काथलिक धर्मशिक्षा

जीवन की संस्कृति

इस घटना को ध्यान से पढ़िए और समूहों में चर्चा कीजिए:
जानेमाने मनोवैज्ञानिक तथा परामर्शदाता जेम्स माइकलसन (James Michaelson) एक ऐसी महिला को परामर्श दे रहे थे जो स्वयं को बहुत ही अकेली तथा तिरस्कृत महसूस कर रही थी। जब माइकलसन उसकी बातें सुन रहे थे, तो उन्हें मालूम नहीं था कि उसे क्या परामर्श दें! लेकिन उसकी बातें सुनते समय उनके मन में बाइबिल का एक पवित्र वचन बार-बार आ रहा था। माइकलसन को लग रहा था कि उस वचन का उस महिला के जीवन से कोई संबंध नहीं था, फिर भी उन्होंने उस महिला से कहा कि आपकी समस्याओं को सुनने के बाद मुझे यह मालूम नहीं कि मुझे क्या बोलना चाहिए, परंतु एक पवित्र वचन मेरे मन में बार बार आ रहा है, कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके ज़रिए ईश्वर आपसे कुछ कहना चाहते हैं। तब माइकलसन ने स्तोत्र 100:3 को दोहराया- “प्रभु ही ईश्वर है। उसी ने हमें बनाया है- हम उसी के हैं।” इस वचन को सुनते ही वह महिला रो पड़ी। थोडी देर बाद जब वह शांत हो गई तो बोलने लगी कि यह वचन उसकी समस्याओं के लिए ईश्वर का ही जवाब था।
उस स्त्री के जन्म के समय उसके माता-पिता विवाहित नहीं थे। इस कारण उसका हमेषा यह विचार था कि जब उसका जन्म हुआ था तब किसी ने उसे नहीं चाहा। उसकी हमेषा यह चिंता थी कि उसके माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध ही उसका जन्म हुआ था। यही चिंता उसके अकेलेपन तथा बेचैनी का कारण बनी। पवित्र वचन ने उसे यह याद दिलाया कि ईश्वर ने ही उसकी माँ के गर्भ में उसकी सृष्टि की थी। उसके जन्म के पहले ही ईश्वर ने उसे चाहा था और वह उनकी ही है। इस नये ज्ञान का उस महिला पर बड़ा प्रभाव पड़ा तथा वह गहरी खुशी महसूस करने लगी। स्तोत्र 139:13-16 के ईषवचन उसके जीवन में सार्थक बन गये। “तूने मेरे शरीर की सृष्टि की; तूने माता के गर्भ में मुझे गढ़ा। मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ- मेरा निर्माण अपूर्व है। तेरे कार्य अद्भुत हैं, मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ। जब मैं अदृष्य में बन रहा था, जब मैं गर्भ के अन्धकार में गढ़ा जा रहा था, तो तूने मेरी हड्डियों को बढ़ते देखा।”

प्रश्न:
1. इस घटना से हमें क्या सबक मिलता है?
2. हरेक मनुष्य के जीवन के लिए ईश्वर किस प्रकार प्रबन्ध करते हैं?

