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चक्र स - पास्का का दूसरा इतवार - दिव्य दया इतवार

प्रेरित चरित 5:12-16; प्रकाशना 1:9-11अ,12-13,17-19; योहन 20:19-31

फादर फ्रांसिस स्करिया


प्रभु येसु के पुनरुत्थान और पवित्र आत्मा के आगमन के बाद प्रभु के बारह शिष्य सुसमाचार सुनाने के लिए निकलते हैं। मैं समझता हूँ कि कलीसिया की ओर से आधिकारिक रीति से सुसमाचार सुनाने के लिए कुछ शर्तें हैं।

(1) येसु का अनुभव करना :- बारह शिष्यों के लिए यह जरूरी था कि उन्हें येसु की शिक्षा मिली हो। यूदस इसकारियोती की जगह पर एक व्यक्ति को नियुक्त करने हेतु जो शर्त रखी गया थी, वह इसी से संबंधित था। “इसलिए उचित है कि जितने समय तक प्रभु ईसा हमारे बीच रहे, अर्थात् योहन के बपतिस्मा से ले कर प्रभु के स्वर्गारोहण तक जो लोग बराबर हमारे साथ थे, उन में से एक हमारे साथ प्रभु के पुनरुत्थान का साक्षी बनें।” (प्रेरित-चरित 1:21-22) इसी कारण सभी शिष्य अपनी विश्वसनीयता का प्रमाण देते समय येसु का अनुभव करने का दावा करते हैं। (देखिए 1 योहन 1:1-3; 1 पेत्रुस 1:16-18)। आज का सुसमाचार भी इसी से संबंधित है। आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि जब पुनर्जीवित प्रभु येसु ने प्रेरितों को दर्शन दिया तब संत थॉमस उनके साथ नहीं थे। जब उनको बताया गया कि शिष्यों ने पुनर्जीवित प्रभु का दर्शन किया तब उन्होंने उनसे कहा, "जब तक मैं उनके हाथों में कीलों का निशान न देख लूँ, कीलों की जगह पर अपनी उँगली न रख दूँ और उनकी बगल में अपना हाथ न डाल दूँ, तब तक मैं विश्वास नहीं करूँगा” (योहन 20:25)। संत थॉमस के लिए पुनर्जीवित प्रभु को देखना और उनका स्पर्श करना उतना ही ज़रूरी था जितना संत पेत्रुस और संत योहन के लिए। यह एक बहुत ही दिलचस्प बात है कि पुनर्जीवित येसु ने जब लोगों को दर्शन दिया, तब उनके शरीर में उनके घावों के निशान थे। पुनरुत्थान एक विजय है, सब से बडी विजय है। फिर भी उस विजय में घावों के निशान चमकते हैं। पुनरुत्थान के समय हमें दुख-भोग तथा क्रूस मरण को नहीं भूलना चाहिए। इसी प्रकार पुण्य शुक्रवार तभी हम सार्थक रूप से मना सकेंगे जब हमारे अन्तरतम में पुनरुत्थान की आशा प्रकट हो।

(2) येसु की शिक्षा सुनना, समझना और स्वीकार करना :- शिष्यों के लिए प्रभु येसु की शिक्षा सुनना, समझना और ग्रहण करना भी ज़रूरी था। हम देखते हैं कि प्रभु गाँव-गाँव, शहर-शहर घूम कर स्वर्गराज्य की शिक्षा देते रहते थे। जहाँ भी वे जाते हैं, वे प्रवचन देते रहते हैं। इसके अलावा वे शिष्यों को अलग से समझाते, उनके सवालों के जवाब देते तथा उनके सन्देहों को दूर भी करते थे। इस प्रकार स्वर्गराज्य के रहस्यों को समझना शिष्यों के लिए ज़रूरी था।

(3) येसु के द्वारा अधिकार के साथ नियुक्त किये जाना :- उपरोक्त दोनों के शर्तों के अलावा, येसु स्वयं उन्हें अधिकार देकर भेजते थे। स्वर्गारोहण के पहले प्रभु येसु अपने शिष्यों को अधिकार के साथ भेजते हुए कहते हैं। “मुझे स्वर्ग में और पृथ्वी पर पूरा अधिकार मिला है। इसलिए तुम लोग जा कर सब राष्ट्रों को शिष्य बनाओ और उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम पर बपतिस्मा दो। मैंने तुम्हें जो-जो आदेश दिये हैं, तुम-लोग उनका पालन करना उन्हें सिखलाओ और याद रखो- मैं संसार के अन्त तक सदा तुम्हारे साथ हूँ।“ (मत्ती 28:18-20) प्रभु उन्हें आदेश के साथ अधिकार भी देते हैं।

(4) पवित्र आत्मा को ग्रहण करना :- ऊपर दिये गये तीनों शर्तों के पूरे होने के बावजूद भी शिष्य सुसमाचार के प्रचार के कार्य के लिए सक्षम नहीं माने जाते हैं। प्रभु बारहों को शिक्षा और अधिकार देने के बाद उनसे कहते हैं कि वे सुसमाचार सुनाने हेतु येरूसालेम तब तक न छोड़ें जब तक उन्हें प्रतिज्ञात पवित्र आत्मा, ऊपर की शक्ति प्राप्त न हो। (देखिए लूकस 24:49; प्रेरित-चरित 1:4)। इसलिए वे पेन्तेकोस्त के दिन तक अटारी में एक साथ प्रार्थना कर पवित्र आत्मा की प्रतीक्षा करते हैं। पवित्र आत्मा के आगमन के बाद ही वे सुसमाचार सुनाने निकलते हैं।

आज हम दिव्य दया का त्योहार मना रहे हैं। जिसे पाने का हमारा हक है या अधिकार है, उसे पाना ’न्याय’ कहा जाता है, परन्तु जिसे पाने का हमारा हक या अधिकार नहीं है, जिसे पाने के लिए हम योग्य नहीं है, उसे पाना ’दया’ कहा जाता है। ईश्वर के सामने हम कुछ भी पाने के लिए योग्य नहीं है, फिर भी प्रभु ईश्वर दया से द्रवित होकर हमें बहुत कुछ प्रदान करते हैं। सन्त फौस्तीना कोवालस्का के द्वारा प्राप्त आध्यात्मिक प्रेरणा से पापा संत योहन पौलुस द्वितीय ने पास्का इतवार के बाद वाले इतवार को “दिव्य दया इतवार” (Divine Mercy Sunday) के रूप में मनाने का आह्वान किया। इस दिन विश्वासी गण प्रभु येसु के दुख-भोग तथा क्रूस मरण को स्मरण कर ईश्वर की दया के लिए प्रार्थना करते हैं। आईए, हम भी इस अवसर अपने लिए तथा सारी मानव-जाति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें।


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