चक्र अ के प्रवचन

वर्ष का सत्ताईसवाँ इतवार

पाठ: इसायाह 5:1-7; फ़िलिप्पियों 4:6-9; मत्ती 21:33-4

प्रवाचक: फ़ादरडेन्नीस तिग्गा


‘‘ईश्वर ने संसार से इतना प्यार किया कि उसने उसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो उस में विश्वास करता है, उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे’’(योहन 3:16)। प्रभु येसु अपने कार्य और भेजे जाने के मकसद को अच्छे से जानते थे। ‘‘जिसने मुझे भेजा, उसकी इच्छा पर चलना और उसका कार्य पूरा करना, यही मेरा भोजन है’’(योहन 4:34)। प्रभु येसु ईश्वरीय प्रेम को समझाने, बाँटने और फैलाने का कार्य करते थे। ‘‘जिस प्रकार मैने तुम लोगो को प्यार किया, उसी प्रकार तुम भी एक दूसरे को प्यार करो’’(योहन 13:34)। पिता ईश्वर संसार की सृष्टि के समय से इस पूरे संसार को प्रेम करते आये हैं और उनके प्रेम की पराकाष्ठा प्रभु येसु के आने पर हुई। उस पिता के असीम प्रेम को समझाने के लिए प्रभु येसु ने यह दृष्टांत सुनाया।

हम सब प्रभु के प्रतिरूप बनाये गये हैं ‘‘ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनाया’’(उत्पत्ति 1:27)। ‘‘ईश्वर प्रेम है और जो प्रेम में दृढ़ रहता है, वह ईश्वर में निवास करता है और ईश्वर उस में’’(1 योहन 4:16)। अर्थात् हम सब प्रेम के प्रतिरूप बनाये गये हैं परन्तु जब जब हम ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध कार्य करते हैं या पाप करते हैं तब हम उनके प्रेम से दूर होते जाते हैं। यह तब होता है जब हम ईश्वर को छोड़ दुनिया के पीछे भागते हैं। ‘‘जो संसार को प्यार करता है, उसमें पिता का प्रेम नहीं’’(1 योहन 2:15)। हम सब सर्वप्रथम प्रभु से प्रेम करने के लिए बनाये गये हैं। ‘‘जो अपने पिता या अपनी माता को मुझ से अधिक प्यार करता है, वह मेरे योग्य नहीं। जो अपने पुत्र या अपनी पुत्री को मुझ से अधिक प्यार करता है, वह मेरे योग्य नही’’(मत्ती 10:37)। और यह संसार के सृष्टि से है। परन्तु मनुष्य इस बात को भूलकर दूसरी ओर कदम बढ़ाने लगा। प्रभु ने इस प्रेम को समझाने के लिए और लोगो को वापस बुलाने के लिए विभिन्न व्यक्तियों, नबियों, प्रभु भक्तों का सहारा लिया जैसे इब्राहीम, मूसा, योशुआ, न्यायकर्ताओं - ओतनीएल, एहूद, शमगर, दबोरा, बाराक, गिदओन, अबीमेलेक और यिफ्तह। परन्तु लोगो ने इनकी नही सुनी। फिर ईश्वर ने नबियों को भेजा - समूएल, इसायाह, यिमियाह, दानिएल, एज़ेकिएल, आमोस, होशुआ, योएल इत्यादि परन्तु लोगो ने इन्हें मारा, पीटा और इनकी नही सुना। अंत में ईश्वर ने स्वयं अपने पुत्र को भेजा परन्तु उन्होंने पुत्र के साथ भी वही व्यवहार किया। ‘‘वह अपने यहाँ आया और उसके अपने लोगों ने उसे नहीं अपनाया’’(योहन 1:11)। अंततः जो अनुग्रह उन लोगों पर था, उनसे ले लिया गया और उन लोगो को दिया गया जो ईश्वर के लिए तत्पर थे और इन अनुग्रह के सही हकदार थे।

