Johnson

चक्र स - वर्ष का तेईसवाँ इतवार

प्रज्ञा 9:13-18ब; फिलेमोन 9-10,12-17; लूकस 14:25-33

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


हम मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी की सिस्टर निर्मला को भली-भांति जानते हैं। उनका पूरा नाम सिस्टर निर्मला जोशी था, उनका जन्म 23 जुलाई 1934 को एक हिन्दू ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में स्कूली दिनों में जब वे ख्रीस्तीय धर्म के संपर्क में आई तो उन्होंने प्रभु येसु के बुलावे को महसूस किया, और 24 वर्ष की उम्र में उन्होंने काथलिक ईसाई धर्म को अपनाकर प्रभु येसु की उसी बुलाहट का पालन किया और बाद में वे न केवल मिशनरी धर्म बहन बनीं बल्कि मदर तेरेसा के बाद 1997 से 2009 तक सुपीरियर जनरल भी रहीं। उनका परिवार अमीर और इज्ज़तदार था, और एक ब्राह्मण परिवार था, उन्हें किसी चीज़ की कमीं नहीं थी क्योंकि उनके पिता उस समय की भारत की ब्रिटिश सेना में अफसर थे। लेकिन सिस्टर निर्मला ने मदर तेरेसा के द्वारा यह जाना कि ईश्वर दीन-दरिद्रों में निवास करता है, उनकी सेवा करने का मतलब है ईश्वर की सेवा करना है। उसी ईश्वर के प्यार की खातिर उन्होंने अपना सब कुछ छोड़ दिया, अपनी सुख-समृद्धि, अपना घर-परिवार और अपना समाज।

आज के सुसमाचार में हम एक विशाल जन समूह को देखते हैं जो प्रभु येसु के साथ-साथ चल रहा था। सुसमाचार के इस भाग से पहले हम विवाह भोज के दृष्टान्त को पढ़ते हैं जिसमें निमंत्रित लोग शामिल होने से इन्कार कर देते हैं और इसलिए राजा गली-चौकों से लोगों को बुलाकर लाने का आदेश देता है और उस भोज में बहुत सारे लोग शामिल हो जाते हैं इतने सारे कि स्वामी का घर भर जाता है। आज के सुसमाचार का जन समूह शायद उसी का प्रतीक है। प्रभु येसु सभी को बुलाते हैं, कोई बंदिश नहीं, कोई परीक्षा नहीं, और सब लोग प्रभु के पीछे आते भी हैं, लेकिन उनमें से सभी प्रभु येसु के शिष्य नहीं बन सकते क्योंकि प्रभु येसु के शिष्य बनना आसान नहीं है। कभी-कभी लोग एक दूसरे की देखा-देखी किसी एक रास्ते पर चल तो पड़ते हैं, लेकिन अगर उन्हें उस रास्ते के उतार-चढाव, कठिनाईयों, चुनौतियों इत्यादि के बारे में मालूम नहीं है तो, उस रास्ते पर शायद वो ज्यादा दूर तक नहीं जा पायेंगे। इसीलिए प्रभु येसु उनके भावी शिष्यों के लिए उनके रास्ते पर चलने की शर्ते स्पष्ट कर देना चाहते हैं।

सन्त मत्ती के अनुसार सुसमाचार के 22 वें अध्याय के पद संख्या 36-40 तक हम ‘संहिता में सबसे बड़ी आज्ञा’ के बारे में पढ़ते हैं, किसी शास्त्री के पूछने पर प्रभु येसु जवाब देते हैं, “अपने प्रभु ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करो। यह सबसे बड़ी और पहली आज्ञा है।” (मत्ती 22:37-38)। हम जानते हैं कि ईश्वर हमें बिना शर्त और असीम प्यार करते हैं। वही सारी सृष्टि को नियंत्रित करते हैं, सब कुछ उन्हीं के हाथों में हैं, हमारी सांसें, हमारा जीवन हमारा सर्वस्व उसी का दिया हुआ है। इसलिए हर व्यक्ति के लिए जीवन में सबसे बड़ी जिम्मेदारी और नियम यही है कि हम उसे सब कुछ से बढ़कर प्यार करें। जब प्रभु येसु हमें अपना शिष्य बनने के लिए बुलाते हैं तो उनके और हमारे बीच में कुछ भी नहीं आना चाहिए, न संसार, न घर-परिवार और ना समाज। हमें सब कुछ त्यागकर ईश्वर को प्यार करना है, प्रभु का अनुसरण करना है। यहाँ तक तो फिर भी ठीक है, लेकिन प्रभु येसु न केवल अपने परिवार और सगे-सम्बन्धियों को छोड़ने के लिये बल्कि उन से बैर करने के लिये क्यों कहते हैं?

स्वाभाविक रूप से हमारा हृदय प्रेम, लगाव, और अन्य भावनाओं का स्रोत एवं केंद्र है। हम जिसे भी प्यार करते हैं, उसके लिए अपने हृदय में जगह भी देते हैं, चाहे वे हमारे मित्र हों, माता-पिता हों, पत्नी, भाई-बहन आदि हों। जब हम ईश्वर की सबसे पहली आज्ञा का पालन पूरे ह्रदय से करने की ठान लें, तो ईश्वर से बढकर हमारे ह्रदय में कोई और नहीं हो सकता। जो बंधन हमें बांधे रखते हैं, जब तक हम उनसे मुक्त नहीं होंगे तब हम ईश्वर को सर्वोच्च स्थान नहीं दे पायेंगे। उदाहरण के लिए यदि हमारा कोई प्रियजन चाहे हमारे माता-पिता, या मित्र आदि हमसे सुसमाचार के मूल्यों के विरुद्ध जाने के लिए कहें, तो हम किसे अधिक महत्व देंगे, अपने प्रियजनों को जिन्हें हम बहुत प्यार करते हैं, या सुसमाचार को (ईश्वर को)? अपने प्रियजनों से पूर्ण रूप से विरक्त होना भी आसान नहीं है, इसलिये प्रभु येसु कुछ उदाहरणों द्वारा हमें आगाह करते हैं कि हमें सोच-समझकर, पूरी तरह से तोल-मोल कर प्रभु के रास्ते पर चलने का फैसला करना है, क्योंकि इसकी कीमत बहुत बड़ी है।


Copyright © www.jayesu.com
Praise the Lord!