📖 - प्रवक्ता-ग्रन्थ (Ecclesiasticus)

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अध्याय 50

1) ओनियस के पुत्र प्रधानयाजक सिमोन ने अपने जीवनकाल में निवास का पुनर्निर्माण किया और अपने दिनों में मन्दिर को सुदृढ़ बनाया।

2) उनके दिनों में राजमहल के पास दीवार और मन्दिर की मीनारों का निर्माण किया गया।

3) उनके दिनों में एक जलकुण्ड खोदा गया, एक तालाब, जो समुद्र-जैसा विस्तृत था।

4) उन्होंने अपने लोगो को विनाश से बचाया और शत्रुओें के विरुद्ध नगर को किलाबन्द किया।

5) वह कितने देदीप्यमान थे, जब वह परमपावन् स्थान से, मन्दिर के परदे के पीछे से निकलते थे!

6) वह बादलों के बीच प्रभात-तारे के सदृश थे, पूर्णिमा के दिनों में चन्द्रमा के सदृश,

7) राजमहल पर चमकते हुए सूर्य के सदृश,

8) महिमामय बादलों के बीच इन्द्रधनुष के सदृश, वसन्त के समय गुलाब के फूल के सदृश, जलस्रोत के निकट सोसन के सदृश, ग्रीष्म-ऋतु में लेबानोन की हरियाली के सदृश,

9) धूपदान में जलते लोबान के सदृश,

10) मणियों से जटित ठोस सोने के पात्र के सदृश,

11 फलां से लदे जैतून-वृक्षों के सदृश, गगनचुम्बी सरू-वृक्ष के सदृश। जब वह भव्य वस्त्र पहन कर और अमूल्य आभूषण धारण कर

12) पवित्र वेदी की ओर बढ़ते थे, तो वह मन्दिर के प्रांगण को महिमान्वित करते थे।

13) जब वह वेदी के अग्निकुण्ड के निकट खड़े हो कर याजकों के चढ़ावे स्वीकार करते थे, तो उनके भाई-बन्धु लेबानोन के देवदारों की तरह,

14) खजूर के वृक्षों की तरह उन्हें चारों ओर से घेरे रहते थे। सुन्दर वस्त्रों से सुशोभित हारून के सभी पुत्र,

15) प्रभु का चढ़ावा अपने हाथ में लिये इस्राएल के सारे समुदाय के सामने एकत्र थे। सिमोन वेदी को सजा कर और उस पर सर्वशक्तिमान् का चढ़ावा रख कर,

16) पात्र की ओर बढ़ाते और अंगूर-रस का अघ्र्य अर्पित करते थे।

17) वह उसे सर्वोच्च और सर्वशक्तिमान् प्रभु को सुगन्ध चढ़ावे के रूप में वेदी के आधार पर उँड़ेलते थे।

18) तब हारून के पुत्र प्रभु को स्मरण कराने के लिए ऊँचे स्वर में पुकारते और धातु की तुरहियाँ बजाते थे।

19) इस सब पर लोग एक साथ मुँह के बल गिर कर सर्वशक्तिमान् सर्वोच्च प्रभु की आराधना करते

20) और गायक अपने भजनों से उसकी स्तुति करते थे। उनका मधुर गान दूर-दूर तक गूँजता था।

21) जब तक प्रभु का समारोह समाप्त नहीं हुआ और लोगों ने अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया, तब तक वे दयासागर के सामने नतमस्तक हो कर सर्वोच्च प्रभु से प्रार्थना करते रहे।

22) इसके बाद सिमोन नीचे उतर कर और सारे इस्राएली समुदाय के ऊपर हाथ फैला कर अपने होंठों से प्रभु की ओर से आशीर्वाद देते थे और उसके नाम का उच्चारण कर अपने को धन्य समझते थे।

23) लोग सर्वशक्तिमान् का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए दूसरी बार मुँह के बल गिरते थे।

24) आओ! सर्वेश्वर को धन्य कहो। वह सर्वत्र महान् कार्य करता है। वह माता के गर्भ से मनुष्य का विकास करता है और अपनी इच्छा के अनुसार उसे गढ़ता हैं

25) वह हमारे हृदय को आनन्द प्रदान करे और हमारे समय में भी पहले की तरह इस्राएल में सदा के लिए शान्ति बनाये रखे।

26) उसकी कृपादृष्टि हम पर बनी रहे और हमारे दिनों में हमारा उद्धार करे।

27) मेरी आत्मा को दो राष्ट्रों से घृणा है और तीसरा राष्ट्र कहलाने योग्य नहीं।

28) सेईर पर्वत के निवासी, फिलिस्तीनी ओैर सिखेम में रहने वाले मूर्ख लोग।

29) येरूसालेम-निवासी, एलआज़ार के तीन पौत्र, सीरह के पुत्र येशूआ ने, अपने हृदय का भण्डार खोल कर, इस ग्रन्थ में प्रज्ञा और ज्ञान की शिक्षा को लिपिबद्ध किया।

30) धन्य है वह, जो इसका मनन करेगा! जो इसे अपने हृदय में धारण करेगा, उसे प्रज्ञा प्राप्त होगी।

31) जो इसके अनुसार आचरण करेगा, वह सब कुछ करने में समर्थ हेागा; क्येांकि प्रभु पर श्रद्धा उसका पथप्रदर्शन करेगी।



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