Smiley face

चक्र स - 60. वर्ष का उन्तीसवाँ इतवार

निर्गमन 17:8-13; 2 तिमथी 3:14-4:2; लूकस 18:1-8

फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन


नदी चट्टान को तोडकर भी अपना मार्ग बना लेती है। जब कोई चट्टान नदी का रास्ता रोक लेती है तो नदी अपने पूरे प्रवाह के साथ चट्टान पर प्रहार कर लगातार दबाव बनाये रखती है। जब तक नदी रास्ता नहीं ढुंढ लेती तब तक वह निरंतर चट्टान के विरूद्ध डटी रहती है। नदी की सफलता का रहस्य उसकी धाराओं का प्रवाह नहीं बल्कि उसका सतत या दृढ़ (Persistence) प्रयत्न है जो वह चट्टान रूपी अवरोध के विरूद्ध जारी रखती है। नदी का प्रवाह शक्तिशाली होता है, किन्तु वह चट्टान को भेदने में असमर्थ होता है। लेकिन नदी का जिददी स्वाभाव एक न एक दिन चट्टान की मजबूती को तोड देता है। जीवन में स्थायी या दीर्घकालीन सफलता केवल हमारे गुणों और प्रतिभाओं के बल पर नहीं बल्कि हमारे सतत प्रयत्नों की जीवटता पर निर्भर करती है। जीवन में सफलता का रहस्य निरंतर किये जाने वाले कार्यों से हासिल होता है। यदि हम कोई भला कार्य कभी-कभार करें तो इससे ज्यादा लाभ नहीं किन्तु हम यह भला कार्य निरंतर करें तो यह कार्य कितनी भी छोटा क्यों न हो बहुत बडी सफलता में तब्दील हो जाता है।

हमारा आध्यात्मिक जीवन भी ’निरंतरता’ (Persistence) के इसी सिद्धांत पर चलता है। प्रभु न्यायकर्ता और विधवा के दृष्टांत के द्वारा यही सिखाते हैं ’’नित्य प्रार्थना करनी चाहिये और कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिये।’’ जब हम किसी तकलीफ में हो या विशेष आवश्यकता में पडें हो तो प्रार्थना करते हैं किन्तु अवसर निकल जाने के पश्चात हम प्रार्थना करना छोड देते हैं। कभी किसी उद्देश्य को लेकर भी हम प्रार्थना शुरू करते हैं किन्तु प्रार्थना में निरंतरता (Persistence) के अभाव में हम अपने उद्देश्य से दूर रहते हैं। यही हमारी असफलता का मुख्य कारण है। विधवा मजबूरी, बेबसी और लाचारी का प्रतीक है। उसकी मदद के लिये शायद ही कोई आये। ऐसी परिस्थिति में उसे न्याय वहॉ का न्यायकर्ता ही दिला सकता था। न्यायकर्ता ’न तो ईश्वर से डरता और न किसी की परवाह करता था।’ ऐसे कठोर और भ्रष्ट व्यक्ति से न्याय प्राप्ति की आशा करना ही समय और संसाधन की बर्बादी है। ऐसी विकट और निस्सहाय स्थिति में वह विधवा अपनी दृढता का परिचय देती है और रोजाना न्यायकर्ता से न्याय की गुहार लगाती है। सुसमाचार कहता कि यह प्रक्रिया ’बहुत समय’ तक चलती रही। न्यायकर्ता अपने स्वाभाव के अनुरूप विधवा की गुहारों को नज़रअंदाज करता रहा। किन्तु विधवा की रोज-रोज की टोकने की आदत से वह परेशान हो उठता है। अंत में वह अपने स्वाभाव के विपरीत उस विधवा को न्याय प्रदान करता है। विधवा के इस विजय का कारण केवल उसका ’निरंतर’ गुहार लगाना था। उसने केवल अपनी इस अविस्मणीय दृढता (Persistence) के दम पर न्याय हासिल कर लिया।