संत पिता पौलुस छठवें अपने परिपत्र “मानवीय जीवन“ (Humanae Vitae 13) में कहते हैं कि मनुष्य जीवन के स्रोत का स्वामी नहीं, बल्कि ईश्वर की योजना का अभिकर्ता है। जीवन ईश्वर की देन है और इस पर किसी दूसरे का अधिकार नहीं है। ईश्वर ही जीवन का स्रोत और अधिपति हैं। प्रभु स्वयं कहते हैं, “मैं इसलिए आया हूँ कि वे जीवन प्राप्त करें- बल्कि परिपूर्ण जीवन प्राप्त करें” (योहन 10:10)। परिपूर्णता ईश्वर की ही विशेषता हैं और मनुष्य ईश्वरीय जीवन में सहभागी बनकर ही परिपूर्णता तक पहुँच सकता है। ईश्वर ही हमारे जीवन का स्रोत हैं और उनकी इच्छा से ही इस दुनिया में हरेक मनुष्य का जन्म होता है तथा हमारी मृत्यु के समय को भी वे ही सुनिष्चित करते हैं। ईश्वर चाहते हैं कि हम न केवल इस दुनिया में जीवित रहे, बल्कि जीवन में खुशी और शांति का अनुभव भी करें। बाइबिल उन्हें जीवन्त ईश्वर कहती है (देखिए विधि-विवरण 5:26; योशुआ 3:10; स्तोत्र 84:3; मत्ती 26:63)। जीवन्त ईश्वर “सभी को जीवन, प्राण और सब कुछ प्रदान करता है“ (प्रेरित-चरित 17:25)। उत्पत्ति 2:7 इसका ज़िक्र करते हुए कहता है, “प्रभु ने धरती की मिट्टी से मनुष्य को गढ़ा और उसके नथनों में प्राणवायु फूँक दी। इस प्रकार मनुष्य एक सजीव सत्व बन गया।” ईश्वर की प्राणवायु ही हमारे अस्तित्व का कारण है। ईश्वर ही हमारे जीवन को सार्थक बनाते हैं। ईश्वर चाहते हैं “कि मनुष्य ईश्वर का अनुसन्धान करें और उसे खोजते हुए सम्भवतः उसे प्राप्त करें, यद्यपि वास्तव में वह हम में से किसी से भी दूर नहीं है; क्योंकि उसी में हमारा जीवन, हमारी गति तथा हमारा अस्तित्व निहित है।” (प्रेरित-चरित 17:27-28) हमारा जीवन ईश्वर की ही देन है। हमारे जीवन पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। उसे पवित्र बनाये रखना तथा उसका आदर करना हमारी खुशी तथा भलाई के लिए ज़रूरी है। जीवन की रक्षा करना तथा उसे फलने-फूलने देना ईश्वरीय योजना के अनुसार मनुष्य का कर्त्तव्य है। अनन्त जीवन की ओर हमारी यात्रा में जीवन को सुरक्षित रखकर उसे ईश्वरीय योजना के अनुसार पालना हरेक ख्रीस्तीय विश्वासी का महत्वपूर्ण कार्य है।

जीवन की संस्कृति नैतिक ईषषास्त्र का भाग है। इसका तात्पर्य इस सच्चाई से है कि गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक का मानव जीवन हर पल और हर क्षण पवित्र है। संत पिता योहन पौलुस द्वितीय ने ही जीवन की संस्कृति की शिक्षा प्रभावषाली ढंग से शुरू की थी। उनके अनुसार इस दुनिया में जीवन की संस्कृति और मृत्यु की संस्कृति के बीच लगातार संघर्ष चल रहा है।

मानवीय जीवन गर्भधारण से शुरु होता है और इसलिए उस समय से ही उसकी पवित्रता को बनाये रखना हरेक मानव का कर्त्तव्य है। हमें हर मानव के जीवन का आदर करना चाहिए। हरेक मनुष्य को इस दुनिया में स्वतंत्रता तथा इज्जत के साथ जीवन जीने का हक है। माँ के गर्भ मे बढ़नेवाले बालक को भी जीने तथा प्यार पाने का हक है। जो इस अधिकार के विरुद्ध कार्य करता है वह मानवता के खिलाफ काम करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार हत्या, भ्रूणहत्या, आत्महत्या, प्राणदण्ड, गर्भनिरोध व बन्ध्यीकरण (sterilization) के कृत्रिम तरीके, सुखमृत्यु (euthanasia), संतानोपत्ति हेतु ईश्वर द्वारा विधित प्राकृतिक प्रक्रिया को चुनौती देने वाला या इसे नकारनेवाला हर अनुसंधान, अन्यायपूर्ण युद्ध आदि घोर पाप हैं। इस के साथ-साथ ख्रीस्तीय विश्वास हमें यह सिखाता है कि दूसरों को गुलाम बनाना, बच्चों तथा स्त्रियों को बेचना, न्यायसंगत वेतन न देना, वेष्यावृत्ति, हर प्रकार की हिंसा और हर प्रकार का शारीरिक या मानसिक शोषण जीवन की संस्कृति के विरुद्ध पाप हैं तथा सृष्टिकर्त्ता तथा पालनहार ईश्वर के प्रति अनादर है।

