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चक्र स - 40. वर्ष का नौवाँ इतवार

1 राजाओं 8:41-43; गलातियों 1:1-2, 6-10; लूकस 7:1-10

(फादर ईश्वरदास मिंज)


कितनी शताब्दियाँ बीत गई, सबों ने यही अनुभव किया है कि मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर एवं अनिश्चित है। आज जबकि मानव जाति ने बहुत ही उन्नति कर ली है फिर भी वह बहुत सारी चीजों के सामने अपने आप को शक्तिहीन महसूस करती है। जैसे प्राकृतिक आपदाएँ, कुछ बीमारियाँ, मृत्यु आदि। इन्हें मनुष्य नहीं जीत पाया है। यही कारण है कि मनुष्य अपने आप में ईश्वर की ज़रूरत महसूस करता है। वह ईश्वर की ज़रूरत मुसीबत के समय सबसे अधिक महसूस करता है। लोग भिन्न-भिन्न पवित्र जगहों, तीर्थ स्थानों, करिश्माई प्रार्थना केन्द्रों आदि का भ्रमण करते हैं। अन्त में वे अनुभव करते हैं कि केवल ईश्वर ही हमारी मदद कर सकता है। ईश्वर कहाँ मिलेंगे? हमारी आवश्यकताओं से उन्हें कैसे अवगत कराएं? पुराने ज़माने में लोगों ने सोचा कि ईश्वर ऊँचे आकाश में बसते हैं, इसलिये उन्होंने पहाड़ों एवं पर्वतों की ऊँचाईयों में पूजा पाठ की जगह बनाई ताकि ईश्वर उस जगह में उतरकर वास करें और जब मनुष्य को कुछ भी ज़रूरत पड़े तो वह सहज ही ईश्वर के पास अपनी ज़रूरतों के साथ पहुँच सकें।

मध्य पूर्व देशों में जिसे हम ’द मिडिल ईस्ट’ कहते हैं, कई जातियों के लोग रहा करते थे, उनमें इस्राएली लोग भी थे। इस्राएली कई जातियों में से ईश्वर में विश्वास को बनाये रखने और आने वाले मसीह का मार्ग तैयार करने के लिए ईश्वर द्वारा विषेष रीति से चुने गये थे। कई चमत्कारों द्वारा ईश्वर ने उन्हें मिस्र के राजा फिराउन की गुलामी से छुड़ाया, लाल समुद्र पार कराया, पूरी यात्रा में उन्हें संभाला एवं मार्गदर्शन कर अंत में प्रतिज्ञात देश पहुँचाया। ईश्वर मनुष्य पर कितना ध्यान देते हैं! उन्होंने इस्राएलियों के जीवन पर पूरा-पूरा ध्यान दिया, यहाँ तक कि उन्हें मूसा के द्वारा पूजा करने के तौर-तरीके को भी बारीकी से सिखाया ताकि वे मूर्ति पूजक न बनें।

लाल समुद्र पार करने के पश्चात् ईश्वर ने मूसा को एक छोटी सी मंजूषा बनाकर उसे सोने से ढ़क देने को कहा। मंजूषा के ऊपर सोने की पट्टी लगी थी जिसे ‘दया का सिंहासन’ कहा गया। उस सिंहासन के दोनों ओर सोने के बने दो दूत सिंहासन पर अपने पंख फैलाए हुए थे। फिर ईश्वर ने मूसा को एक तंबू बनाने की आज्ञा दी ताकि लोग उस मंजूषा के सामने पूजा के लिए इकट्ठा हो सकें। उस तम्बू का नाम ’द टेन्ट ऑफ द मीटिंग’ कहलाया। तब ईश्वर ने मूसा के भाई हारून को मुख्य पुरोहित के रूप में चुना। जिस दिन मंजूषा और तम्बू ईश्वर के लिए समर्पित किये गये, उस दिन एक बादल ने कोहरे के रूप में उस तम्बू को ढक लिया। यही ईश्वर की ओर से संकेत था कि ईश्वर ने उनकी मंजूषा एवं तम्बू को स्वीकार कर लिया है। मंजूषा और तम्बू दोनों ही ऐसे बने थे कि प्रतिज्ञात देश पहुँचने तक मरुस्थलों में यात्रा के समय उन्हें सहज ही एक स्थान से दूसरे स्थान ढोकर ले जाया जा सकता था। प्रतिज्ञात देश पहुँच जाने पर सब लोग जहाँ पर मंजूषा रखी गयी थी वहीं तीर्थ एवं पूजा के लिए जाया करते थे।

