Francis Scaria

चक्र स - खजूर इतवार

इसायाह 50:4-7; फ़िलिप्पियों 2:6-11; जुलूसः लूकस 19:28-40; मिस्साः लूकस 22:14-23

फादर फ्रांसिस स्करिया


संत लूकस के सुसमाचार के अनुसार जब प्रभु येसु जैतून नामक पहाड़ के समीप-बेथफ़गे और बेथानिया के निकट पहुँचे, तब उनके कहे अनुसार उनके दो शिष्य सामने के गाँव जा कर एक बछेड़े को खोल कर उनके पास ले आये और उस बछेड़े पर अपने कपड़े बिछा कर उन्होंने प्रभु को उस पर चढ़ाया। ज्यों-ज्यों प्रभु आगे बढ़ते जा रहे थे, लोग रास्ते पर अपने कपड़े बिछाते जा रहे थे। जब वे जैतून पहाड़ की ढाल पर पहुँचे, तो पूरा शिष्य-समुदाय आनंदविभोर हो कर आँखों देखे सब चमत्कारों के लिए ऊँचे स्वर से इस प्रकार ईश्वर की स्तुति करने लगा - धन्य हैं वह राजा, जो प्रभु के नाम पर आते हैं! स्वर्ग में शान्ति! सर्वोच्च स्वर्ग में महिमा! जब कुछ फ़रीसियों ने प्रभु से कहा, "गुरूवर! अपने शिष्यों को डाँटिए" तब उन्हें डाँटने के बजाय प्रभु ने उत्तर दिया, "मैं तुम से कहता हूँ, यदि वे चुप रहें, तो पत्थर ही बोल उठेंगे"। इस प्रकार बडे प्रताप के साथ एक राजा के रूप में प्रभु येसु येरूसालेम शहर में प्रवेश करते हैं। सुसमाचार से इस घटनाक्रम का विवरण आज की धर्मविधि की शुरूआत में खजूर की डालियों की आशिष के समय पढा जाता है। इस पाठ के पश्चात हम जुलूस में गिर्जाघर में प्रवेश करते हैं। लेकिन गिरजाघर में प्रवेश करने के बाद माहौल बदल जाता है। वातावरण अचानक शोकमय बन जाता है।

आज की धर्मविधि की एक विशेषता यह है कि इसके अन्तरगत सुसमाचार के दो पाठ पढे जाते हैं। जुलूस के पहले पढे जाने वाले पाठ के अलावा, मिस्सा बलिदान के समय प्रभु येसु के दुखभोग का पाठ सुसमाचार से पढा जाता है। प्रथम सुसमाचारीय पाठ में जो लोग प्रभु येसु के जय-जयकार कर रहे थे, वे ही लोग इस समय “इसे क्रूस दीजिए, इसे क्रूस दीजिए” चिल्लाते हैं। जब हम प्रभु येसु के सार्वजनिक जीवन को देखते हैं, तब हमें यह पता चलता है कि उन्हें कभी भी हार नहीं माननी पडी। वे शास्त्रियों और फरीसियों को भी चुनौती देकर, उनके मुँह बन्द करके आगे बढ़ते हैं। उनकी बातें सुन कर और उनके कार्यों को देख कर लोग अचम्भे में पड़ जाते हैं। एक बार ऐसा भी हुआ कि लोग उन्हें नगर से बाहर निकाल कर, उनका नगर जिस पहाड़ी पर बसा हुआ था, उन्हें नीचे गिराने के लिए उसकी चोटी तक ले गये, परन्तु वे उनके बीच से निकल कर चले गये। वे उनकी पकड में नहीं आये।

लेकिन अपनी प्राणपीडा के समय वे बहुत ही निस्सहाय दिखते हैं। लोग उन पर थूकते हैं, उनको पीटते और घसीटते हैं, उनकी हँसी उड़ाते हैं। राजओं के राजा होने के बावजूद भी संसार के राजाओं के सामने चुपचाप खडे होकर उनका दिया हुआ दण्ड स्वीकार करते हैं। इन सब घटनाक्रम को हम कैसे समझ पायेंगे? क्या सचमुच वे बलहीन हो गये? क्या वे वास्तव में निस्सहाय हैं? हरगिज नहीं! ------

मसीह का दुखभोग एक ’बेचारे’ या ’डरपोक’ की कहानी नहीं है, बल्कि एक वीरगाथा है। वे स्वयं कहते हैं, “मैं भेड़ों के लिए अपना जीवन अर्पित करता हूँ। .... पिता मुझे इसलिए प्यार करता है कि मैं अपना जीवन अर्पित करता हूँ; बाद में मैं उसे फिर ग्रहण करूँगा। कोई मुझ से मेरा जीवन नहीं हर सकता; मैं स्वयं उसे अर्पित करता हूँ। मुझे अपना जीवन अर्पित करने और उसे फिर ग्रहण करने का अधिकार है। मुझे अपने पिता की ओर से यह आदेश मिला है।" (योहन 10:15,17-18) हम सब के पापों से हमें बचाने के लिए हमारे भले गडरिये ने अपने जीवन की कुर्बानी दी हैं।

कई बार हम सोचते हैं कि गाली देने वाले के सामने चुप रहना दुर्बलता की बात है, हमारे एक गाल पर थप्पड मारने वाले के सामने दूसरा गाल भी बताना हमारी कमजोरी है, मारने वालों के सामने अपनी पीठ करना हार मानने का लक्षण है, दाढ़ी नोचने वालों के सामने अपना गाल करना हमारी शक्तिहीनता को दर्शाता है तथा अपमान करने और थूकने वालों से अपना मुख नहीं छिप़ाना असीम निर्बलता का संकेत है। परन्तु जब हमें पता चलता है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ही इस प्रकार का व्यवहार कर रहे हैं, तब हम एक महान रहस्य का अनुभव करने लगते हैं। प्रभु येसु अपने जीवन और मृत्यु से हमें एक नयी संस्कृति को अपनाने की चुनौती देते हैं। इस चुनौती को वे ही लोग समझ पाते हैं जो अपनी निगाह इस दुनिया की सीमाओं से ऊपर उठा सकते हैं। इस दुनिया के मूल्य स्वर्गराज्य के मूल्य के बिलकुल विपरीत है। इसलिए प्रभु येसु आशीर्वचनों में दीन-हीनों, विनम्र लोगों, शोक करने वालों, धार्मिकता के भूखे और प्यासों, दयालुओं, निर्मल हृदय वालों, मेल कराने वालों तथा धार्मिकता के कारण अत्याचार सहने वालों को धन्य घोषित करते हैं और उन्हें स्वर्गराज्य प्रदान करने का वादा करते हैं। प्रभु येसु के पद्चिन्हों पर चल कर असीसी के संत फ्रांसिस ने प्रार्थना की – “ओ स्वामी, मुझको ये वर दे कि मैं सांत्वना पाने की आशा न करुँ, सांत्वना देता रहूँ। समझा जाने की आशा न करुँ, समझता ही रहूँ। प्यार पाने की आशा न रखूँ प्यार देता ही रहूँ। त्याग के द्वारा ही प्राप्ति होती है। क्षमा के द्वारा ही क्षमा मिलती है। मृत्यु के द्वारा ही अनन्त जीवन मिलता है।”

आज की पूजन-विधि हमें स्वर्गराज्य के रहस्यों को समझने तथा उन्हें हृदय से ग्रहण करने का निमंत्रण देती है।


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Praise the Lord!