चक्र अ के प्रवचन

वर्ष का पच्चीसवाँ इतवार

पाठ: इसायाह 55:6-9; फ़िलिप्पियों 1:20स-24; मत्ती 20:1-16अ

प्रवाचक: फ़ादर आइज़क एक्का


”पापी अपना मार्ग छोड़ दे और दुष्ट अपने बुरे विचार त्याग दे। वह प्रभु के पास लौट आये और वह उस पर दया करेंगे, क्योंकि हमारा ईश्वर दयासागर है“ (इसायाह 55:7) आज का प्रभु वचन इसी आह्वान के साथ शुरू होता है। प्रत्येक व्यक्ति जो इस संसार में जन्म लेकर आता है, उसका एक विशेष मकसद या उद्देश्य होता है। जब वह अपने जीवन का उद्देश्य पूरा करता है, तो उसे आनन्द एवं सुख की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत यदि उसके जीवन के उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती, तो उसका जीवन व्यर्थ साबित होता है और वह अपने जीवन से निराश हो जाता है। दीपक का कार्य है प्रकाश देना। यदि दीपक प्रकाश न देकर धुआँ देता हो या वह प्रकाश देने में असमर्थ हो तो वह व्यर्थ है और किसी मतलब का नहीं है। पर जब दीपक प्रकाश देता है तो उसका उद्देश्य पूरा होता है। इसी प्रकार प्रत्येक खीस्तीय का उद्देश्य है पाप का परित्याग कर ईश्वर के मार्ग पर चले। ईश्वर के मार्ग पर चलने के लिए पूर्ण समर्पण की आवश्यकता है, आधा-अधूरा समर्पण हमारे खीस्तीय जीवन को दिशाहीन बना सकता है। हमें हमारे जीवन को दीन और नम्र बनाना है, क्योंकि ”ईश्वर दीनों को ऊपर उठाता और दुःखियों को सुख-शांति देता है। वह धूर्तों के षड्यन्त्र व्यर्थ करता है, जिससे उन्हें सफलता नहीं मिलती“ (योब 5:11-12)। 

नबी इसायाह हमें ईश्वर के शब्द का स्मरण दिलाते हुए कहते हैं कि हमारे विचार, ईश्वर के विचार नहीं हैं और हमारे मार्ग ईश्वर के मार्ग नहीं है। इसलिये हमें चाहिए कि हम अपने विचार और मार्ग बदलने का प्रयास करें। जो उनके विचारों एवं मार्गों पर चलने का प्रयत्न करते हैं, ईश्वर उनको भरपूर सहारा देते और अपने सामर्थ्य से शक्ति प्रदान करते हैं। ईश्वर दीन-दुखियों से दूर नहीं हैं वे उनकी सुनते एवं सुधि लेते हैं। “ईश्वर घमण्डी को नीचा दिखाता और दीन-हीन की रक्षा करता है। वह निर्दोश का उद्धार करता है“ (योब 22:29-30अ)। 

जो व्यक्ति अपना सर्वस्व ईश्वर को समर्पित कर देता है, वह अपने जीवन में ईश्वर के असाधारण एवं चमत्कारिक कार्यों का अनुभव करता है। वह जीवन भर ईश्वर को अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है। उसके जीवन में घमण्ड का कोई स्थान नहीं रहता है। वह सभी को एक समान देखता है क्योंकि सभी ईश्वर की प्रजा हैं। आज के पहले पाठ में नबी इसायाह बाबुल में निर्वासित इस्राएलियों को बतलाते हैं कि वे अपने पापमय जीवन को त्याग कर अपने सृष्टिकर्ता ईश्वर के पास लौट आयें क्योंकि ईश्वर दया से परिपूर्ण हैं, वे हृदय से पश्चात्ताप करने वालों के पाप क्षमा करते हैं और उनके पापों को भूलकर उनपर दयाभाव दिखाते हैं। ईश्वर की इस दयालुता का उदाहरण हम बाइबिल में जगह-जगह में पाते हैं। 

आज का सुसमाचर भी दाखबारी में अलग-अलग पहरों में काम करने आये मज़दूरों के दृष्टान्त के माध्यम से ईश्वर की दयालुता दर्षाता है। स्वामी सभी को एक-एक दीनार मज़दूरी देने का निर्णय लेता है। संध्या होने पर वह सबों को एक-एक दीनार मज़दूरी देता है। यह देखकर पहले आने वाले शिकायत करते हैं कि इन पिछले मज़दूरों ने केवल घण्टेभर काम किया, फिर भी उन्हें हमारे बराबर बना दिया। जबकि हम दिन भर कठोर परिश्रम करते और धूप सहते रहें। यह सुनकर स्वामी यह सफाई देता है कि वह किसी के साथ पक्षपात या अन्याय नहीं कर रहा है बल्कि किसी-किसी के साथ उदारता दिखा रहा है और इसपर किसी को कुछ आपत्ति नहीं होनी चाहिये। 

