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चक्र स - 58. वर्ष का सत्ताईसवाँ इतवार

हबक्कूक 1:2-3, 2:2-4; 2 तिमथी 1:6-8, 13-14; लूकस 17: 5-10

(फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन)


एक महिला धर्म-कर्म में बहुत विश्वास रखती थी। वह प्रतिदिन चर्च जाया करती थी तथा जहाँ कहीं भी प्रार्थना आदि का आयोजन होता था उनमें वह भाग लेने का कोई अवसर नहीं गवाती थी। उसमें एक और गुण था कि वह सोने के पहले बाइबिल पढ़ा करती थी। एक रात उसने बाइबिल में संत लूकस के सुसमाचार के उस भाग को पढ़ा जिसमें प्रभु कहते हैं कि अगर तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी होता और तुम शहतूत के इस पेड़ से कहते, उखड़ कर समुद्र में लग जा तो वह तुम्हारी बात मान लेता। इस बात पर विचार तथा मनन करते हुए वह सोने जाती है। सोने के पूर्व जब वह अपने कमरे की खिड़की बंद करने जाती है तो उसे उसके घर के सामने लगा पेड़ दिखता है। इस पेड़ को देखकर उसके दिमाग में एक विचार आता है। उसे सुसमाचार में पढ़े प्रभु येसु के ‘विश्वास’ के बारे में कहे शब्द याद आते हैं। अपने विश्वास को परखने के उद्देश्य से वह महिला उस पेड़ से कहती है कि वह यहाँ से उखड़ कर कहीं ओर चला जाये। यह कहकर वह सोने चली जाती है। उसे पूरा विश्वास है कि कल सुबह तक पेड़ वहाँ नहीं रहेगा। जब वह सुबह उठकर खिड़की खोलकर देखती है तो पाती है कि पेड़ जहाँ का तहाँ खड़ा था। इसपर वह यकायक कह उठती है, ‘‘मुझे मालूम था कि यह पेड़ यही का यही रहेगा’’।

विश्वास की यह कहानी शायद हम में से किसी की भी हो सकती है। शायद हमें भी ऐसा लगता होगा कि रोज चर्च जाने, कलीसिया के सारे नियमों का पालन करने, उपवास रखने तथा बाइबिल पढ़ने से हमारा विश्वास सच्चा खीस्तीय विश्वास होगा। लेकिन परीक्षा की घड़ी में अगर हमारा विश्वास खरा न उतरे तो वह विश्वास केवल हमारी सोच मात्र होगी। सही विश्वास को समझने के लिये हमें पुराने व्यवस्थान के नबी दानिएल एवं उनके साथियों के साथ घटित घटना को सुनना एवं समझना चाहिये। जब दानिएल एवं उसके साथियों को राजा नबूकदनेज़र ने बंदी बनाकर उन्हें उसके देवताओं की पूजा करने को विवश किया तो दानिएल एवं उसके साथियों ने बड़ी दृढ़ता के साथ ऐसा करने से इंकार किया। जब राजा नबूकदनेज़र ने उन्हें आग की भट्टी में डालने की धमकी दी तो जो उत्तर उन्होंने दिया वह सच्चे एवं वास्तविक विश्वास को परिभाषित करता है। उनका उत्तर था ‘‘वह (ईश्वर) हमें प्रज्वलित भट्टी से बचाने में समर्थ है और हमें आपके हाथों से छुड़ायेगा। यदि वह ऐसा नहीं करेगा, तो (भी) राजा! यह जान लें कि हम न तो आपके देवताओं की सेवा करेंगे और न आपके द्वारा संस्थापित स्वर्ण-मूर्ति की आराधना ही’’ (दानिएल 3: 17-18)। दानिएल को पूरा विश्वास था कि उसे व उसके साथियों को ईश्वर जलती हुई आग से भी बचा सकते हैं। लेकिन उनके लिये ये सबसे महत्वपूर्ण बात नहीं है। उनके लिये सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह ईश्वर पर अपना विश्वास हमेशा रखेंगे यहाँ तक कि अगर ईश्वर उन्हें आग से न भी बचाये तब भी। जब हमारा विश्वास इस मुकाम पर पहुँच जाये और हम परिणाम की चिंता किये बिना ईश्वर के हाथों में अपना सब कुछ सौंप दे तब हम सही विश्वासी बन जाते हैैं और यही सच्चा, वास्तविक एवं खीस्तीय विश्वास है।

जब नबी हबक्कूक ईश्वर से पूछता है कि क्यों ईश्वर अत्याचार एवं हिंसा के विरुद्ध कदम नहीं उठाता है तो उसके विश्वास में भी उत्तेजना एवं गहराई की कमी झलकती हैं। वह ईश्वर के समय एवं योजना का इंतजार नहीं करना चाहता है। वह शायद यह सोचता है कि ईश्वर आने में देर कर रहा है, इसलिये अत्याचार एवं बुराई पनप रही हैं। यह हमारे विश्वास की झलक भी हो सकती है। लेकिन हमारा विश्वास भी नबी दानिएल की तरह होना चाहिये। ईश्वर पर केवल इसलिये विश्वास करना चाहिये कि वे ईश्वर हैं- हमारे जीवन, हमारी उम्मीदों, आशाओं तथा हमारे सम्पूर्ण अस्तित्व का। हमारों प्रयत्नों परिणाम जो भी हो, उसका हमारे विश्वास पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ेगा। जो कुछ भी वे करते हैं, हमारी भलाई के लिये ही करते हैं। जो कुछ भी होता है भले ही उसकी अर्च्छाइं हमें दिखाई न दे लेकिन उसे हम सहर्ष स्वीकार करते हैं।

यदि हमारा विश्वास भी इसी तरह का बन जाये तो हम भी उस सेवक की तरह बन जायेंगे जिसका ज़िक्र प्रभु आज के सुसमाचार में करते हुए अपने शिष्यों को उसके सदृश्य बनने की शिक्षा देते हुए कहते है ‘‘. . . जो (सेवक) सब आज्ञायों का पालन करने के बाद कहता है ‘‘हम अयोग्य सेवक भर है, हमने अपना कर्त्तव्य मात्र पूरा किया है‘‘ (लूकस 17:10)।

आईये हम भी अपने विश्वास की जाँच करें- क्या कहीं हमारा विश्वास भी उस स्त्री के विश्वास की भांति तो नहीं जिसकी नींव केवल चमत्कार पर आधारित है या हबक्कूक की तरह जो बुराई एवं अत्याचार देखकर बेसब्र हो उठता है? हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि वे हमारे विश्वास को उस निस्वार्थी सेवक के सदृश्य बना दे जिसका उदाहरण वे स्वयं सुसमाचार में देते हैं।


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Praise the Lord!