ईश्वर ने हम सबको माता के गर्भ में बड़े प्रेम से गढ़ा, हमारा नाम लेकर पुकारा और जो हमारे लिए जरूरी है वह सब हमें प्रदान किया है। यहाँ तक कि हमें बड़े बड़े खतरों से, संकटो से बचाया है जिन्हें हम जानते या नही भी जानते हों। वह हर क्षण हमारे साथ रह कर हमारी रक्षा करता है। ‘‘मै संसार के अंत तक सदा तुम्हारे साथ हूँ’’ (मत्ती 28:20)। प्रभु येसु हमें पिता ईश्वर के साथ मेल कराना चाहते हैं जिससे हम ईश्वर से प्रेम करना सीखें जिसके लिए हम बने हैं। और हम न केवल ईश्वर से प्रेम करें परन्तु उस प्रेम को फैलायें अर्थात् उस प्रेम का सही फल उत्पन्न करें। ‘‘मैंने तुम्हें इसलिए चुना और नियुक्त किया कि तुम जा कर फल उत्पन्न करो .......... मैं तुम लोगों को यह आज्ञा देता हूँ- एक दूसरे को प्यार करो।’’ (योहन 16:17)

जब उन्होने हमारे लिए इतना सब किया है तो वे आशा भी रखते हैं कि हम फल उत्पन्न करें। लेकिन संसार ने क्या किया? संसार ने उसी ज्योति को ठुकरा दिया, उसे नही अपनाया (योहन 1:11)। ‘‘कौन बात ऐसी थी, जो मैं अपनी दाखबारी के लिए कर सकता था और जिसे मैंने उसके लिए नहीं किया? मुझे अच्छी फसल की आशा थी, उसने खट्टे अंगूर क्यों पैदा किये?’’ (इसायाह 5:4) यह बात केवल यहुदियो के लिए ही नही, परन्तु हम मसीहियों के लिए भी बहुत हद तक समान है। कई बार हम अपने मन, वचन और कर्मों से उस ज्योति को ठुकरा देते है।

अगर हम उस प्रेम का सही फल उत्पन्न नही कर पा रहें है तो इसका मतलब हम ईश्वर से पूर्ण रूप से नहीं जुड़े हैं ‘‘मै दाखलता हूँ और तुम डालियाँ हो। जो मुझ में रहता है और मैं जिस में रहता हूँ, वही बहुत फलता है; क्योंकि मुझ से अलग रह कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते।’’ (योहन 15:5)।

बपतिस्मा के द्वारा हम सबको वह अनमोल उपहार मिला है। मसीह का अनुसरण करने का अवसर मिला। परन्तु क्या हम मसीह के समान जीवन व्यतीत करते है? क्या हम उस उपहार का या उस विश्वास का फल उत्पन्न करते हैं? फल उत्पन्न करने का मतलब यहाँ पर प्रभु के वचन के अनुसार कार्य करना है। प्रभु का वचन सशक्त और किसी भी दुधारी तलवार से भी तेज है (इब्रानियों 4:12)। ईश्वर का वचन हमे प्रेम करने, क्षमा करने, दीन बनने, अपना क्रूस उठाने, अपने को छोटा बनाने तथा प्रभु में बने रहने को कहता है। इन सबसे बढ़ कर ईश्वर का वचन हमें ईश्वर को सारे हृदय से, सारे मन, सारी शक्ति से प्रेम करने और अपने पड़ोसियों को अपने समान प्रेम करने को कहता है। परन्तु क्या हम इनका अनुसरण करते है? कई बार हमारे गलत उदाहरण के कारण लोगों का हमसे विश्वास उठ जाता है। इसी कारण महात्मा गांधी ने कहा कि वह ख्रीस्त को पसंद करते हैं लेकिन ख्रीस्तीयों को नहीं, क्योंकि ख्रीस्तीय ख्रीस्त से बिल्कुल अलग हैं। यही कारण है कि हमारे जीवन द्वारा कोई फल उत्पन्न नहीं हो रहा है। आइये हम सब सच्चे ख्रीस्तीय या सच्चे मसीही बने। हम केवल वचनों से ही नहीं परन्तु कर्मों से येसु का अनुसरण करें।


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Praise the Lord!