📖 - यिरमियाह का ग्रन्थ (Jeremiah)

अध्याय ==>> 01- 02- 03- 04- 05- 06- 07- 08- 09- 10- 11- 12- 13- 14- 15- 16- 17- 18- 19- 20- 21- 22- 23- 24- 25- 26- 27- 28- 29- 30- 31- 32- 33- 34- 35- 36- 37- 38- 39- 40- 41- 42- 43- 44- 45- 46- 47- 48- 49- 50- 51- 52- मुख्य पृष्ठ

अध्याय 15

1) प्रभु ने मुझ से कहाः “यदि मूसा और समूएल भी मेरे सामने खड़े हो जाते, तो मेरा हृदय इन लोगों पर तरस न खाता। इन्हें मेरे सामने से हटा दो। ये चले जायें।

2) यदि ये तुम से पूछें कि हम कहाँ जायें, तो तुम इन्हें उत्तर दो- प्रभु यह कहता है: मृत्यु की ओर! जिनके लिए मृत्यु बदी है; तलवार की ओर! जिनके लिए तलवार बदी है; अकाल की ओर! जिनके लिए अकाल बदा है; निर्वासन की ओर! जिनके लिए निर्वासन बदा है।“

3) प्रभु कहता है: “मैं उनके पास ये चार विनाशक भेजता हूँः मारने के लिए तलवार, फाड़ने के लिए कुत्ते, नोच-नोच कर खाने और मिटाने के लिए आकाश के पक्षी और पृथ्वी के पशु।

4) मैं यूदा के राजा हिज़कीया के पुत्र मनस्से द्वारा येरूसालेम में किये गये कर्मों का उन को ऐसा दण्ड दूँगा कि उस पर पृथ्वी के सभी राष्ट्र काँप उठेंगे।

5) “येरूसालेम! कौन तुम पर तरस खायेगा? कौन तुम से सहानुभूति दिखायेगा? कौन तुम्हारा कुशल-क्षेप पूछने तुम्हारे पास आयेगा?“

6) प्रभु कहता है, “तुमने मुझे त्याग दिया, तुमने मेरी ओर पीठ कर ली है। इसलिए मैंने तुम्हारा विनाश करने तुम्हारे विरुद्ध अपना हाथ उठाया। मैं तुम पर दया करते थक गया हूँ।

7) मैंने देश के नगरों में सूप हाथ में लिया, जिससे मैं अपने लोगों को फटक दूँ। मैंने उनका विनाश करने के लिए उन्हें निस्सन्तान बनाया, किन्तु उन्हेांने अपना आचरण नहीं बदला।

8) मैंने उनकी विधवाओं की संख्या समुद्रतट के रेतकणों से भी अधिक कर दी। मैंने युवा सैनिकों की माताओं के पास दिन दहाड़े अत्याचारियों को भेजा। मैंने अचानक उनके पास परिताप और आतंक भेजा।

9) जो सात बच्चों की माँ है, वह बेहोश हो कर प्राण त्याग देती है। उसके जीवन का सूर्य दिन रहते अस्त हो जाता है। वह लज्जित और निराश है। उन में जो जीवित रह गये, उन्हें मैं शत्रुओं की तलवार के हवाले कर दूँगा।“ यह प्रभु की वाणी है।

10) हाय! माता! आपने मुझे क्यों जन्म दिया? धिक्कार मुझे, क्योंकि सारा देश मुझ से लड़ता-झगड़ता है। मैं न तो किसी को उधार देता और न किसी से उधार लेता हूँ, फिर भी सब मुझे कोसते हैं।

11) प्रभु कहता है, “मैं तुम को विश्वास दिलाता हूँ कि मैं तुम्हारे कल्याण का प्रबंध करूँगा। मैं तुम को विश्वास दिलाता हूँ कि विपत्ति और कष्ट के समय तुम्हारे विरोधी तुम्हारी सहायता माँगेगे।

12) क्या कोई उत्तर का लोहा या काँसा तोड़ सकता है?

13) तुम लोगों ने देश भर में जो असंख्य पाप किये, उनके कारण मैं तुम्हारी सम्पत्ति और भण्डार लुटवाऊँगा।

14) मैं तुम को एक अज्ञात देश में तुम्हारे शत्रुओं का दास बनाऊँगा। मेरी क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो कर तुम्हारे विरुद्ध जलती हैं।“

15) प्रभु! तू जानता है, मेरी सहायता कर! मुझ पर अत्याचार करने वालों से बदला चुका। अपनी सहनशीलता के कारण मेरा विनाश न हो। याद कर कि तेरे कारण मेरा अपमान हो रहा है।

16) तेरी वाणी मुझे प्राप्त हुई और मैं उसे तुरंत निगल गया। वह मरे लिए आनंद और उल्लास का विषय थी; क्योंकि तूने मुझे अपनाया विश्वमण्डल के प्रभु-ईश्वर!

17) मैं मनोरंजन करने वालों के साथ बैठ कर आनन्द नहीं मनाता। मैं तुझ से आविष्ट हो कर एकांत में जीवन बिताता रहा; क्योंकि तूने मुझ में अपना क्रोध भर दिया था।

18) मेरी पीड़ा का अंत क्यों नही होता? मेरा घाव क्यों नहीं भरता? तू मेरे लिए उस अविश्वसनीय नदी के सदृश है, जिस में सदा पानी नहीं रहता।

19) इस पर प्रभु ने यह उत्तर दिया, “यदि तुम अपने शब्द वापस लोगे, तो मैं तुम्हें स्वीकार करूँगा और तुम फिर मेरी सेवा करोगे। यदि तुम निरर्थक भाषा नहीं, बल्कि उपयुक्त भाषा का प्रयोग करोगे, तो फिर मेरे प्रवक्ता बनोगे। ये लोग फिर तुम्हारे पास आयेंगे; तुम को इनके पास नहीं जाना होगा।

20) मैं तुम को उस प्रजा के लिए काँसे की अजेय दीवार बनाऊँगा। वे तुम पर आक्रमण करेंगे, किन्तु हमारे विरुद्ध कुछ नहीं कर पायेंगे; क्योंकि मैं तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी सहायता और रक्षा करूँगा।“ यह प्रभु की वाणी है।

21) “मैं तुम को दुष्टों के हाथ से, उग्र लोगों के पंजे से छुड़ाऊँगा।“



Copyright © www.jayesu.com