ईर्ष्या तथा क्रोध पर काबू पाने से इन में से कई बुराईयों से हम बच सकते हैं। क्रोधित मनुष्य को ईश्वर चेतावनी देते हैं, “पाप हिंसक पशु की तरह तुम पर झपटने के लिए तुम्हारे द्वार पर घात लगा बैठेगा। क्या तुम उसका दमन कर सकोगे?” (उत्पत्ति 4:7) इन बुराईयों पर विजय पाने की कोषिष करते समय मनुष्य को एक दूसरे का आदर करना सीखना चाहिए। जो दूसरों का आदर करता है, वह उन्हें किसी भी प्रकार की शारीरिक या मानसिक चोट नहीं पहुँचा सकता है। हत्या दूसरों के अनादर की पराकाष्ठा है, जो विभिन्न रूप ले लेती है।

जीवन का संरक्षण माता-पिता का एक महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है। अपनी संतानों की देख-रेख तथा पालन-पोषण द्वारा वे इस जिम्मेदारी को निभाते हैं। विवाह संस्कार द्वारा जो व्यक्ति परिवार रूपी घरेलू कलीसिया की स्थापना करते हैं, उन्हें ईश्वर अपने सृष्टि-कार्य के सहभागी बनाकर संतानोत्पत्ति का कर्त्तव्य सौंप देते हैं। इस कर्त्तव्य के निर्वहन में उन्हें जीवन की पवित्रता तथा जीवन पर ईश्वर के अनन्य अधिकार को हमेषा याद रखना चाहिए।

भ्रूणहत्या हमारे वर्तमान युग की शर्मनाक त्रासदी है। हर संस्कृति तथा साहित्य में माँ की ममता को सबसे निष्कलंक तथा सरल प्यार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। माँ का अपने गर्भ के बच्चे के प्रति बहुत बड़ा कर्त्तव्य है। ईश्वर ने उनके द्वारा सृष्ट मानव को अपने गर्भ में प्यार से पालने तथा उसे इस दुनिया में लाने की जिम्मेदारी माँ को सौंपी है। अगर माँ जिसे अपने बच्चे के संरक्षण की जिम्मेदारी सौंपी गई है अपने बच्चे की हत्यारिन बन जाती है तो इससे अधिक शर्मनाक कौन सी बात हो सकती है? इसी कारण कलीसिया इस पाप को एक कठोर और मारक पाप मानती है। जीवन की पवित्रता पर ध्यान देना हरेक ख्रीस्तीय विश्वासी का कर्त्तव्य है।

मानवीय इतिहास के प्रारंभ से ही मनुष्य के मौजूदा हिंसात्मक व्यवहार को दर्षाते हुए बाइबिल हमारे सामने काइन और हाबिल की घटना रखती है। ईश्वर हमें एक दूसरे के प्रति जिम्मेदार बनने का आह्वान करते हैं। पापी मनुष्य इस आह्वान की उपेक्षा करते हुए अपने भाई-बहन के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से हाथ धो लेता है। वह अपने पड़ोसी को भाई या बहन मानने से इनकार करता है तथा उनके प्रति अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ होने की सच्चाई को भी अस्वीकार करता है। ईश्वर ने हमें एक दूसरे का ’रखवाला’ बनाया है। पापी मनुष्य इस सच्चाई को अस्वीकार करता है।

