Smiley face

पवित्र शुक्रवार_2018

इसायाह 52:13-53:12; इब्रानियों 4:14-16:7-9; योहन 18:1-19,42

फादर फ्रांसिस स्करिया


मैं गाँव के एक परिवार में बैठा हुआ था। बातों-बातों में उस परिवार के मुखिया ने गाँव के माहौल को मेरे सामने प्रस्तुत करते हुए कहा, “पहले सब लोग गाँव के मुखिया को मानते थे और निर्णय लेना और समस्याओं को सुलझाना आसान था। परन्तु आज वह व्यवस्था खराब हो गयी है। कोई भी झुकना नहीं चाहता है, सब झुकाना चाहते हैं।” इन बातों ने मुझे बहुत सोचने को मजबूर किया। झुकने और झुकाने में कौन-सा आसान है? अवश्य ही झुकना आसान है, क्योंकि झुकाने के लिए ताकत चाहिए। यह सच है, परन्तु पूरी सच्चाई नहीं है।

मैं समझता हूँ कि लोग ज़्यादात्तर मजबूरी के कारण झुकते हैं। जब कोई व्यक्ति अपने शत्रु का सामना करने की क्षमता नहीं रखता है, तो वह झुकता है। लेकिन ऐसे भी लोग हैं, जो शत्रु का साहसपूर्वक सामना करने की क्षमता रखते तो हैं फिर भी झुकते हैं। इस प्रकार की प्रतिक्रिया के अनेक कारण हो सकते हैं। मेरा एक दोस्त है जो अपने बेटे के साथ बेडमिंटन खेलता था। वह एक अच्छा खिलाडी है, फिर भी हमेशा अपने बेटे के आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए झुकता था और उसे जीतने देता था। उसका बेटा जैसे-जैसे खेल में परिपक्व बनता गया, वह उसके लिए खेल ज़्यादा चुनौतीपूर्ण बनाता था। परन्तु वह हमेशा अपने बेटे को जीतने देता था। उस पिता का झुकना मजबूरी नहीं है, बल्कि ताकत है।

सर्वशक्तिमान ईश्वर को स्वर्ग की महिमा छोड कर इस दुनिया में आने की क्या ज़रूरत थी? आये भी तो चरनी में जन्म लेने की क्या ज़रूरत थी? सब कुछ के सृष्टिकर्ता को सब कुछ त्यागने की क्या ज़रूरत थी? खेत के फूलों को भी अनोखे रंग से सजाने वाले को क्रूस पर वस्त्रहीन मरने की क्या ज़रूरत थी। निष्कलंकता की परिपूर्णता को सब से बडे कुकर्मी के समान क्रूसमरण को स्वीकार करने की क्या ज़रूरत थी? मसीह के त्यागमय जीवन का एक ही कारण है – हमारे प्रति प्रेम। पवित्र वचन कहता है, “ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने इसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो उस में विश्वास करता हे, उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे” (योहन 3:16)।

क्रूस सब से बडे प्रेम का प्रतीक मात्र नहीं, बल्कि प्रमाण भी है। “इस से बडा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिये अपने प्राण अर्पित कर दे” (योहन 15:13)।

क्रूस विनम्रता की सब से बडी शिक्षा है। इसलिए प्रभु ने कहा था, “मुझ से सीखो। मैं स्वभाव से नम्र और विनीत हूँ” (मत्ती 11:29)। येसु क्रूस पर चढ़ने के लिए मजबूर नहीं, बल्कि सक्षम हुए। क्रूस एक विजय-चिह्न है, न कि हार-चिह्न। इतिहास इस बात का गवाह है कि शोषण करने वाले उत्तीर्ण नहीं हो पाते, बल्कि सेवा करने वाले विजयी बनते हैं। “जो अपने को बडा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा। और जो अपने को छोटा मानता है, वह बडा बनाया जायेगा” (मत्ती 23:12)।

प्रभु येसु ने हमें झुकाने को नहीं बल्कि झुकना सिखाया। लूकस 9:51-56 में हम पढ़ते हैं _ “अपने स्वर्गारोहण का समय निकट आने पर ईसा ने येरुसालेम जाने का निश्चय किया और सन्देश देने वालों को अपने आगे भेजा। वे चले गये और उन्होंने ईसा के रहने का प्रबन्ध करने समारियों के एक गाँव में प्रवेश किया। लोगों ने ईसा का स्वागत करने से इनकार किया, क्योंकि वे येरुसालेम जा रहे थे। उनके शिष्य याकूब और योहन यह सुन कर बोल उठे, "प्रभु! आप चाहें, तो हम यह कह दें कि आकाश से आग बरसे और उन्हें भस्म कर दे"। पर ईसा ने मुड़ कर उन्हें डाँटा और वे दूसरी बस्ती चले गये।”

जिसमें झुकने की क्षमता है, वह टूटने से बचता है। नबी इसायाह आने वाले मसीह की तुलना वध के लिए ले जाये जाने वाले मेमने से करते हैं। वे कहते हैं, “वह अपने पर किया हुआ अत्याचार धैर्य से सहता गया और चुप रहा। वध के लिए ले जाये जाने वाले मेमने की तरह और ऊन कतरने वाले के सामने चुप रहने वाली भेड़ की तरह उसने अपना मुँह नहीं खोला। वे उसे बन्दीगृह और अदालत ले गये; कोई उसकी परवाह नहीं करता था। वह जीवितों के बीच में से उठा लिया गया है और वह अपने लोगों के पापों के कारण मारा गया है। यद्यपि उसने कोई अन्याय नहीं किया था और उसके मुँह से कभी छल-कपट की बात नहीं निकली थी, फिर भी उसकी कब्र विधर्मियों के बीच बनायी गयी और वह धनियों के साथ दफ़नाया गया है।“ (इसायाह 53:7-9) वे इसी शिक्षा को हमारे सामने रखते हैं। वे इस के लिए अपना आदर्श भी हमारे सामने रखते हैं। इस संबंध में संत पौलुस फिलिप्पियों को लिखते हुए कहते हैं, “वह वास्तव में ईश्वर थे और उन को पूरा अधिकार था कि वह ईश्वर की बराबरी करें, फिर भी उन्होंने दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बन कर अपने को दीन-हीन बना लिया और उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने के बाद मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन बना लिया।“ (फिलिप्पियों 2:6-8)

प्रभु येसु हम से भी यही अपेक्षा करते हैं कि हम इस प्रकार के आत्मत्याग की आध्यत्मिकता को अपनायें। इसलिए प्रभु येसु कहते हैं, “मैं तुम लोगों से, जो मेरी बात सुनते हो, कहता हूँ-अपने शत्रुओं से प्रेम करो। जो तुम से बैर करते हैं, उनकी भलाई करो। जो तुम्हें शाप देते है, उन को आशीर्वाद दो। जो तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो। जो तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारता है, दूसरा भी उसके सामने कर दो। जो तुम्हारी चादर छीनता है, उसे अपना कुरता भी ले लेने दो। जो तुम से माँगता है, उसे दे दो और जो तुम से तुम्हारा अपना छीनता है, उसे वापस मत माँगो।“ (लूकस 6:27-30) आइए हम इस आध्यात्मिकता को अपनाने की कोशिश करें।


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