प्रतिज्ञात देश पहुँचने के बाद जब राजा दाऊद इस्राएलियों पर शासन कर रहे थे, तो उन्होंने येरूसालेम पर विजय प्राप्त की और उसे अपनी राज्य की राजधानी बनाया। दाऊद एक बहुत ही भक्त पुरूष था और इसलिये उसने तम्बू को रखने के लिए स्थाई रूप से मंदिर बनाने की योजना बनायी। दाऊद की योजना उसके आध्यात्मिक गुरू एवं मार्गदर्शक नबी नातान को अच्छी लगी और उसने दाऊद को उसकी योजना के अनुसार आगे बढ़ने को कहा। किन्तु ईश्वर ने नातान से कहा कि मंदिर का निर्माण दाऊद नहीं, बल्कि उसका बेटा सुलेमान करेगा।

दाऊद की मृत्यु के बाद उसका बेटा सुलेमान उसकी गद्दी पर बैठा और उसने येरूसालेम की सबसे ऊँची चोटी पर मंदिर का निर्माण किया। मंदिर प्रचुरता से सजाया गया था और वह मंदिर उस समय का सबसे सुन्दर मंदिर था। जिस दिन मंदिर को ईश्वर के लिए समर्पित किया गया था, उसी दिन फिर से ईश्वर ने एक घने बादल के रूप में मंदिर को ढक लिया जैसे कि पहले मरुस्थल में मंजूषा एवं तंबू को ईश्वर के लिए समर्पित करने पर हुआ था। इस आश्चर्यजनक दृश्य को देखकर सुलेमान अत्यंत खुश हुआ और तब उसने कहा, ‘’प्रभु ने अन्धकारमय बादल में रहने का निश्चय किया है। मैंने तेरे लिए एक भव्य निवास का निर्माण किया है। एक ऐसा मंदिर जहाँ तू सदा के लिए निवास करेगा।’’

ऐसा सोचकर कि नवनिर्मित मंदिर से ईश्वर खुश है, सुलेमान ने ईश्वर के लिए एक लंबी प्रार्थना चढ़ाई। उसके कुछ अंश आज के पहले पाठ में दिये गये है। ’’यदि कोई परदेशी जो तेरी प्रजा का सदस्य नहीं है, तेरे नाम के कारण दूर देश से आये - क्योंकि लोग तेरे महान नाम, तेरे शक्तिशाली हाथ तथा समर्थ बाहुबल की चरचा करेंगे - यदि वह इस मंदिर में विनती करने आये तो तू अपने निवास स्थान स्वर्ग में उसकी प्रार्थना सुन और जो कुछ परदेशी माँगे उसे दे दे। इस प्रकार पृथ्वी के सभी राष्ट्र तेरी प्रजा इसाएल की तरह, तेरा नाम जान जाएंगे, तुझ पर श्रद्धा रखेंगे और यह समझ जायेंगे कि यह मंदिर, जिसे मैंने बनवाया है, तेरे नाम को समर्पित है।’’

उन दिनों लोगों का यह विचार था कि हर समुदाय, हर देश को अपनी आवश्यकताएं पूरी करने एवं वहाँ के लोगों को लाभान्वित होने के लिए अपने-अपने ईश्वर की ज़रूरत है जिस ईश्वर का वर्चस्व केवल उस देश की सीमा तक ही सीमित होता था। यही एक कारण था, जब एक व्यक्ति अपने देश से दूसरे देश जाता था और नई जगह में निवास करने लग जाता था, तो वह तुरन्त ही वहाँ के ईश्वर की पूजा करने लग जाता था। किन्तु आज के पाठ में हम देखते हैं कि सुलेमान अपने राज्य से बाहर तक ईश्वर की महिमा को फैलाने के लिए उत्सुक एवं व्याकुल था। जैसे-जैसे समय बीतता गया अलग-अलग नबियों का आगमन होता गया और सब नबियों ने यही भविष्यवाणी की कि एक समय आयेगा जब सब मानव जाति एकमात्र प्रभु ईश्वर की ओर लौट आयेगी।

