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चक्र स -14. वर्ष का दूसरा इतवार

इसायाह 62:1-5; 1 कुरिन्थियों 12:4-11; योहन 2:1-11

(फादर मरिया स्टीफन)


यहूदी लोग विवाह तथा वैवाहिक जीवन को पवित्र मनाते थे। जीवन ईश्वर की देन है और जहाँ कहीं भी जीवन संभव हो वहाँ एक प्रकार से ईश्वर की उपस्थिती महसूस होती है। इसलिये यहूदियों का यह विचार था कि पति-पत्नी का संबंध विवाह के द्वारा सामाजिक मान्यता प्राप्त करता है एवं पवित्र माना जाता है। ईश्वर जीवन का स्त्रोत है और मृत्यु जीवन का विनाश है। विवाह बंधन के द्वारा पति और पत्नी जो शारीरिक सम्बंध शुरू करते हैं उसके जरिये एक नया प्राणी उत्पन्न होता है। जीवन की इस शुरूआत में ईश्वर, यहूदियांे का विष्वास था कि, स्वर्ग से एक आत्मा उस प्राणी को प्रदान करते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विवाह सम्बंध मानव और ईश्वर के बीच की साझेदारी को सामाजिक दर्जा प्रदान करता है। परिणामस्वरूप पति और पत्नी एक श्रेष्ठ या उत्कृष्ठ कार्य के सहभागी बनते हैं। इसी कारण यहूदियों के बीच विवाह की तैयारी को काफी महत्व दिया जाता था। बाइबिल में यह देखने को मिलता है कि ईश्वर और इस्राएलियों के बीच के संबंध की तुलना पति और पत्नी के संबंध से की जाती है। बाइबिल में ऐसे बहुत सारे दृष्टांत है जिसमें विवाह भोज का विवरण है। ईश्वर इस्राएलियों को अपनी सहभागिता में भाग लेने की चुनौती देते है। पति और पत्नी के बीच में जो अटूट बंधन स्थापित होता है उसी प्रकार का रिष्ता ईश्वर इस्राएल के साथ कायम रखना चाहते हैं। परन्तु इस्राएली जनता इस रिष्ते को बार-बार तोड़ती है। लोग ईश्वर को छोड़कर विजातियों की देव-मूर्तियों की पूजा करने लगते हैं। नबी होषेआ के ग्रंथ में हम पढ़ते है कि होषेआ अपनी चरित्रहीन पत्नी से प्रेम करते रहते हैं। नबी के जीवन को ही दृष्टांत बनाकर प्रभु ईश्वर इस्राएलियों को यह शिक्षा देना चाहते हैं कि इस्राएलियों को सच्चे ईश्वर के रास्ते से भटकने पर भी ईश्वर का अनुग्रह उनपर अपरिवर्तित रहता है। नबी होषेआ ने इस प्रकार वैवाहिक प्रतीक के माध्यम से ईश्वरीय प्रेम का प्राधान्य स्पष्ट किया।

आज का सुसमाचार संत योहन के सुसमाचार से लिया गया है जहाँ काना के विवाह-भोज का वर्णन है। वास्तव में संत योहन के सुसमाचार में चमत्कार ‘चिन्ह’ के नाम से जाने जाते हैं। चिन्ह का मतलब यह होता है कि एक दृष्य वस्तु उस वस्तु की ओर संकेत करती है जो अदृष्य है। अगर हम काना के विवाह भोज में जो चमत्कार हुआ उसे चिन्ह समझते हैं तो जो दृष्य विवाह भोज होता है उसका अदृष्य तत्व समझना जरूरी है। प्रभु येसु जो ईश्वर के पुत्र हैं वास्तव में स्वर्गीय वर हैं और कलीसिया वधु हैं। जब प्रभु येसु ख्रीस्त कलीसिया रूपी वधु को अपनाते हंै तो उसकी कमियों और कलंक को प्रभु खुद दूर करते है। इसलिये संत पौलुस ऐफ़ेसियों को लिखते हुये कहते हैं, ‘‘उन्होंने उसके (कलीसिया) लिये अपने को अर्पित किया जिससे वह उसे पवित्र कर सकें और वचन तथा जल के स्नान द्वारा शुद्ध कर सके; क्योंकि वह एक ऐसी कलीसिया उपस्थित करना चाहते थे जो महिमामय हो, जिसमें न दाग हो, और न झुर्री और न कोई दूसरा दोष, जो पवित्र और निष्कलंक हो’’ (ऐफ़ेसियों 5:25-27)। आज के पहले पाठ में प्रभु ईश्वर अपने को वर मानते हुए इस्राएल रूपी वधु पर गर्व करते हैं तथा आन्नद मनाते हैं।

