Smiley face

चक्र स -19. वर्ष का सातवाँ इतवार

1 समूएल 26:2, 7-9, 12-13, 22-23; 1 कुरिन्थियों 15:45-49; लूकस 6:27-38

(फादर लैन्सी फेर्नान्डिस)


कई बार हम देखते हैं कि एक देश द्वारा दूसरे देश पर किये गये सैनिक आक्रमण को इस आधार पर न्यायसंगत ठहराया जाता है कि आक्रमणकारी देश पर आंतकवाद का खतरा था। अमेरिका ने भी इस तर्क को आधार बनाकर दो बड़े सैनिक आक्रमण अफगानिस्तान एवं इराक पर किये। दुर्भाग्य से ये लड़ाईयाँ एक तथाकथित ख्रीस्तीय राष्ट्र द्वारा, उसके ख्रीस्तीय नेता द्वारा तथा अन्य ख्रीस्तीय महाशक्तियों की सहायता से लड़ी गयी थी। यह हम ख्रीस्तीय और उससे भी बढ़कर क्रूसित प्रभु के लिये अपमान की बात है।

लड़ाई की इसी तरह की पृष्ठभूमि को हम आज के पहले पाठ में पाते हैं। साऊल अपने राजा के पद के लिये दाऊद को एक चुनौती के रूप में देखता है। इसलिये वह दाऊद को मार डालने के लिये एक योजना बनाता है। एक मामूली-सा झगड़ा बड़ी लड़ाई का रूप धारण कर लेता है। वही दाऊद को देखिए, वह भी उसी ईश्वर में विश्वास करता है जिसमें साऊल; उसकी भी उसी धर्म एवं संहिता में आस्था है जिसमें साऊल की। लेकिन शत्रु के प्रति दोनों के दृष्टिकोण में जमीन-आसमान का फ़रक़ है।

परमशक्तिशाली ईश्वर साऊल को दाऊद के अधिकार में ला देता है। यह अब दाऊद पर निर्भर करता है कि वह उसे मारे या छोड़े। दाऊद के सभी साथियों का यही विचार है कि साऊल का सर उड़ा दिया जाये; इस खेल को यही खत्म कर दिया जाये; विजय हमारी है। लेकिन दाऊद उनसे अलग हटकर सोचता है और उसके विचार कहीं ऊँचे और श्रेष्ठ हैं ‘‘मैं ईश्वर द्वारा अभिषिक्त पर अपना हाथ नहीं डालूँगा।’’ हमारे लिये, हम में से अधिकांश के लिये एक शत्रु केवल एक शत्रु मात्र है। हम यह नहीं सोचते कि अन्य व्यक्ति भी ईश्वर द्वारा चुना हुआ एवं प्रेम का पात्र है। मैं नहीं समझता कि हमारे ख्रीस्तीय समुदाय में ऐसा एक भी व्यक्ति होगा जिसका कोई शत्रु या विरोधी न हो। शत्रु से यहाँ यह तात्पर्य नहीं है कि कोई ऐसा व्यक्ति जो हमें मार डालना चाहता हो या हम उसे। लेकिन ऐसा व्यक्ति जिसे हम पसंद नहीं करते हैं या जो हमें पसंद नहीं करता और हमारे कामों में बाधा डालता हो।

किसी स्कूल के टीचरों के समूह में इस बात के पर्याप्त उदाहरण मिल सकते हैं। या तो कोई खुद ही किसी दुर्भावना से प्रेरित होकर अपने शिक्षक साथी के विरुद्ध अफवाह फैलाता है, या फिर किसी दूसरे द्वारा उड़ाई गयी अफवाह का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करता है। वह यह सब इसलिये करता है जिससे उसे फायदा पहुँचे, चाहे वह अधिक वेतन पाना हो या फिर स्टॉंफ में अपना कद ऊँचा करना हो।