जो जीवन ईश्वर ने हमें दिया, उसे लेने का अधिकार किसी को नहीं हैं। हत्या एक गंभीर पाप है। इसी कारण किसी भी व्यक्ति को मृत्युदण्ड देना भी पाप है। इस संदर्भ में किसी भी प्रकार की हिंसा ईश्वरीय राज्य के विरुद्ध है क्योंकि हिंसा के द्वारा हम जीवन रूपी ईश्वरीय देन की अवहेलना करते हैं। दूसरों से निर्दयतापूर्वक काम कराना, बच्चों को भारी तथा खतरनाक काम देना, दूसरों को गुलाम बनाना आदि भी ख्रीस्तीय नैतिक मूल्यों के विरुद्ध है तथा जीवन की संस्कृति के खिलाफ है। इस दुनिया में रोज करीब 30,000 मासूम बच्चे ऐसी बीमारियों के कारण मर जाते हैं जिसका इलाज संभव है परन्तु उनके लिए उपलब्ध नहीं है। ख्रीस्तीय विश्वासी इस प्रकार की सच्चाइयों से मुँह नहीं मोड़ सकते हैं। हमारी कुछ सामुदायिक जिम्मेदारियाँ हैं।

कभी-कभी लोगों को अपना दुख-दर्द असहनीय लगता है। कभी-कभी लोग अपनी बीमारी के कारण निराष हो जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में कुछ लोग कष्टरहित मृत्यु प्राप्त करना चाहते हैं। कुछ लोग किसी कारण आत्महत्या कर अपने जीवन को समाप्त करना चाहते हैं। ये सब के सब तरीके पापमय है। हम में से हरेक को जीवन को ईश्वर से प्राप्त वरदान समझकर उसे ईश्वर की इच्छा के अनुसार ईश्वर द्वारा निष्चित समय तक जीना चाहिए। अपनी या दूसरों की जान लेना पाप है।

जीवन की संस्कृति की यह भी माँग है कि हम धूम्रपान, नषीले पदार्थों का सेवन, मादक औषध के सेवन आदि से दूर रहें। इन चीजों के ज़रिए हम ईश्वर के दिये हुए हमारे जीवन को हानि पहुँचाते हैं। इस प्रकार की चीजों का उपयोग हमारी जिम्मेदारियों को निभाने में बाधा बनता तथा हमारे सोचने-समझने की क्षमता को भी नष्ट करता है।

जीवन की संस्कृृति हमें यह भी सिखाती है कि हमें गरीबों, पददलितों तथा बेसहारों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। पवित्र वचन कहता है, “जो दुर्बल पर अत्याचार करता, वह उसके सृष्टिकर्ता की निन्दा करता है; किन्तु जो दरिद्र पर दया करता है, वह ईश्वर का सम्मान करता है” (सूक्ति ग्रन्थ 14:31)। संत एम्ब्रोस ने कहा है, “आप किसी गरीब को अपनी सम्पत्ति दान में नहीं दे रहे हैं। आप उसको उसी की सम्पत्ति लौटा रहे हैं। जिस चीज़ को ईश्वर ने सबके उपयोग के लिए दिया था, आपने उसे अपने वष में कर लिया है। यह धरती सभी मनुष्यों के लिए दी गई है, न कि कुछ धनी लोगों के लिए। निजी सम्पत्ति पर आप का अधिकार अबाधित नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपनी ज़रूरत से ज़्यादा सम्पत्ति रखने का न्यायीकरण नहीं दे सकता है। निजी सम्पत्ति पर अधिकार को हमेषा सबकी भलाई की दृष्टि से देखा जाना चाहिए।” संत बेसिल कहते हैं, “भूखे व्यक्ति को खिलाओ, क्योंकि अगर आप उसे नहीं खिलाते हैं, तो आप ही उसे मार डालते हैं”।