इस अवसर पर क़ाना के विवाह भोज पर गहराई से मनन् करना उचित होगा। सबसे पहले माता मरियम की भूमिका हमारे सामने आती है। एक साधारण परिवार में वह उपस्थित रहती है। उस परिवार की जरूरतों को वह भली-भांति समझती है। उनकी दुख तकलीफों को अपना ही मानकर उनकी समस्यों का निवारण ढुंढ़ती हुयी वह अपने बेटे के पास आती है और उस परिवार के लिये एक चमत्कार करने को उन्हें बाध्य करती है। इस अवसर पर माता मरियम सेवकों को अपनी बात नहीं सुनाती है बल्कि उनसे कहती है ‘‘वे तुम लोगों से जो कुछ कहें, वही करना’’ (योहन 2:5)। माता मरियम किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करना नहीं चाहती है परन्तु वह ख्रीस्त की ओर इशारा करती रहती है, मार्ग दिखाती रहती है क्योंकि उन्हें यह बराबर मालूम है कि ख्रीस्त ही सभी सवालों का जवाब हैं, सभी समस्याओं को समाधान हैं तथा सभी परेशानियों का निवारण हैं। वे ही परम सत्य हैं।

दूसरी बात जो हमारे सामने आती है वह मानवीय कमजोरियों से जुड़ी हुई है। सुसमाचार में कहा गया है कि वहाँ पर पत्थर के छः मटके रखे थे और उनमें दो-दो, तीन-तीन मन समाता था। प्रभु सेवकों से कहते हैं कि वे मटकों में पानी भरें। मटकों में पानी भरने का तात्पर्य यह है कि हम उतना प्रयत्न करें जितना संभव है। हम में से हर एक व्यक्ति को अपनी क्षमता के अनुसार काम करना चाहिये। जब हम अपनी जिम्मेदारियों को ईमानदारी से निभाते हैं तब ईश्वर हमारे प्रयत्नों में जो कमी होती है उसको दूर करते हैं और हमारे प्रयत्नों को उसकी वांछित समाप्ति तक पहुँचाते हैं। सुसमाचार कहता है ‘‘सेवकों ने उन्हें (मटकों को) लबालब भर दिया’’ (योहन 2:7)। इसका मतलब यह है कि सेवकों ने निष्ठा और लगन के साथ अपने कर्तव्यों को निभाया, बाकी ईश्वर के ऊपर छोड़ दिया। वे तो अंगूरी नहीं बना सकते थे लेकिन पानी तो भर ही सकते थे। जो उनसे संभव था उन्होंने उसे शत-प्रतिशत निभाया। हमारा परिश्रम और ईश्वर की आशिष जब यह दोनों मिलते हैं तो चमत्कार अवश्य होता ही हैं। जब हम अपने कत्तव्यों को अनिच्छा से या बोझ समझकर निभाते हैं तो ईश्वर की आशिष पाना संभव नहीं है। हमें भी अपने मटकों को लबालब भरना चाहिये। इसका मतलब है कि ईश्वर हमसे जो उम्मीद करते हैं उसे अच्छी तरह निभाना चाहिये। हमारी जिम्मेदारियों को हमें इसी दृष्टिकोण से देखना चाहिये।

अंत में एक और सच्चाई हमारे सामने आती है। वह यह है कि ईश्वर ही हमारे मटकों के पानी को अंगूरी में बदल सकते हैं। हम जितना भी प्रयत्न करें उन सभी प्रयत्नों के बावजूद भी हमें स्तोत्रकार का यह कथन याद करना चाहिये कि ‘‘यदि प्रभु ही घर नहीं बनाये तो राजमिस्त्रियों का श्रम व्यर्थ है। यदि प्रभु ही नगर की रक्षा नहीं करें तो पहरेदार व्यर्थ जागते हैं’’ (स्तोत्र 127:1)। अगर प्रभु पानी को अंगूरी में नहीं बदलता तो हमारे मटकें भरने का परिश्रम भी व्यर्थ है।


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