📖 - प्रज्ञा-ग्रन्थ (Wisdom)

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अध्याय 16

1) उन्हें इस प्रकार के जन्तुओं के माध्यम से दण्ड मिला और कीड़ों के दलों द्वारा कष्ट दिया गया।

2) उस दण्ड के विपरीत तूने अपनी प्रजा का उपकार किया। तूने उसकी लालसा शान्त करने के लिए उसे बटेरों का स्वादिष्ट भोजन प्रदान किया।

3) इसके विपरीत जब वे भूखे थे, तो उन्हें अपने पर भेजे हुए घृणित जन्तु देख कर सब प्रकार के भोजन से वितृष्णा हुई, जब कि तेरी प्रजा को थोड़े समय के अभाव के बाद उत्तम व्यंजनों का स्वाद मिला।

4) उन अत्याचारियों को एक विकट भुखमरी सहनी पड़ी, जब कि तेरी प्रजा को दिखाया गया कि उसके शत्रुओं को किस प्रकार की यन्त्रणा दी गयी थी।

5) जब तेरी प्रजा पर जन्तुओं का प्रकोप भड़क उठा और वह कुटिल साँपों के दंश से नष्ट हो रही थी, तो तेरा क्रोध बहुत समय तक नहीं बना रहा।

6) उसे चेतावनी के रूप में कुछ समय तक डराया गया और संहिता की आज्ञाओें का स्मरण दिलाने के लिए उसे मुक्ति का चिह्न दिखाया गया।

7) जो उस चिह्न की ओर अभिमुख हुआ, उसकी उस दृश्य द्वारा नहीं, बल्कि तेरे, सब के मुक्तिदाता द्वारा रक्षा हुई।

8) इस प्रकार तूने हमारे शत्रुओं को यह प्रमाण दिया कि तू ही सब बुराई से मुक्त करता है।

9) वे टिड्डों और डाँसों के काटने से मर गये और उनके जीवन की रक्षा का कोई उपाय नहीं था, क्योंकि वे उस प्रकार के जानवरों द्वारा दण्ड पाने योग्य थे।

10) किन्तु विषैले साँपों के दाँत भी तेरी प्रजा पर विजयी नहीं हुए, क्योंकि तेरी दया ने आ कर उसे चंगा किया।

11) वह तेरी आज्ञाओें का स्मरण दिलाने के लिए डँसी गयी, किन्तु उसे शीघ्र ही बचाया गया। कहीं ऐसा न हो कि वह उन आज्ञाओें को इस प्रकार भुला दे कि वह तेरे उपकारों के प्रति उदासीन बन जाये!

12) क्योंकि उसे किसी जड़ी-बूटी या लेप से स्वास्थ्य लाभ नहीं हुआ, बल्कि प्रभु! तेरे शब्द ने उसे चंगा किया था।

13) जीवन और मृत्यु पर तेरा ही अधिकार है। तू अधोलोक के फाटकों तक पहुँचाता और फिर ऊपर उठाता है।

14) मनुष्य अपनी दुष्टता के कारण वध कर सकता है, किन्तु वह न तो छूटे हुए प्राणों को वापस लाने में समर्थ है और न (अधोलोक में) बन्द आत्मा का उद्धार करने में।

15) कोई तेरे हाथ से भाग कर निकल नहीं सकता।

16) जो अधर्मी तुझे स्वीकार करना नहीं चाहते थे, वे तेरे बाहुबल द्वारा मारे गये: वे असाधारण वर्षा, ओलों और भीषण आँधी से सताये और बिजली की आग से नष्ट किये गये।

17) सब से आश्चर्यजनक बात यह थी कि पानी में, जो सब कुछ बुझाता है, आग बल पकड़ रही थी; क्योंकि सृष्टि धर्मियों की ओर से युद्ध करती है।

18) ज्वाला कभी-कभी शान्त हो जाती थी, जिससे दुष्टों के विनाश के लिए भेजे जन्तु नहीं मरें और वे स्वयं यह देख कर समझे कि ईश्वर का न्याय उनका पीछा कर रहा है।

19) कभी-कभी पानी के बीच में ही ज्वाला धधक उठती थी और आग की स्वाभाविक शक्ति से भी अधिक तेज जलती थी, जिससे वह दुष्ट भूमि की फ़सल नष्ट कर दे।

20) इसके विपरीत, तूने अपनी प्रजा को स्वर्ग दूतों का भोजन खिलाया, बिना परिश्रम किये उन्हें तेरी ओर से पकी-पकायी रोटी मिली, जिसमें हर प्रकार की मिठास थी और जो सब को रूचिकर लगी।

21) तेरा दिया हुआ पदार्थ तेरी प्रजा के प्रति तेरा वात्सल्य प्रकट करता था, फिर भी वह खाने वाले की इच्छा के अनुसार अपने को हर एक की रूचि के अनुकूल बनाता था।

22) हिम और पाला आग में नहीं पिघलता था, जिससे लोग जान जायें कि शत्रुओें की फसल तो ओले में जलती और वर्षा की चमकती बिजली में आग द्वारा नष्ट हो गयी थी;

23) किन्तु दूसरी और वही आग अपनी शक्ति भूल जाती थी, जिससे धर्मियों को भोजन मिले।

24) प्रकृति तेरे अधीन है, जिसने उसे बनाया है, इसलिए वह अधर्मियों को दण्ड देने के लिए अपनी शक्ति बढ़ाती और तुझ पर भरोसा रखने वालों का कल्याण करने के लिए उसे मन्द कर देती है।

25) इस कारण वह अपने को बदलते हुए तेरे उस वरदान की सेवा करती है, जो अभाव में रहने वालों की इच्छा के अनुसार भोजन-सम्बन्धी उनकी सब आवश्यकताओं को पूरा करता था।

26) प्रभु! इस प्रकार तेरे प्रिय पुत्रों को अनुभव हुआ कि मनुष्यों का पोषण विभिन्न फलों द्वारा नहीं होता, बल्कि तेरा वचन उन सब को सँभालता है, जो तुझ पर विश्वास करते हैं।

27) जो चीज आग द्वारा नष्ट नहीं होती थी, वह सूर्य की किरण के स्पर्श मात्र से पिघलती थी,

28) जिससे लोग जान जायें कि सूर्योदय से पहले तुझे धन्यवाद देना और प्रभात के समय तेरे सामने उपस्थित होना चाहिए।

29) जो धन्यवाद नहीं देता, उसकी आशा शीतकालीन पाले की तरह नष्ट होती है और अप्रयोज्य जलधारा की तरह वह जाती है।



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