चक्र अ के प्रवचन

वर्ष का बारहवाँ इतवार

पाठ: यिरमियाह 20:10-13; रोमियों 5:12-15; मत्ती 10:26-33

प्रवाचक: फादर रोनाल्ड वॉन


प्रभु की वाणी को घोषित करना सुनने वाले के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह उनका परम कर्त्तव्य है कि सुसमाचार का जो रहस्य उन पर प्रकट किया गया है वे उसे पूरी निर्भीकता के साथ घोषित करे। प्रभु येसु का आदेश भी यही है कि, “इसलिए उन से नहीं डरो।.....मैं जो तुम से अंधेरे में कहता हूँ, उसे तुम उजाले में सुनाओ। जो तुम्हें फुस-फुसाहटों में कहा जाता है, उसे तुम पुकार-पुकार कर कह दो।” (मत्ती 10:26-27) टोबीत के ग्रंथ में महादूत रफाएल भी प्रभु के कार्यों को घोषित करने का आव्हान करते हैं, “ईश्वर के सत्कार्य प्रकट करने में संकोच मत कीजिए।.....राजा का रहस्य अवश्य गुप्त रखना चाहिए, किन्तु ईश्वर के कार्य घोषित करना और योग्य रीति से उसकी स्तुति करना उचित है।” मैं आपके लिए पूरा सत्य प्रकट करूँगा और आप लोगों से कुछ भी नहीं छिपाऊँगा। मैं आप से कह चुका हूँ कि राजा का रहस्य अवश्य गुप्त रखना चाहिए, किन्तु ईश्वर के कार्य घोषित करना उचित है।” (टोबीत 12:6-7,11) नबी एजे़किएल भी इसी घोषणा के लिए चुने गये, “प्रभु की वाणी मुझ से यह कहते हुए सुनाई पड़ी, “मानवपुत्र! मैंने तुम्हें इस्राएल के घराने का पहरेदार नियुक्त किया। तुम मेरे मुख के वचन सुन कर उन्हें मेरी ओर से चेतावनी दोगे।” (एज़ेकिएल 3:16-17)

प्रभु के रहस्यों की घोषणा निर्भीकता से तथा बिना समझौता किये करना चाहिए। प्रेरितगण इसी निर्भीकता एवं निडरता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे, “प्रभु! तू उनकी धमकियों पर ध्यान दे और अपने सेवकों को यह कृपा प्रदान कर कि वे निर्भीकता से तेरा वचन सुनायें।” (प्रेरित चरित 4:29) “आप मेरे लिए भी विनती करें, जिससे बोलते समय मुझे शब्द दिये जायें और मैं निर्भीकता से उस सुसमाचार का रहस्य घोषित कर सकूँ, जिस सुसमाचार का मैं बेडियों से बँधा हुआ राजदूत हूँ। आप विनती करें, जिससे मैं निर्भीकता से सुसमाचार का प्रचार कर सकूँ, जैसा कि मेरा कर्तव्य है। (एफेसियों 6:19-20) इस निडर घोषणा के कारण अत्याचार तथा दबाव भी सहना पडता है। किन्तु जो सुसमाचार की घोषणा का परिणाम जानते हैं वे मानवीय अत्याचार से विचलित नहीं होते। जब प्रेरित पेत्रुस एवं योहन को सभागृह में चेतावनी दी गयी तथा कोडों से मारा गया जो वे आनन्दित हो उठे। “मनुष्यों की अपेक्षा ईश्वर की आज्ञा का पालन करना कहीं अधिक उचित हैं।....उन्हें कोडे लगवाये गये और यह कडा आदेश देकर छोड दिया कि तुम लोग ईसा का नाम लेकर उपदेश मत दिया करो। प्रेरित इसलिए आनन्दित होकर महासभा के भवन से निकले कि वे ईसा के नाम के कारण अपमानित होने योग्य समझे गये।”(पे्ररित चरित 5:29,40-41) संत पौलुस को भी अनेक यातनाये सहनी पडी किन्तु उन्होंने निर्भीकता से वचन की घोषणा का कार्य जारी रखा। (प्रेरित-चरित 14:19-20) जब नबी यिरमियाह पर ईशनिन्दा का अभियोग लगाया गया तो उन्होंने निडरता का परिचय देकर कहा, “मैं तो तुम्हारे वश में हूँ- जो उचित और न्यायसंगत समझते हो, वही मेरे साथ करो। किन्तु यह अच्छी तरह समझ लो कि प्रभु ने ही तुम्हें यह सब सुनाने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।“ (यिरमियाह 26:14-15)

नबी यिरमियाह के अनुभव को देखिए – “ जब मैं सोचता हूँ, मैं उसे भुलाऊँगा, मैं फिर कभी उसके नाम पर भविय वाणी नहीं करूँगा“ तो उसका वचन मेरे अन्दर एक धधकती आग जैसा बन जाता है, जो मेरी हड्डी-हड्डी में समा जाती है। मैं उसे दबाते-दबाते थक जाता हूँ और अब मुझ से नहीं रहा जाता। मैंने बहुतों को यह फुसफुसाते हुए सुना है- “चारों ओर आतंक फैला हुआ हैं। उस पर अभियोग लगाओ! हम उस पर अभियोग लगायें“। जो पहले मेरे मित्र थे, वे सब इस ताक में रहते हैं कि मैं कोई ग़लती कर बैठूँ और कहते हैं, “वह शायद भटक जायेगा और हम उस पर हावी हो कर उस से बदला लेंगे''। परन्तु प्रभु एक पराक्रमी शूरवीर की तरह मेरे साथ हैं। मेरे विरोधी ठोकर खा कर गिर जायेंगे। वे मुझ पर हावी नहीं हो पायेंगे और अपनी हार का कटु अनुभव करेंगे। उनका अपयश सदा बना रहेगा।” (यिरमियाह 20:9-11)

निर्भीकता के साथ वचन की घोषणा के अनेक चमत्कारी परिणाम होते हैं। ऐसा करने से सतावट और विरोध तो होता है किन्तु लोगों में विश्वास का स्रोत फूट पडता है। ईश्वर इस प्रकार की निर्भीक घोषणा पर अनुग्रह बरसाते हैं। प्रेरितों की सुसमाचार की घोषणा सभी के लिए आदर्श की प्रतिमूर्ति है। त्याग, सतावट एवं शहादत के बावजूद भी लोगों में ख्रीस्त के प्रति विश्वास जंगल में आग की तरह फैल गया। “प्रभु उनकी सहायता करते रहे और साथ-साथ घटित होने वाले चमत्कारों द्वारा उनकी शिक्षा को प्रमाणित करते रहे।” (मारकुस 16:20) इस प्रकार प्रभु की यह प्रतिज्ञा “जो मुझे मनुष्यों के सामने स्वीकार करेगा, उसे मैं भी अपने स्वर्गिक पिता के सामने स्वीकार करूँगा।” (मत्ती 10:32) प्रेरितों के प्रेरितिक कार्यों में वास्तविक बन जाती है।

सुसमाचार की घोषणा तो आज भी हो रही है किन्तु उनका प्रभाव देखने को नहीं मिलता है। इसका मुख्य कारण यही है कि हम जो अंधेरे में सुनते है उसे अंधेरे में सुनाते है तथा जो फुसफुसाहट में सुनते है उसे फुसफुसाकर ही घोषित करते हैं। शायद हमारी घोषणा में निर्भीकता एवं निडरता का अभाव है। शायद हम उन से डरते हैं जो शरीर का मारते है तथा उसकी ओर नहीं देखते जो आत्मा को बचा सकता है।


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Praise the Lord!