येरूसालेम मंदिर जिसे सुलेमान के बनवाने के बाद चार साल भी नहीं गुजरे थे कि इसका विनाश कर दिया गया। फिर इसका पुनः निर्माण किया गया किन्तु यह पहले की तुलना में बहुत कम सुन्दर था। नबियों के कथन के अनुसार राजा हेरोद के समय येसु खीस्त का आगमन हो गया और तब तक यहूदी लोग सुलेमान के द्वारा सिखाये गये पाठों को भूल गये। उनका विचार था कि केवल वही लोग ईश्वर के चुने हुए लोग हैं इसलिये उन्होंने दूसरे लोगों को मंदिर में प्रवेश करने से इनकार कर दिया। यहूदी सोचते थे कि वे मंदिर में पूजा करते हैं इसलिये उनकी प्रार्थना सुनी जाएगी और उन्हें ही मुक्ति मिलेगी। किन्तु प्रभु येसु मसीह यहूदियों की पूजा के बारे में इस खोखले विचार का खण्डन करते हुए समझाते हैं कि ईश्वर को कोई भी एक स्थान पर बांधकर नहीं रख सकता है। येसु ने समारी स्त्री से कहा ‘‘नारी मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि वह समय आ रहा है जब तुम लोग न तो इस पहाड़ पर पिता की आराधना करोगे और न येरूसालेम में ही’’ (योहन 4:21)। ईश्वर की पूजा कहीं पर भी किसी के भी द्वारा हो सकती है बशर्त कि वह नम्रता से उनकी खोज करे। सबके सब अयोग्य हैं किन्तु ईश्वर उसे स्वीकार करेंगे जो अपनी अयोग्यता को जानते हुए उनके पास आता है। कोई ईश्वर पर अपना हक नहीं जमा सकता है। किसी को भी अपनी प्रार्थना सुनवाने का अधिकार नहीं है। किन्तु सबके सब ईश्वर के कृपा पात्र बन सकते हैं यदि वे अपनी अपनी अयोग्यताओं से अवगत होकर नम्रता के साथ ईश्वर के पास जाएं।

शतपति की प्रार्थना द्वारा ईश्वर के पास पहुँचने का पूर्ण एवं आदर्श उदाहरण है जिसका विवरण आज के सुसमाचार में दिया गया है। उस शतपति की प्रार्थना में दम था, उसकी प्रार्थना प्रभावशाली थी। उसकी प्रार्थना का सकारात्मक जवाब मिला, अर्थात उसकी प्रार्थना सुनी गई। क्यों? शतपति येसु के पास सीधा नहीं गया और अपने घर आने का निमंत्रण नहीं दिया। क्यों? क्या वह येसु से डरता था? नही, उसने ऐसा इसलिए किया कि वह अच्छी तरह जानता था कि वह येसु से मिलने के लायक भी नहीं था।

शतपति सहज ही उस बीमार नौकर की जगह दूसरा नौकर बदल सकता था। किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। क्यों? क्योंकि वह उससे प्यार करता था; उसने उस बीमार नौकर के लिए इस प्रकार अनुनय-विनय किया मानों नौकर उसका अपना बेटा था। येसु ने स्वयं देखा कि उस व्यक्ति का विश्वास बहुत गहरा है। उसके विश्वास को येसु खीस्त ने अपने चेलों के विश्वास से अधिक मजबूत पाया। शतपति येसु से कहता है कि मुझे विश्वास है कि जिस तरह मेरे सिपाही मेरी आज्ञाओं का पालन करते हैं, ठीक उसी तरह यदि आप हुक्म करेंगे तो बीमारी और मृत्यु आपकी आज्ञा मानेंगी। आप बस इतना ही कह दीजिए कि मेरा नौकर चंगा हो जाए।

आइए, हम उस शतपति के विश्वास से प्रेरित होकर अपने कमज़ोर विश्वास को पक्का करने हेतु प्रभु ईश्वर की आशिष माँगें।


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