प्रभु कहते हैं कि जब हठी और गैर-जिम्मेदार न्यायकर्ता रोज-रोज के आग्रह से तंग आकर न्याय करने को मजबूर हो सकता है तो हमारा स्वर्गिक पिता, जो न्यायी, दयालु है क्या हमारे लिये देर करेगा। कदापि नहीं किन्तु प्रार्थना में हमारा दृष्टिकोण भी विधवा की दृढ़ता (Persistence) के समान होना चाहिये। जिस प्रकार विधवा ने बहुत समय तक निरंतर आग्रह किया उसी प्रकार हमें भी प्रार्थना को दृढ़ता के साथ निरंतर करना चाहिये। हमारी इस दृढ़ता तथा सतता को देखकर ईश्वर हमें न्याय अवश्य प्रदान करेंगे। यदि हमने प्रार्थना की है और उसका समुचित उत्तर नहीं पाया है तो इसका कारण यही हो सकता है कि हम नित्य प्रार्थना नहीं कर पाये हो या कुछ समय बाद यह सोचकर कि कुछ नहीं हो रहा हम हत्तोसाहित हो गये हो।

दुराग्रह करने वाले मित्र के दृष्टांत से प्रभु यही बात हमें बताते हैं कि भले ही परिस्थितियॉ विपरीत तथा प्रतिकूल हो किन्तु यदि हमारा प्रार्थनामय आग्रह जारी रहे तो हम चमत्कारिक रूप से ईश्वरीय कृपायें प्राप्त कर सकते हैं।

न्यायकर्ताओं के गं्रथ में इस्राएलियों के बेनयामीनवंशियों से युद्ध को प्रार्थना में निरंतर आग्रह के उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। इस्राएलियों ने प्रभु से पूछकर बेनयामीनवंशियों से युद्ध किया किन्तु पहले दिन वे बुरी तरह हार गये। किन्तु हार निराश न होकर वे प्रभु के सामने पुनः विलाप करते हैं। प्रभु उन्हें उत्तर देता है, ’’हॉ, उनके विरूद्ध लडने जाओ।’’ किन्तु इस बार भी इस्राएली सेना हार जाती है। दो दिन में उनके 40 हजार योद्धा मार डाले जाते हैं। वे पुनः ईश्वर के पास जाकर उपवास एवं प्रार्थना करते हैं। प्रभु उन्हें पुनः लडने का आदेश देता है। इस बार इस्राएली सेना विजय प्राप्त करती है। (देखिये न्यायकर्ताओं 20:14-48) इतनी बार प्रार्थना करने के बावजूद वे हार जाते हैं किन्तु वे ईश्वर से प्रार्थना करना और सहायता मॉगना नहीं छोडते। उनका ’निरंतर आग्रह’ (Persistence) अंत में उन्हें विजय प्रदान करता है।

निर्गमन ग्रंथ में जब इस्राएली अमालेकियों से लडाई करते हैं तो मूसा इस दौरान उनके लिये हाथ ऊपर उठाये रखता था। तब इस्राएली प्रबल बने रहते थे। किन्तु ज्यों ही मूसा अपने हाथ नीचे करता वे हारने लगते थे। इसलिये हारून और हूर मिलकर मूसा के हाथ संभालते रहे। इस प्रकार मूसा सूर्यास्त तक अपने हाथ ऊपर उठाये रखे जिससे इस्राएली युद्ध में विजय प्राप्त कर सके। (देखिये निर्गमन 17:8-16)

हमारा प्रार्थनामय जीवन भी मूसा के हाथों के समान है। जब तब वे प्रार्थना में उठे रहते हैं हम प्रबल बने रहते हैं तथा ज्यों हमारी प्रार्थना शिथिल पडने लगता है हम कमजोर होने लगते हैं। ऐसी परिस्थितियों मंय विभिन्न प्रकार की सहायता से हमें अपनी प्रार्थनाओं को जारी रखना चाहिये जिससे हम अंत में विजयी हो।


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