Johnson

वर्ष का पच्चीसवाँ इतवार

प्रज्ञा 2:12, 17-20; याकूब 3:16-4:3; मारकुस 9:30-37

फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


पवित्र बाइबिल हमें बताती है कि हम संसार से अलग हैं (योहन 15:19) क्योंकि हम प्रभु के हैं। प्रभु के विचार संसार के लोगों के विचारों से अलग हैं। कभी कभी हमारा पूरा जीवन निकल जाता है यह समझने में कि प्रभु हमारी तरह नहीं सोचता, हमें प्रभु की तरह सोचना है। हमारी सोच, हमारे विचार जब प्रभु के विचारों से अलग होते हैं तब हमें परेशानियों का सामना करना पड़ता है। जब प्रभु समुएल को राजा दाऊद का अभिषेक करने भेजते हैं तो वह येशय के पुत्रों के बाहरी रंग-रूप आदि को देखकर इस्रायल के लिये नये राजा का अभिषेक करना चाहता है लेकिन प्रभु उसे समझाते हैं कि प्रभु के विचार अलग हैं। (देखिए 1समुएल 16:1-13)। प्रभु येसु भी पिता ईश्वर के सन्देश को हम तक पहुँचाने आये हैं। जाहिर है कि उनकी बातें कई बार हमें बड़ी अटपटी लगती हैं, और उन्हें समझने और मानने में बड़ी परेशानी और झिझक होती है।

आज के सुसमाचार में प्रभु येसु अपने शिष्यों को अपने दुःखभोग, मृत्यु एवं पुनुरूत्थान का रहस्य समझाना चाहते हैं। इसे समझाने के लिए वे उन्हें लोगों से अलग ले जाते हैं। प्रभु येसु के इस दुनिया में आने का उद्देश्य इसी में छुपा था। उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात यही थी कि किस तरह उन्हें अपने दुःखभोग, मृत्यु एवं पुनरूत्थान द्वारा संसार का उद्धार करना है। वह चाहते हैं कि जो इस रहस्य को बाद में लोगों को समझायेंगे वे भी इस रहस्य को भली-भाँति समझ लें। क्योंकि प्रभु येसु के स्वर्गारोहण के बाद यही रहस्य उनकी शिक्षाओं का केन्द्र होने वाला था। प्रभु येसु के अनुसार उनके शिष्यों को यह समझना सबसे महत्वपूर्ण था। लेकिन जो विचार प्रभु येसु के हैं, उनसे शिष्यों के विचार मेल नहीं खाते। शिष्यों को लगता है कि उनके लिये सबसे महत्वपूर्ण यह जानना है कि उनमें सबसे बड़ा कौन है? उन्हें तो यह भी नहीं पता कि सबसे बड़ा और महान बनने का मतलब क्या है?

प्रभु येसु के शिष्यों की तरह कई बार हम भी वही गलती करते रहते हैं। पहला तो यह कि हमारे जीवन में ईश्वर का सन्देश क्या है हम यह समझने की कोशिश ही नहीं करते। दूसरा यह कि हम अनेक चीजों को जैसे समझते हैं, हम सोचते हैं कि वही वास्तविकता है। लेकिन ईश्वर के विचार मनुष्यों के विचारों से अलग हैं। आज की दुनिया में हम देखते हैं कि महान या बड़ा होने के मायने ही बदल गये हैं। आजकल लोग बडा़ व्यक्ति किसे मानते है? दुनिया हमें बड़ा बनने के बारे में क्या सिखाती है? सांसारिक अर्थ में बड़ा व्यक्ति वही है जिसके पास बहुत ज़मीन-ज़ायदाद है, धन-दौलत है, नौकर-चाकर हैं, जिसका रुतवा है, लोग जिसे सलाम करते हैं। वह व्यक्ति जहाँ कहीं भी जाता है, लोग उसके मुरीद हो जाते हैं। लोग उसे ही सफल और महान व्यक्ति मानते हैं। अर्थात् जो दूसरों से ज्यादा है वही बड़ा है। ऐसे व्यक्तियों के पास प्राःय सब कुछ होता है, लेकिन उस सब के बावजूद अन्दर कुछ खालीपन सा रहता है, कुछ असन्तुष्टि की भावना दिल में रहती है। यही बेचैनी, यही असन्तोष इस बात का प्रमाण है कि बड़ा या महान बनने की हमारी परिभाषा गलत है।

बड़ा या महान बनने की सही परिभाषा प्रभु येसु हमें देते हैं। ’’जो सबसे बड़ा बनना चाहता है वह सबसे छोटा और सबका दास बने’’। बड़ा व्यक्ति वह है जो ईश्वर के करीब है। महान व्यक्ति वह है जिससे ईश्वर प्रसन्न है। छोटे बनकर ही हम बड़े बन सकते हैं इसका तात्पर्य क्या है? छोटा अर्थात् दूसरों पर निर्भर रहने वाला व्यक्ति। जो व्यक्ति ईश्वर एवं दूसरों पर निर्भर रहेगा, वही व्यक्ति महान है। सांसारिक अर्थ में जो व्यक्ति सबसे बड़ा है वह दूसरों से अधिक स्वयं पर निर्भर रहता है, और यह ईश्वरीय गुण नहीं है। ईश्वरीय गुण यह है कि हम सदा ईश्वर को याद करते रहें। अपने शरीर से अधिक अपनी आत्मा की परवाह करने वाला व्यक्ति महान होता है। एक राजा चाहे बहुत बड़ा और धनी हो लेकिन एक ज्ञानी महात्मा उससे बड़ा है क्योंकि वह आध्यत्मिक बातों में राजा से बढकर है।

प्रभु येसु का नाम अगर आज सब नामों में सर्वश्रेष्ठ है (प्रेरित-चरित 4:12) जो संसार को मुक्ति प्रदान करता है तो वह इसलिये कि प्रभु येसु सेवा कराने नहीं बल्कि दूसरों की सेवा करने आये थे। दूसरों का दास बनकर सेवा करना ही महान बनने का तरीका है। एक छोटे बालक के समान निश्छल और विनम्र बनना ही महानता की पहली सीढी है।


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