सुयष मिलता है। मैं उसे चारों ओर ढूँढ़ता रहा, जिससे मैं उसे अपनाऊँ।

19) मैं उस समय एक प्रतिभाशाली और सहृदय नवयुवक था;

20) सद्गुणी होने के कारण मुझे एक अदोष शरीर मिला,

21) किन्तु यह ज्ञान कर कि यदि ईश्वर मुझे प्रज्ञा प्रदान नहीं करेगा, तो मैं उसे प्राप्त नहीं कर पाऊँगा हालाँकि यह जानना भी प्रज्ञा था कि वह किसका वरदान है। मैंने प्रभु की ओर अभिमुख हो कर सारे हृदय से यह कहते हुए प्रार्थना की:



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