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चक्र स - 54. वर्ष का तेईसवाँ इतवार

प्रज्ञा 9:13-18ब; फिलेमोन 9-10,12-17; लूकस 14:25-33

(फादर फ्रांसिस स्करिया)


प्रभु येसु येरूसालेम की ओर जा रहे थे और उन्हंे बराबर ज्ञात था कि वहाँ पर क्रूस पर क्रूर मृत्यु उनका इन्तजार कर रही है। लेकिन उनके साथ चलनेवालों तथा उनकी बातें सुननेवालों का यह विचार था कि प्रभु येसु एक नये राष्ट्र की स्थापना करेंगे और एक प्रभावशाली राजा बन कर यश और कीर्ति अर्जित करेंगे। इसलिए प्रभु उन्हें खुले रूप से समझाते हैं कि उनकी अपनी यात्रा क्रूस की ओर है और जो उनका शिष्य बनना चाहता है उसे क्रूस को अपनाना होगा तथा प्रभु के पीछे-पीछे चलना होगा। इस दुनिया में खीस्त का नाम लेनेवाले तो अनगिनित हैं। लेकिन इनमें से कितने लोग उनके वास्तविक शिष्य हैं, यह सोचने की बात है!

सन्त योहन हमें समझाते हैं, ‘‘हम वचन से नही कर्म से, मुख से नही हृदय से एक दूसरे को प्यार करें‘‘ (योहन 3:18)। यही प्रभु येसु खीस्त के शिष्यत्व के बारे में भी कहा जा सकता है। बोल से कोई भी शिष्य नही बनता। जो शिष्य बनना चाहता है, वह सबसे पहले गुरु को खोजता है। योहन बपतिस्ता के शिष्य प्रभु येसु को देखकर पूछते हैं, ‘‘रब्बी! (अर्थात गुरुवर) आप कहाँ रहते हैं’’ (योहन 1:38)? साऊल प्रभु से पूछते है, ‘‘प्रभु आप कौन हैं’’ (प्रेरित-चरित 9:5)? समूएल ने प्रभु से कहा, ‘‘प्रभु, बोल, तेरा दास सुन रहा है’’ (1 समूएल 3:10)। गुरु को पहचानना षिष्य के लिये ज़रूरी है। इसके लिए शिष्य को इच्छुक बनना चाहिए। शिष्यत्व में आगे बढ़ने के लिए हमें साक्ष्य या प्रेरणा की ज़रूरत है। सन्त योहन बपतिस्ता प्रभु येसु की ओर इशारा करते हुए अपने शिष्यों से कहते हैं, ‘‘देखो ईश्वर का मेमना’’ (योहन 1:36)। एली ने समूएल को प्रभु की आवाज़ पहचानने में मदद की। इस प्रकार शिष्य बनने की हमारी चेष्टा में कई लोग हमें प्रभु को पहचानने में मदद करते हैं। जब कोई भी व्यक्ति शिष्य बनने का दृढ़संकल्प लेता है तो वह अपने अनुभव पर आधारित एक दृष्टिकोण अपनाता है। फिर वह सब कुछ उस दृष्टिकोण से देखने लगता है। वह प्रभु के संग जीवन बिताना सीखता है। उस समय वह प्रभु की इच्छा को समझने लगता है। उस पर ध्यान देने लगता है। उसे यह भी ज्ञात होता है कि प्रभु के शिष्यत्व की कौन-कौन सी माँगें हैं। पहली माँग तो यह है कि उसे अपने जीवन में प्रभु को पहला स्थान देना चाहिए। हर खीस्तीय को यह देखना होगा कि उसने अपने जीवन में प्रथम स्थान किस व्यक्ति, चीज़ या विचारधारा को दिया है। आज की दुनिया में कई लोग पैसे को प्रथम स्थान देते हैं। पैसे कमाने के लिए वे कुछ भी कर लेते हैं। कई लोग अपने पति या पत्नी को, माता-पिता को, बेटे-बेटी को, दोस्तों को, या नेताओं को प्रथम स्थान देते हैं। कुछ लोग अपने आप को प्रथम स्थान देकर स्वार्थी बन जाते हैं। जिस को हम प्रथम स्थान देते हैं, उसी से हम प्रभावित हो जाते हैं।