लगभग ऐसी ही स्थिति हर दफ्तर या काम की जगह पर है। केवल इसलिये कि मुझे अच्छा पद, अधिक वेतन, उज्ज्वल भविष्य चाहिये और मैं अपने विरोधियों के विरुद्ध लड़ने पर उतारू हो जाता हूँ। और ये मेरे शत्रु कौन हैं ? हर एक व्यक्ति जो मुझसे बेहतर है, मेरा शत्रु है। नफ़रत, ईष्या की भावना मेरे अंदर शीत युद्ध को जन्म देती है। कोई भी मनुष्य इस तरह की भावना से मुक्त नही है। लेकिन ख्रीस्तीयों की बुलाहट कुछ अलग तरह के व्यवहार करने को प्रेरित करती है। संत पौलुस इस विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यह हर व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह चाहे तो मिट्टी के मानव के समान जीये और कार्य करे या फिर स्वर्ग के मानव के भांति जीवन बिताये। हमारे समाज में कुछ ऐसे व्यवहार अनैतिक, अमानवीय एवं असैंद्धांतिक माने जाते हैं जैसे ईष्या, लालच, घृणा आदि। ये बुराईयाँ हमेशा हर एक व्यक्ति में अलग-अलग रूप एवं मात्रा में पायी जाती हैं। जबकि इसके विपरीत ‘‘स्वर्ग का मानव’’ हमें एक ही बात सिखाता है, वह है, ‘प्रेम’। प्रेम की शक्ति मिट्टी के मानव को शुद्ध कर सकती है तथा उसे दुर्भावनाओं से मुक्त कर मनुष्य में स्वर्गिक मानव की छवि बनाती है।

हममें से हर एक को अपने आप से पूछना चाहिये, ‘‘मेरे अंदर किसकी छवि है’’? बपतिस्मा संस्कार में स्वर्ग के मानव की छवि हमारे अंदर नवीनीकृत रूप से छापी गयी थी लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया किसकी छवि उभर आयी है?’’ मिट्टी के मानव की जो दूसरों को नीचा दिखाने, लोगों के बीच मतभेद लाने तथा हानि पहुँचाने की ताक में रहता है या स्वर्ग के मानव की जो प्यार करना ही जानते है ?

मैं क्लिफ्टन फदीमान की एक छोटी सी कहानी से इसका अंत करना चाहूँगा। अमेरिका में गृहयुद्ध के दौरान अब्राहम लिंकन ने एक सरकारी कार्यक्रम के अवसर पर दक्षिण के विद्रोहियों को शत्रु न कहकर केवल ‘भटके हुये लोग’ बताया। एक बुजुर्ग महिला, जो कट्टर देशभक्त थी, ने लिंकन को लगभग डाँटते हुए कहा कि उन्होंने शत्रुओं को नष्ट करने के बजाय उनके लिये उदार शब्दों का प्रयोग क्यों किया? लिंकन ने उत्तर दिया ‘‘क्या जब हम अपने शत्रुओं को मित्र बना लेते हैं, तो क्या हम वास्तव में शत्रुओं को नष्ट नहीं करते?’’ मैं समझता हूँ कि आज के सुसमाचार का भी लगभग यही सन्देश है। हम शत्रुता को शत्रुता से नहीं हरा सकते हैं। प्रभु हमें सिखाते है कि अपने शत्रुओं के साथ भी उदारता का व्यवहार करें, क्षमा प्रदान करें, उनकी भलाई के लिये प्रार्थना करें।

एक जापानी कहावत है ‘‘शैतान को नष्ट करते समय हमें यह सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि ऐसा करते-करते हम भी वैसे ही नहीं बन जायें।’’ यह हमेशा एक खतरा है कि शत्रुओं केे विरुद्ध कार्य करते-करते हम उनसे भी ज्यादा बुरे बन सकते हैं। आइए हम शत्रु-प्रेम का सबक अपने प्रभु येसु से सीखें और उन्हीं के समान शत्रुओं के लिए प्रार्थना करें और उनकी भलाई की कामना करें।


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Praise the Lord!