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चक्र स - 02. आगमन का दूसरा इतवार

बारुक 5:1-9; फिलिप्पयों 1:4-6,8-11; लूकस 3:1-6

(फादर शैलमोन आन्टनी)


हमारा एक ही ईश्वर है ओैर हम एक ही संसार में जीते हैं। परन्तु इस वास्तविकता पर हमारा अलग-अलग नज़रिया है, ठीक उसी प्रकार जैसे एक ही वस्तु को अलग-अलग रंगों के चश्मों से देखना। चश्मे के रंग के अनुसार ही वस्तु दिखायी पड़ती है। वास्तविकता का यही नज़रिया हमारे जीवन को संचालित करता है अर्थात हम किस दृष्टिकोण से किसी बात की वास्तविकता को आंकते हैं, हम किस प्रकार अपने आप, दूसरों, हमारे चारों ओर के संसार और ईश्वर को देखते हैं। इस प्रकार का नज़रिया आपके और मेरे अंदर विद्यमान है। हमारे नज़रिए के अनुसार हम जीवन को कार्यान्वित करते हैं, और दूसरों तथा ईश्वर से बरताव करते हैं। यह बरताव कुछ लोगों में सकारात्मक और कुछ में नकारात्मक होता है और कुछ में उदासीनता का रूप लेता है। हमारा नज़रिया ही हमारे जीवन को आनंदपूर्वक जीने की क्षमता को निर्धारित और संचालित करता है।

हावार्ड विश्वविद्यालय के विलयम जेम्स का कहना है कि इन्सान अपने नज़रिये में बदलाव लाकर अपनी जिन्दगी को बेहतर बना सकता है। कुछ हद तक यह सच है कि 95 प्रतिशत् दुःख वास्तविकता को गलत और त्रुटिपूर्ण नज़रिये से देखने से उत्पन्न होता है। यह विकृति हमारे जीवन को दुःखद बना देती है। आज यह बहुत सारी सामाजिक समस्याओं का मूल कारण भी है। उदाहरण के लिये आतंकवाद को ले लें। आतंकवाद उन कुछ लोगों की प्रतिक्रिया है जो ईश्वर को, संसार को और जीवन को भिन्न नज़रिये से देखते हैं। जो धर्म के नाम पर आतंकवाद फैलाते हैं, वे सोचते हैं कि वे ईश्वर को न मानने वालों की हत्या कर ईश्वर की सेवा कर रहे हैं। क्या इस पर विजय प्राप्त की जा सकती है?

आज के पहले पाठ में हम उसी प्रकार की एक घटना के बारे में सुनते हैं जहाँ नबी बारुक येरूसालेम को अपने नज़रिये में बदलाव लाने के लिये कहते है। येरूसालेम सन् 587 में नबूकदनेज़र द्वारा तहस-नहस कर दिया गया था और उसके वाशिंदों को बंदी बनाकर बाबुल ले जाया गया था और इस तरह उन पर दुःखों का पहाड़ टूट पडा था। उन्हीं को सांत्वना देते हुए नबी कहते है कि वे विलाप करना बंद करे और दुःख और पीड़ा के वस्त्र उतार कर ईश्वर से मिलने वाले न्याय के वस्त्र धारण करें क्योंकि जिस इस्राएल को देश से निकाल दिया गया था वह वापस आ रहा है और इसके लिये यह आवश्यक है कि वह अपने नज़रिये में बदलाव लाये ताकि वह अपने बच्चों का स्वागत कर सकें।

सुसमाचार में भी हम यही सुनते हैं। योहन बपतिस्ता निर्जन प्रदेश में येसु के आगमन के बारे में ऊँची आवाज में पुकार-पुकार कर सुनने वालों से कह रहे थे कि उन्हें अपने सोच विचार में बदलाव लाना होगा। यदि तुम्हें ईश्वर के पुत्र को ग्रहण करना है तो अपने में सुधार लाना होगा, अपने नज़रिये को बदलना होगा। सिर्फ इसी तरह वे आगे बढ़ पायेंगे जब वे अपनी सोच को बदलने को तैयार हों, नये विचार और रवैये को अपनाने को तैयार हों और फिर उनके सामने आकर बपतिस्मा ग्रहण करें। यह जल का बपतिस्मा पुराने मार्ग छोड़ देने और नये मार्ग को अपनाने का प्रतीक होगा। जल उनके परिवर्तित हृदय का प्रतीक होगा।

जब प्रभु येसु प्रकट हुए तो उन्होंने भी लोगों को सत्य को परखने का निमंत्रण दिया। सत्य के प्रति हमारा व्यक्तिगत नज़रिया हमारे आनन्द को निर्धारित करता है। दूसरे शब्दों में हमारा नज़रिया सत्य के जितने करीब होगा उतना ही हमारा जीवन परिपूर्ण और आनंदित होगा। दूसरी तरफ यदि हमारी प्रतिक्रिया हकीकत से परे या विपरीत होगी तो उसका हमारे जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। प्रभु येसु ने कहा है कि वह मार्ग, सत्य और जीवन है और हमें उनके नज़रिये को अपनाना चाहिये।

