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चक्र स -50. वर्ष का उन्नीसवाँ इतवार

प्रज्ञा 18:6-9; इब्रानियों 11:1-2,18-19; या 11:1-2, 8-12; लूकस 12: 32-48 या 12:35-40

(फादर रोनाल्ड करडोज़ा)


आज का पहला पाठ बताता है कि जब यहूदी लोग मिस्र में दुख तकलीफ में थे तब किस तरह से ईश्वर उनकी मदद के लिये आते हैं। जो लोग ईश्वर में अपना विश्वास रखते हैं वे कभी निराश नहीं होते हैं। दूसरा पाठ हमें उस महान विश्वास के बारे में बताता है जो ईश्वर में इब्राहिम का था।

येसु कुछ स्पष्ट तथा रोचक दृष्टांतो द्वारा शिष्यों को सिखाते हैं कि उनका आचरण इस तरह का होना चाहिये जिससे वे सदा ईश्वर के निकट बने रहें तथा जब न्याय का समय आये तब ईश्वर के साथ दिखाई दे। पेत्रुस के द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर में येसु कहते हैं कि उन लोगों से अधिक की आशा की जाती जिन्होंने अन्यों की अपेक्षा ईश्वर से अधिक वरदान पाये हैं।

प्रज्ञा ग्रंथ से लिये गये पाठ के द्वारा आज कलीसिया हमें उन बातों की याद दिलाती है जो ईश्वर की हैं। सृष्टि की रचना के पहले से ही ईश्वर ने यह विचार एवं योजना तैयार की कि किस तरह से हम उनकी दिव्य शक्ति के सहभागी हो सकें। यह कार्य उन्होंने अपने पुत्र के मानव बनने के द्वारा पूरा किया। येसु हमारी मानवता ग्रहण करते हैं एवं हम उनकी दिव्यता में भाग लेते हैं। संसार को अपने पुत्र को ग्रहण करने के लिये तैयार करने में ’चुनी हुई प्रजा‘ का इतिहास शामिल है। मिस्र से लोगों का निर्गमन इस इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण भाग था तथा आने वाली घटना का पूर्वाभास भी। हम निर्गमन तथा पास्का पर्व को कभी नहीं भूल सकते जो सभी भविष्यवाणियों के पूर्ण होने की याद दिलाता है। लेकिन यह एक महत्वपूर्ण घटना मात्र नहीं, बल्कि मानव एवं ईश्वर के रिश्तों में एक नया मोड़ भी था। अब हम स्वर्ग के स्वतंत्र लोग हैं तथा ईश्वर के असीम प्रेम के कारण प्रतिज्ञात देश हमारी पहुँच में है। इस प्रतिज्ञात देश, ’स्वर्ग’ में पहुँचने में बाधायें अवश्य हैं लेकिन येसु के नेतृत्व तथा ईश्वर की शक्ति में कोई भी अपने आप को इतना निर्बल या असहाय महसूस नहीं करता कि इन बाधाओं पर विजय न पा सकें। इब्रानियों के नाम पत्र का लेखक यह सिखाता है कि हमें येसु के नाम पर आने वाले सकंट एवं परीक्षा में दृढ़ तथा विश्वासी बने रहना चाहिये। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्वास यह आश्वासन दिलाता है कि वे सभी बातें भविष्य में पूरी होंगी जिनकी हम आशा करते हैं। विश्वास उन आने वाली युगान्त की बातों के बारे में प्रमाण भी देता है जो अभी तक प्रकट नहीं हुई हैं।

विश्वास एक नैतिक गुण होने के नाते ख्रीस्तीयों को ख्रीस्तीय समुदाय में बने रहने का धैर्य प्रदान करता है। विश्वासी होने का मतलब ख्रीस्तीय आशा में बने रहना है। आज के पाठ इब्राहिम के विश्वास की व्याख्या करते हैं, वह विश्वास जिसकी अभिव्यक्ति आज्ञापालन तथा त्याग द्वारा होती है। यह विश्वास वह ईश्वरीय वादा है जो प्रतिज्ञात देश तथा इब्राहिम के अनगिनित वंशजों के बारे में बताता है।