अब सवाल यह उठ सकता है कि स्वामी ऐसा क्यों करता है? इसका जवाब हम आज के पहले पाठ में पाते हैं। ‘‘प्रभु यह कहता है- तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं हैं और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं हैं। जिस तरह आकाश पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचा है, उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊँचे हैं।‘‘ इसी कारण हम उड़ाऊ पुत्र के दृष्टान्त में पढ़ते हैं कि पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति का अपना हिस्सा मौज़-मस्ती में उड़ा देता है तथा अपने को बेटा कहलाने योग्य भी नहीं पाता, फिर भी प्रेमी पिता, जो ईश्वर का ही रूप है, अपने उड़ाऊ पुत्र को पुत्र का ही दर्जा देकर उसकी वापसी पर खुशी मनाते हैं। ईश्वर प्रेम हैं और संत पौलुस कुरिन्थियों को लिखते हुए कहते हैं कि प्रेम बुराई का लेखा नहीं रखता है (देखिये 1 कुरिन्थियों 13:5)। ईश्वर का पूर्वप्रबंध भी अतुलनीय है। वे भले और बुरे दोनों पर अपना सूर्य उगाते तथा धर्मी और अधर्मी दोनों पर पानी बरसाते हैं। इसी प्रकार की पूर्णता हम खीस्तीयों को अपनाना चाहिये (देखिये मत्ती 5:45-48)। 

इस दृष्टान्त के मज़दूरों की तरह हम भी अपने स्वामियों के साथ कभी कभी बहस करने लगते हैं। हम उनके साथ सही व्यवहार नहीं करते हैं। इस दृष्टान्त के द्वारा प्रभु येसु अपने भक्तों को शिक्षा देना चाहते हैं कि उनका प्रेम किसी के लिए कम और किसी के लिए ज्यादा नहीं है। वे सभी के साथ एक सा व्यवहार करते हैं। उनमें दयालुता और अनुकम्पा के गुण भरे पडे़ हैं। प्रभु येसु के चेले या खीस्तीय विश्वासी बनने का मतलब है परमपिता की उदारता तथा पवित्रता के गुणों को अपनाना, परमपिता जैसे उदार और दयालु बनना। हम कई दफ़ा पहले आने वाले मज़दूरों की तरह संकीर्ण या संकुचित दृष्टिकोण अपनाते हैं। उनकी समस्या यह नहीं थी कि उनको वेतन नहीं मिला किन्तु यह थी कि दूसरों को उनके हक से ज्यादा पैसा मिला। यह जलकुकड़ापन जीवन को कड़वा बनाता है। इसी कारण लोग अपनी समृद्धि का आनन्द नहीं उठा पाते हैं और उनका जीवन दुखमयी रह जाता है। दूसरों की तरक्की पर कई लोग जलते हैं और दूसरों की भलाई पर असंतुष्ट हो जाते हैं। ईश्वरीय प्रेम जिसे ग्रहण करने की चुनौती आज के पाठ प्रस्तुत करते हैं हमें इस मानवीय संकीर्ण विचारधारा के ठीक विपरीत दिशा पर ले चलता है। 

प्रभु येसु का जीवन ईश्वरीय मूल्यों का सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसलिये संत पौलुस आज के दूसरे पाठ में प्रभु येसु की प्राप्ति को संपूर्ण जीवन का लक्ष्य बताते हैं क्योंकि जो उनसे संयुक्त रहते हैं, उन्हें कोई भी सांसारिक धन-सम्पत्ति आनन्द नहीं दे सकती। उनके लिए तो मसीह ही जीवन और मृत्यु हैं। बोनार के अनुसार ’जीवन एक यात्रा है, घर नहीं, रास्ता है, पुनर्वास का शहर नहीं। जो आनन्द और आशीर्वाद हम इस धरा के चौराहों पर पाते हैं, वह हमें केवल नवस्फूर्ति देती है, लेकिन सच्चा आनन्द ईश्वर के साथ संयुक्त होने में ही है। 

दाखबारी का दृष्टान्त हमें बताता है कि देर से आने वाले मज़दूरों पर ईश्वर का विशेष लगाव है क्योंकि वे सबों का उद्धार करना चाहते हैं। आज हमारी सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता यह है कि हम ईश्वर की उदारता को पहचानें क्योंकि वह अंतर्यामी हैं, वे हमारे मन दिलों में विराजते हैं और अपने प्रेम से हमारे खीस्तीय जीवन को सींचते रहते हैं। इन सभी वरदानों एवं कृपाओं के लिए ईश्वर से वर माँगें।


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Praise the Lord!