📖 - एज़ेकिएल का ग्रन्थ (Ezekiel)

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अध्याय 03

1) उसने मुझ से कहा, “मानवपुत्र! जो अपने-सामने हैं, उसे खा लो। यह पुस्तक खा जाओ और तब इस्राएल की प्रजा को सम्बोधित करो।“

2) मैंने अपना मुँह खोला और उसने मुझे यह पुस्तक खिलायी।

3) उसने मुझ से कहा “मानवपुत्र! मैं जो पुस्तक दे रहा हूँ, उसे खाओ और उस से अपना पेट भर लो“। मैंने उसे खा लिया; मेरे मुँह में उसका स्वाद मधु-जैसा मीठा था।

4) उसने मुझ से कहा, “मानवपुत्र! इस्राएल की प्रजा के पास जा कर उसे मेरे शब्द सुनाओ।

5) मैं तुम को विदेशी भाषा और कठिन बोली बोलने वाली जाति के पास नहीं, बल्कि इस्राएल के घराने के पास भेज रहा हूँ,

6) विदेशी भाषा और कठिन बोली बोलने वाले राष्ट्रों के यहाँ नहीं, जिनके शब्द तुम नहीं समझ सकते। यदि मैं तुम को ऐसे लोगों के पास भेजता, तो वे तुम्हारी बात अवश्य सुनते।

7) किन्तु इस्राएल का घराना तुम्हारी बात नहीं सुनेगा, क्योंकि वे लोग मेरी बात सुनना नहीं चाहते; क्योंकि इस्राएल का समस्त घराना हठी मन और कठोर हृदय वाला है।

8) देखो, मैंने तुम्हारा चेहरा उनके चेहरों की तरह कठोर बना दिया है और तुम्हारा मस्तक उनके मस्तकों की तरह कठोर बना दिया है।

9) मैंने तुम्हारा मस्तक कठोर चक़मक़ पत्थर से भी अधिक कड़ा बना दिया है। न उन से डरो और न उनकी नज़रों से भयभीत हो; क्योंकि वे विद्रोही प्रजा है।“

10) तब वह मुझ से यह बोला, “मानवपुत्र! मैं तुम से जो शब्द कह रहा हूँ, उन्हें अपने हृदय से ग्रहरण करो और अपने कानों से सुनो।

11) तुम निर्वासितों, अपनी जाति के लोगों के यहाँ जाओ और चाहे वे सुनें या सुनने से इनकार करें, उन से कहो, ’प्रभु-ईश्वर यह कहता है‘।“

12) इसके बाद आत्मा ने मुझे ऊपर उठा लिया और मुझे अपने पीछे भयंकर भूकंप की आवाज सुनाई पड़ी’- “प्रभु की महिमा हो- अपने निवासस्थान में!’

13) यह उन प्राणियों के परस्पर टकराने वाले पंखों की आवाज़ थी और उनकी बग़ल के पहियों की आवाज़ थी और एक भयंकर भूकंप का कोलाहल।

14) आत्मा मुझे उठा कर ले गया। मैं बड़े कड़वे मन और आवेश में गया और प्रभु के हाथ का भार मुझ पर पड़ा।

15) मैं निर्वासितों के पास तेल-आबीब आया, जो कबार नदी के पास रह रहे थे और उनके बीच सात दिनों तक चकित बैठा रहा।

16) सात दिन बीतने पर प्रभु की वाणी मुझ से यह कहते हुए सुनाई पड़ी,

17) “मानवपुत्र! मैंने तुम्हें इस्राएल के घराने का पहरेदार नियुक्त किया। तुम मेरे मुख के वचन सुन कर उन्हें मेरी ओर से चेतावनी दोगे।

18) यदि मैं दुष्ट से यह कहूँगा-’तुम अवश्य मर जाओगे’ और तुम उसे चेतावनी नहीं दोगे और उसे नहीं समझाओगे कि वह पापाचरण छोड़ दे और जीवित रहे, तो दुष्ट अपने पाप के कारण मर जायेगा; किन्तु मैं तुम को उसकी मृत्यु का उत्तरदायी मानूँगा।

19) दूसरी ओर, यदि तुम दुष्ट को चेतावनी दोगे और वह अपनी बुराई और पापाचरण नहीं छोडेगा, तो वह अपने दोष के कारण मर जायेगा, किन्तु तुम अपना जीवन सुरक्षित रख पाओगे।

20) जब धर्मी अपनी धार्मिकता त्याग कर अधर्म करने लगेगा, तो मैं उसे दण्डित करूँगा और वह मर जायेगा। तुमने उसे चेतावनी नहीं दी, इसलिए वह अपने पाप के कारण मर जायेगा और उसका धर्माचरण भुला दिया जायेगा। किन्तु मैं तुम को उसकी मृत्यु का उत्तरदायी मानूँगा।

21) दूसरी ओर, यदि तुम धर्मी को चेतावनी दोगे और वह पाप नहीं करेगा, तो वह तुम्हारी चेतावनी के कारण जीवित रहेगा और तुम भी अपना जीवन सुरक्षित रख पाओगे।“

22) वहाँ प्रभु का हाथ मुझ पर पड़ा और वह मुझ से बोला, “उठो, घाटियों की ओर जाओ; वहाँ मैं तुम से बात करूँगा“।

23) मैं उठ कर घाटी की ओर गया और देखो, वहाँ प्रभु की महिमा उस महिमा के रूप में विराजमान थी, जिसके दर्शन मैंने कबार नदी किनारे किये थे। मैं अपने मुँह के बल गिर पड़ा।

24) किन्तु मुझ में आत्मा प्रविष्ट हो गया और उसने मुझे पैर के बल खड़ा कर दिया। उसने मुझ से बात की और मुझ से यह कहा, “अपने घर जा कर किवाड बन्द कर लो।

25) मानवपुत्र! तुम पर रस्सियाँ रखी जायेंगी और तुम उन से बाँध दिये जाओगे, जिससे तुम लोगों के बीच न जा सको।

26) मैं तुम्हारी जीभ तालू से चिपका दूँगा, जिससे तुम गूँगे और उन्हें धिक्कारने में असमर्थ हो जाओगे; क्योंकि वे विद्रोही प्रजा हैं।

27) किन्तु जब मैं तुम से बोलूँगा, तो मैं तुम्हारी जीभ खोल दूँगा और तुम उन से यह कहोगे, ’प्रभु-ईश्वर यह कहता है’। जो सुनना चाहेगा, वह सुने और जो सुनने से इनकार करेगा, वह इनकार करे; क्योंकि वे विद्रोही प्रजा हैं।“



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