लिंग पर आधारित भेदभाव जीवन की संस्कृति के खिलाफ है। ईश्वर ने नर और नारी दोनों को अपना प्रतिरूप बनाया। इस दुनिया में कई लोग महिलाओं तथा लड़कियों का शोषण करते हैं और उन पर अत्याचार करते हैं। दहेज की प्रथा इसका एक उदाहरण है। दहेज लेने की प्रथा यह साबित करती है कि मनुष्य धन की सेवा कर रहा है। वह एक व्यक्ति से ज़्यादा पैसे को महत्व देता है।

विकास और प्रगति के नाम जो भाग-दौड़ दुनिया में चल रही है, उसमें हर मानव को यह सुनिष्चित करना चाहिए कि वे अपनी इस भाग-दौड़ में गरीब व बेसहारे लोगों को न कुचले। विकास तथा अर्थषास्त्र में हमें नैैतिकता से परहेज़ नहीं रखना चाहिये। हमारे समाज को ऊपर उठाने की प्रक्रिया में यह सुनिष्चित करना अनिवार्य है कि गरीब पीछे न छुट जायें। इसके लिए समाज के हर तबके के लोगों को साथ ले चलना ज़रूरी है। ख्रीस्तीय नैतिकता में पड़ोसी को भूला नहीं जा सकता। ईश्वर की योजना के तहत हममें से हरेक व्यक्ति को दूसरों के लिए जगह छोड़ना आवष्यक है। इसी कारण ख्रीस्तीय विश्वासियों को चाहिए कि वे महिला के विरुद्ध अत्याचार, बाल-षोषण, हर प्रकार की गुलामी, अज्ञानता आदि के खिलाफ न केवल आवाज उठायें, बल्कि इन बुराईयों को हमारे समाज से मिटाने हेतु प्रयास भी करें।

मज़दूरों को उचित वेतन न देना और देने में देर करना भी जीवन की संस्कृति के विरुद्ध पाप है। सन्त याकूब का धनियों से कहना है, “मज़दूरों ने आपके खेत की फसल लुनी और आपने उन्हें मज़दूरी नहीं दी। वह मज़दूरी पुकार रही है और लुनने वालों की दुहाई विश्वमण्डल के प्रभु के कानों तक पहुँच गयी है।” (याकूब 5:4) लेवी ग्रन्थ 19:13 में हम पढ़ते हैं, “तुम न तो अपने पड़ोसी का षोषण करो और न उसके साथ किसी प्रकार का अन्याय। अपने दैनिक मज़दूर का वेतन दूसरे दिन तक अपने पास मत रखो।” नबी यिरमियाह का कहना है, ’’धिक्कार उसे, जो अधर्म के धन से अपना महल और अन्याय से अटारियाँ बनवाता है; जो वेतन दिये बिना अपने पड़ोसी से काम लेता है।” (यिरमियाह 22:13)

उत्पत्ति ग्रंथ हमें बताता है कि संसार की सृष्टि करने के बाद ईश्वर को अपना सृष्टि-कार्य अच्छा लगा। हर ख्रीस्तीय विश्वासी को चाहिये कि इस अच्छाई को वह बनाये रखे तथा फलने-फूलने की ईश्वरीय आज्ञा का आदर करे।

प्रश्न:-
1. जीवन की संस्कृति के खिलाफ़ हमारे समाज में प्रचलित पापों की सूची बनाइए?
2. इन पापों से छुटकारा पाने के लिए हमें कौन-कौन-से मूल्यों को अपनाना चाहिए?
3. समाज के गरीबों के प्रति हमारी क्या ज़िम्मेदारियाँ हैं?
4. मज़दूरों के वेतन का जीवन की संस्कृति से क्या संबंध है?
5. जीवन की संस्कृति को अपनाने तथा फैलाने में ख्रीस्तीय विश्वासियों की क्या भूमिका होनी चाहिए?


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