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चक्र स - वर्ष का सत्ताईसवाँ इतवार

हबक्कूक 1:2-3, 2:2-4; 2 तिमथी 1:6-8, 13-14; लूकस 17: 5-10

फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन


हिन्दी में कहावत है, ’’कर्म किये जा फल की चिंता मत कर।’’ लगभग यही बात येसु अपने शिष्यों के निवेदन में बताते है जब वे निवेदन करते हैं, ’’प्रभु हमारा विश्वास बढाईये।’’ येसु इसका सीधा उत्तर न देते हुये उन्हें कर्मठ एवं वफादार सेवक का दृष्टांत सुनाते हैं। इसके द्वारा प्रभु बताते है जब हम अपने उत्तरदायित्व को पूरी तत्परता एवं वफादारी के साथ बिना फल की आशा किये करते हैं तो हमारा विश्वास स्वतः बढता जाता है। विश्वास में किये गये कर्म ही हमारा विश्वास बढाते हैं।

’अशर्फियों का दृष्टांत’ तीन सेवकों की उनके स्वामी द्वारा दी गयी राशि के प्रति प्रतिक्रिया को दर्शाता है। इसमें प्रथम दो सेवकों ने तो दी गयी अशर्फियों से व्यापार कर दुगुना कमाया किन्तु तीसरे ने अपनी निधि को जमीन में गाढ़ कर छिपा दिया था। यह तीसरा सेवक स्वामी द्वारा दी गयी निधि के प्रति ईमानदार है। वह इस अशर्फी का दुरूपयोग नहीं करता और न ही कोई हानि पहुँचाता है। किन्तु यह सदभावना उसे सही ठहाराने के लिये नाकाफी है। स्वामी उसे उसकी इसी अकर्मण्यता के लिये उसे ’निकम्मे सेवक’ कह कर बुलाता है। ’निकम्मे’ शब्द का भावार्थ होता है, ’निष्कर्म’ वह जो कुछ काम न करे। यदि हमारा विश्वास अकर्मण्य हो तो हम भी ’निकम्मे सेवक’ ही माने जायेंगे।

यदि उस तीसरे सेवक को अपनी सदभावना का उचित इस्तेमाल करना था तो उसे भी उसे दी गयी निधि से व्यापार करना चाहिये था। हमारा विश्वास यदि तीसरे सेवक के समान हो तो क्या लाभ! इससे न तो विश्वास बढता है और न ही ऐसे विश्वास से किसी को कोई लाभ ही होता है। बिना अनुकूल कार्यों के विश्वास नगण्य है। ऐसा सुप्त विश्वास हमें बचा नहीं सकता। संत याकूब कहते हैं, ’’यदि कोई यह कहता है कि मैं विश्वास करता हूँ किन्तु उसके अनुसार आचरण नहीं करता, तो इस से क्या लाभ? क्या विश्वास ही उसका उद्धार कर सकता है?... कर्मों के अभाव में विश्वास पूर्ण रूप से निर्जीव होता है।... जिस तरह आत्मा के बिना शरीर निर्जीव है, उसी तरह कर्मों के अभाव में विश्वास निर्जीव है। (याकूब 2:14,17) कार्यों के द्वारा विश्वास को बढाने के हेतु संत पेत्रुस कहते हैं, “जिसे जो वरदान मिला है, वह ईश्वर के बहुविध अनुग्रह के सुयोग्य भण्डारी की तरह दूसरों की सेवा में उसका उपयोग करे। जो प्रवचन देता है, उसे स्मरण रहे कि वह ईश्वर के शब्द बोल रहा है। जो धर्मसेवा करता है वह जान ले कि ईश्वर ही उसे बल प्रदान करता है।” (1 पेत्रुस 4:10-11) इस प्रकार अपने कार्यों को ईश्वर की सेवा में समर्पित करने से हमारा विश्वास नित्य बढता जाता है।

संत लूकस के सुसमाचार में शिष्यगण रातभर मेहनत करने के बाद भी कुछ नहीं पाते हैं। तब येसु उनसे कहते हैं, “नाव को गहरे पानी में ले चलो।” शिष्यों के लिये तो यह आश्चर्य की बात थी। वे थके हुये थे तथा अभी-अभी समुद्र से लौटे थे। ऐसे में प्रभु उनसे दुबारा जाने के लिये कहते हैं। जो भी उनके भाव रहे हो लेकिन वे येसु की बात टाल नहीं सकते थे। नाव को बीच समुद्र में ले जाने पर येसु उनसे एक और अजीब बात कहते हैं, “दायी ओर अपना जाल डालो”। यह सुनकर शायद पेत्रुस का धैर्य जबाव दे गया हो, इसलिये वे कहते हैं, “प्रभु रातभर मेहनत करने पर भी हमें कुछ नहीं मिला, किन्तु आप के कहने पर मैं जाल डालूँगा।” पेत्रुस के प्रभु के अनुदेशनुसार कार्य करने पर उनका जाल मछलियों से भर जाता है। इस प्रकार के परिणाम से शिष्यों में भय छा जाता है वे येसु की प्रभुता को पहचान जाते हैं। पेत्रुस कह उठता है, “प्रभु आप मेरे पास से चले जाइये क्योंकि मैं पापी मनुष्य हूँ।” कार्य करने से विश्वास बढता है। यही बात पेत्रुस और उनके साथियों के साथ भी होती है।

राजाओं के दूसरे ग्रंथ में हम कोढी नामान के बारे में पढते हैं। जब नामान नबी एलीशा के पास चंगाई के लिये जाते हैं तो अपनी पूरी तैयारी के साथ जाते हैं। किन्तु एलीशा उन्हें संदेश के द्वारा केवल कहते हैं, “आप जाकर यर्दन नदी में सात बार स्नान कीजिए। आपका शरीर स्वच्छ हो जायेगा और आप शुद्ध हो जायेंगे।” (2 राजाओं 5:10) किन्तु नामान इस कार्य को तुच्छ समझकर लौटने लगता है। किन्तु सेवकों से समझाने पर वह नबी एलीशा द्वारा निर्देशित कार्य कर शुद्धता प्राप्त करता है। नामान का ईश्वर में विश्वास जब होता तब वह उनके द्वारा निर्देशित कार्य करता है। नामान का इस प्रकार का कार्य उसके विश्वास की अभिव्यक्ति था जो चंगाई के बाद ठोस विश्वास में परिणीत हो जाता है। इस कार्य के बिना न तो उसका विश्वास पनपता और न ही परिपूर्णता तक पहुँचता।

स्कूलों में भी बच्चों को अभ्यास कार्य स्वयं करने के लिए दिया जाता है। जब बच्चा उन कार्यों को स्वयं करता है तो उसमें आत्मविश्वास आता है तथा जितना अधिक वह अभ्यास के कार्यों को करता जाता है उतना अधिक उसमें विश्वास बढता है। यही बात हमारे आध्यात्मिक विश्वास पर भी लागू होती है। जितनी बार हम येसु में विश्वास कर सुसमाचार के अनुसार अपने कार्यों को ढालते हैं उतना ही हम विश्वास में परिपक्व होते जाते हैं। ऐसा निरंतर करने से हम में भी ईश्वर के सेवक होने का भाव आता है। हम अपने जीवन को ईश्वर को समर्पित सेवा में जीकर विनम्र बनते और आगे बढते हैं।


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