तो हमें क्या करना चाहिए? योहन बपतिस्मा से भी अलग-अलग लोगों ने पूछा- हमें क्या करना चाहिए? हर एक के लिये उनका उत्तर अलग था। नाकेदारों से उन्होंने कहा- पैसे के प्रति नज़रिये को बदलें अर्थात वे सिर्फ निर्धारित राशि ही वसूल करें। सैनिकों से योहन ने कहा- धमकियों या झूठे आरोपों से धन न कमायें और अपने वेतन से संतुष्ट रहें (लूकस 3:14)। यह कुछ सुझाव थे जिन्हें योहन बपतिस्ता ने अपने युग के लोगों को दिये ताकि वे राजाओं के राजा को ग्रहण कर सकें। आगमन काल में हम नन्हें येसु को हमारे हृदय में ग्रहण करने के लिये क्या करें?

बेथलेहेम में जन्म लेकर वे संसार को अपनी प्रेमपूर्ण शिक्षा द्वारा चुनौती देते हैं। अपने युग के लोगों को प्रभु येसु ने अपनी सोच में परिवर्तन लाने, नज़रिये में बदलाव लाने को कहा। प्रभु येसु चाहते थे कि सब लोग ईश्वर के बारे में, संसार और लोगों के विषय में उनके नज़रिये को अपनायें और जीवन को फलदायी बनायें। प्रभु येसु अपने शिष्यों में कौन सा परिवर्तन चाहते हैं? प्रभु येसु जो परिवर्तन चाहते हैं उन्हें मुख्यतः तीन बिन्दुओं में वर्णित कर सकते हैं। हर ख्रीस्तीय जो यह ख्रीस्त जन्मोत्सव अर्थपूर्ण बनाना चाहता है इन बिन्दुओं पर चिन्तन करें और अपने नज़रिये में बदलाव लायें।

प्रभु येसु के समय में ईश्वर के प्रति कई यहूदियों का यह नज़रिया था कि ईश्वर एक कठोर, सजा देना वाले और प्रतिकारी ईश्वर हैं। पर प्रभु येसु ने ऐसे ईश्वर के बारे में बताया जो प्यार करते हैं और हमारा ख्याल रखते हैं। खोयी हुयी भेड़ और उड़ाऊ पुत्र के दृष्टांतों द्वारा और अपने स्वयं के क्रूस पर बलिदान द्वारा येसु ने उन्हें ईश्वर के प्रेम की गहराई का अनुभव कराया- एक ऐसे ईश्वर की जो हमें खोजते रहते हैं, हमें स्वीकार करने को हमेशा तत्पर रहते हैं, यहाँ तक कि हमारे लिये मरने को भी तैयार रहते हैं। अर्थात येसु ने उन्हें ईश्वर के प्रति उनके नज़रिये को बदलने के लिये आह्वान किया क्योंकि तभी हम ईश्वर के मनुष्य बनने के रहस्य को बेहतर समझ पायेंगे।

प्रभु येसु ने संसार में जन्म लेकर दिखाया कि यह संसार जीने के लिये सर्वोत्तम जगह है। यह वह जगह है जहाँ मनुष्य स्वर्ग राज्य का पूर्वानुभव प्राप्त कर सकता है (लूकस 17:21)। यही वह जगह है जहाँ व्यक्ति स्वर्ग में अपने लिये धन जमा कर सकता है (मत्ती 6:20)। अतः यह संसार बुराई की जगह नहीं, अपितु यह वह जगह है जहाँ पर जी कर हम ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव कर सकते हैं।

हर एक व्यक्ति ईश्वर की दृष्टि में मूल्यवान है (मत्ती 18:14)। ‘‘तुम्हारे सिर का बाल भी गिना हुआ है’’। ‘‘तुम बहुतेरे पक्षियों से बढ़कर हो’’ (लूकस 12:7)। इन वाक्यों के द्वारा प्रभु येसु सिखाते हैं कि ईश्वर हममें से हर एक को कितना प्यार करते हैं। उन्होंने लोगों को एक दूसरे को प्यार करना सिखाया और अपने शत्रुओं के प्रति नज़रिये को बदलने को कहा। उन्होंने लोगों को ईश्वर के नज़रिये को अपनाने के लिये कहा जो भले और बुरे दोनों पर पानी बरसाता है ( मत्ती 5:45)। इसलिये अकेले रहने वाला व्यक्ति कभी भी ख्रीस्तीय नहीं बन सकता। हम कभी भी ख्रीस्त जन्मोत्सव को अकेले नहीं मना सकते, न परिवार में और न केवल इसाईयों के बीच, परन्तु यह पर्व सिर्फ दुनिया के साथ ही मनाया जा सकता है। अर्थात सभी धर्मों, संस्कृतियों, जातियों और वर्गों के लोगों के साथ।

क्या हम हमारे पुराने नज़रिये को त्याग कर सत्य का नया नज़रिया अपनाने को तैयार हैं? याने ईश्वर, संसार और मनुष्य के प्रति ईश्वर के समान नज़रिये को अपनाने को तैयार है?


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Praise the Lord!