संत लूकस के सुसमाचार का दृष्टांत उस ख्रीस्तीय समुदाय के लिये था जो येसु के दुबारा आगमन की राह देख रहे थे। उनका यह विचार था कि येसु जल्दी ही पुनः आयेंगे। येसु के पुनरागमन में देरी हो रही थी। उन्हें क्या करना चाहिये था? द्वारपाल, सेवकों का घराना बन गया था जिसे द्वार खोलने का इंतजार करना था। येसु स्वामी हैं तथा उनका पुनरागमन स्वामी की वापसी हैं। येसु के पुनरागमन पर अगर ख्रीस्तीय समुदाय जागते, सजग तथा प्रतीक्षारत पाये जाते हैं तो येसु स्वयं उन्हें स्वर्गिक भोज में बैठाकर भोजन परोसेंगे। इसलिये ख्रीस्तीयों को सदैव सजग एवं चैकस बने रहना चाहिये।

यह दृष्टांत अप्रत्याशित चोर के दृष्टांत द्वारा आगे समझाया गया है। इन दोनों दृष्टांतों के उद्देश्य तथा श्रोतागण एक ही है। उन्हें इन दृष्टांतों के द्वारा चेताया जाता है कि अंतिम समय निकट आ रहा है तथा वे सुस्त एवं सोते हुये नहीं पाये जाये।

सुसमाचार में दी गयी प्रभु की शिक्षा हमें गंभीर तथा सजग बनानी चाहिये। उन्होंने हमें अपना बनाया है। वे हमें चेताते हुए बताते हैं कि हमें हमेशा अपनी बुलाहट के प्रति सजग एवं कार्यरत रहना चाहिये। हमें यह सदैव याद रखना चाहिये कि हम येसु के घराने के सदस्य है। अगर हम येसु के इस बुलावे को वास्तविक एवं सही रूप से समझ लें तो हमें आज के पाठों की चेतावनी का सही अर्थ समझ में आयेगा। हम ख्रीस्तीय हैं, उनकी कलीसिया के अंग हैं तथा हम अंनत भले के लिये आमंत्रित हैं।

इस संदर्भ में हमें अपने वास्तविक जीवन पर गंभीर रूप से गौर करना चाहिये। घर में, काम करने के स्थान में, मनोरंजन में, पास-पड़ोस के लोगों से मिलने-जुलने में, प्रार्थना में आदि अवसरों पर हमारे व्यवहार की विवेचना करनी चाहिये। यदि ईश्वर हम से कहे कि हम इस रात मरने वाले हैं तो हम अपने आप को कहाँ पायेंगे? ईश्वर हमें यह नहीं बतायेगा कि हम कब मरने वाले हैं। इसलिये हमें आज और इस क्षण से अपना जीवन व व्यवहार सुधारना होगा तथा सभी कामों को सही ढ़ंग से करना होगा। अगर हम ऐसा करेंगे तो हमें अपने न्याय के दिन की चिंता नहीं करनी पड़ेगी। ख्रीस्तीयों के लिये मृत्यु का समय वह समय होगा जब हम उत्तीर्ण होगें न कि परीक्षा देंगे।

किसी के लिए भी अपना काम खत्म कर मृत्यु के लिये तैयार करना संभव नहीं है। मृत्यु अधिकत्तर घुसपैठिये की तरह आती है। वह व्यक्ति के जीवन तथा योजना को अस्तव्यस्त कर देती है। मृत्यु जब उसकी बिलकुल भी आशा न हो तब आती है लेकिन मृत्यु का अर्थ स्वामी से मिलने का अवसर है जो स्वयं प्रभु है। यहाँ इस बात का कोई महत्व नहीं है कि जो कार्य हम करना चाहते थे, वह किया है या नहीं बल्कि महत्वपूर्ण बात यह है कि कितनी शिद्दत से हमने सेवा-भाव, गुणवत्ता, गहराई एवं प्रेम के साथ अपना संबंध येसु के साथ बनाया।

हम उस कृपा के लिये प्रार्थना करें जिससे जो चेतावनी सुसमाचार हमें देता है उसके अनुसार हम अपने जीवन में परिवर्तन ला सकें और ख्रीस्त से मिलने के लिये, चाहे वह जीवन में हो या मृत्यु में हमेशा तैयार रहें और उनका स्वागत खुशी के साथ कर सकें।


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