तुरन्त हमें यह भी याद करना चाहिए कि कथनी और करनी में बहुत अन्तर है। कई लोग मुख से तो कुछ बोलते हैं परन्तु जीवन में कुछ और देखने को मिलता है। ईश्वर की दस आज्ञाओं में पहली आज्ञा ईश्वर को प्रथम स्थान देने पर जोर देती है। जब शिष्य अपने गुरुदेव को प्रथम स्थान देने का दृढ़संकल्प लेता है, तो वह सब कुछ अपने गुरुदेव येसु के लिए अर्पित करता है। प्रथम विश्व महायुद्ध में एक फ्रांसीसी फौजी घायल हो गया था। उसके एक हाथ को इतनी चोट पहुँची थी कि डॉक्टरों को उसे काट देना पड़ा। ऑपरेशन के बाद जब वह होश में आया तो डॉक्टर ने उस फौजी से कहा, ‘‘मुझे खेद है कि आप को युद्ध में अपना एक हाथ खोना पड़ा’’। उस वीर योद्धा ने तुरन्त जवाब दिया, ‘‘मैंने खोया नहीं, बल्कि मैंने अपना हाथ फ्रांस के लिए दिया है’’। खीस्तीय बनने से हमसे हमारी खुशी छीनी नही जाती, किन्तु हम अनन्त आनन्द के लिए उसे अर्पित करते हैं। प्रभु ने अपने विषय में कहा था, ‘‘कोई मुझसे मेरा जीवन नही हर सकता, मैं स्वयं उसे अर्पित करता हूँ’’ (योहन 10:18)।

जो प्रभु के शिष्य बनकर उनके पीछे चलना चाहता है उसे अपना क्रूस उठाकर चलना होगा। उसके आगे-आगे चलनेवाले प्रभु ही उसका आश्वासन और साँत्वना है। इसलिए प्रवक्ता ग्रन्थ में कहा गया है, ‘‘पुत्र! यदि तुम प्रभु की सेवा करना चाहते हो, तो विपत्ति का सामना करने को तैयार हो जाओ। . . . विपत्ति के समय तुम्हारा जी नहीं घबराये। ईश्वर से लिपटे रहो, उसे मत त्यागो, जिससे अन्त में तुम्हारा कल्याण हो’’(प्रवक्ता ग्रन्थ 2:1-3)।

जिस प्रकार एक अच्छे मकान की नींव डालने के लिए बहुत गहरा खोदना पडता है, ठीक उसी प्रकार एक अच्छा विश्वासी जीवन बिताने के लिए हमें अपनी आध्यात्मिक जड़ों को सुदृढ़ बनाना होगा। प्रभु के शिष्य बनने के लिए हमें सोचने, समझने तथा तैयार करने की ज़रूरत है। कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात एक दम्पति से हुई। एक साल पहले हवाई जहाज में मुम्बई से दिल्ली तक के एक घण्टे के सफर में उन दोनों की पहली मुलाकात हुई थी। उसी के बीच ही उन्होंने एक दूसरे से शादी करने का निर्णय ले लिया। अब वे तलाक चाहते हैं। उनका कहना है, ‘‘हमने जल्दबाजी की, शादी करने के पहले एक दूसरे को ज्यादा समझने की ज़रूरत थी। हमसे गलती हुई’’। कई लोग योजनाएं बनाने में निपुण होते हैं। वे योजनाएं बना डालते हैं, वादें कर लेते हैं। परन्तु उन योजनाओं को वास्तविक रूप देने से वे पीछे हटते हैं। चुनाव के पहले राजनैतिक पार्टियाँ जो वादें करती हैं, अगर वे उन सबको लागू कर लेते तो हमारे देश का स्वरूप कितना बदल गया होता! अगर सरकार की योजनाएं कागज और स्याही तक ही सीमित नहीं रहती तो हमारा समाज कितना बदल गया होता!

अमेरिका के जाने माने फुटबॉल खिलाडी गेल सेयर्स (Gale Sayers) ने अपनी आत्मकथा का शीर्षक ‘‘I am third’’ अर्थात् ‘‘मैं तीसरा हूँ’’ रखा। उनका यह कहना था कि यह उनके शिक्षक का आदर्शवाक्य था और उससे वे (गेल) बहुत ही प्रभावित हुए थे। इनका यह मतलब था- जीवन में ईश्वर का पहला स्थान है, दूसरों का दूसरा और स्वयं का तीसरा। जब गेल ने ईश्वर को पहला स्थान दिया, तो ईश्वर ने गेल को कई प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान दिला दिया। जो शिष्य अपनी बुलाहट को गम्भीरता से लेता है उसे चाहिए कि वह ईश्वर को प्रथम स्थान दे। उसे ईश्वर की राह पर निडर होकर चलना होगा। हम प्रभु येसु से प्रार्थना करें कि वे अपने पीछे क्रूस उठाकर चलने की शक्ति हम में से हरेक को प्रदान करें।


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Praise the Lord!