Smiley face

चक्र स - 63. वर्ष का बत्तीसवाँ इतवार

2 मक्काबियों 7:1-2, 9-14; 2 थेसलनीकियों 2:16-3:5; लूकस 20:27-38 या 20:27, 34-38

(फादर अन्टनी आक्कानाथ)


मैक्सिको के संग्रहालय में उन 25 शहीदों के जीवन का चित्रण है जिन्हें मैक्सिको की सरकार द्वारा काथलिक कलीसिया को समाप्त करने के उद्देश्य से मौत के घाट उतारा गया था। उनमें से एक पुरोहित का नाम क्रिस्टोबल मैगालानेस जारा और दूसरे युवा पुरोहित का नाम अगुस्तीन कालोका कारट्स था जिसका पुरोहिताई अभिषेक हुए ज्यादा समय नहीं बीता था। वे बंदीगृह में मृत्यु के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। सरकारी सैनिकों ने उन्हें सूचित किया कि कुछ ही दिनों में उन्हें मार डाला जायेगा, परन्तु यदि वे सार्वजनिक रूप से अपने खीस्तीय विश्वास का त्याग करेंगे तो उन्हें जीवित रहने दिया जायेगा। मृत्यु दण्ड के दिन की सुबह युवा पुरोहित सैनिकों को उन्हें बंदूक से मार डालने की तैयारी करते हुए देख रहा था, शायद वह युवावस्था में मरना नहीं चाहता था, पहले पुरोहित ने उससे कहा, ‘‘भाई ढाढ़स रखो, हम जल्द ही स्वर्ग में फिर मिलेंगे’’।

25 मई 1927 को पुरोहित क्रिस्टोबल और अगुस्तीन मार डाले गये। सन् 2000 में संत पापा योहन पौलुस ने दोनों को नये सदी के संत घोषित किया। ईश्वर की इच्छा के प्रति समर्पण और अंत तक उसमें दृढ़ बने रहने का यह उदाहरण हमारे लिये प्रेरणादायक है। ’स्वर्ग में फिर मिलेंगे’ का मनोभाव हमें भी अपनाना चाहिए।

इस आधुनिक युग में मृत्यु के बाद के अनन्त जीवन के विचार को कई लोग महत्वहीन समझते हैं। उनका मत है कि स्वर्गराज्य के विषय में सोच कर व्यर्थ समय बिताने के बजाय संसार को बेहतर बनाने के लिये कार्य किये जायें। मैं भी बहुत हद तक इससे सहमत हूँ कि पृथ्वी पर जीवन को बेहतर बनाने के लिए कार्य करना आवश्यक है, पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम स्वर्गराज्य के बारे में न सोचें। स्वर्ग में अनन्त जीवन की आशा हमें परोपकार के कार्यों को बेहतर ढंग से करने के लिये साहस, ताकत, ज्ञान तथा प्रेरणा देती है। हमारे अनुभव हमें सिखाते हैं कि जो लोग स्वर्गराज्य पर मनन् करते थे उन्हीं लोगों ने संसार में सबसे ज्यादा भलाई का कार्य किया है। हमारे देश में सबसे अधिक प्रभावकारी अस्पताल, स्कूल, अनाथों और निराश्रितों के लिए आश्रय स्थल उन मिशनरियों द्वारा स्थापित किये गये हैं जो अनन्त जीवन पर उचित एवं उपयुक्त मनन् और चिंतन किया करते थे। मेरा दावा है कि यदि स्वर्गराज्य की आशा नहीं होती तो सिस्टर एग्नेस कभी भी कोलकाता की धन्य मदर तेरेसा नहीं बन पाती।

आज के पहले पाठ, मक्काबियों के दूसरे ग्रंथ, अध्याय 7 में हमने सुना कि एक यहूदी माता के सात पु़त्रों को इसलिये मार डाला गया कि उन्होंने यहूदी संहिता का उल्लंघन न करने के लिये सूअर का माँस खाने से इंकार किया। एक पुत्र ने कहा, ‘‘हमारे पूर्वजों के नियमों को तोड़ने के बजाय हम मरना पसंद करेंगे’’। इतनी भयानक यंत्रणा सहने का साहस उन्हें कहाँ से मिला? आज भी बहुतों को दुःख और कष्टों को सहने की शक्ति कहाँ से मिलती है? निश्चय ही खीस्त पर विश्वास से, मर कर जी उठने और अनन्त जीवन की आशा से और उस विश्वास से कि प्रभु येसु का प्रेम हमारे पापों और दुर्बलताओं को मिटा कर हमें जीवन की पूर्णता तक ले जायेगा। पहले पाठ में एक और पुत्र का कथन है, ‘‘आज तुम हमसे हमारा जीवन छीन रहे हो, परन्तु संसार का राजा हमें पुनर्जीवित कर देगा’’। दूसरे पुत्र ने अपने खोये हुए अंगों को स्वर्ग में दुबारा प्राप्त करने की आशा रखते हुए कहा कि ईश्वर अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार हमें पुनर्जीवित करेगा। ईश्वर पर हमारा विश्वास, पुनरुत्थान की आशा और प्रभु येसु के प्रति प्रेम इस जीवन की कठिनाईयों को धैर्यपूर्वक सहने की शक्ति हमें देता है। हम विश्वास करते हैं कि मृत्यु के बाद के जीवन में हमारे इस जीवन के पाप और कमियाँ मिटा दी जायेंगी। हम सभी स्वर्गराज्य में विश्वास करते हैं और वहाँ प्रवेश करना चाहते हैं। कभी-कभी हम कल्पना करते हैं कि स्वर्ग कैसा होगा? हम जैसे कल्पना करते हैं स्वर्ग वैसा नहीं होगा। सुसमाचार में प्रभु येसु कहते हैं कि वह पत्नी जिसके सात पति रह चुके हैं वह स्वर्गराज्य में उनमें से किसी की भी पत्नी नहीं रहेगी क्योंकि स्वर्ग में पुरुष विवाह नहीं करते और न ही स्त्रियाँ विवाह में दी जाती हैं। विवाह केवल इस जीवन के लिये है।

अर्थात स्वर्ग का जीवन यहाँ के जीवन से सर्वथा भिन्न होगा। संत योहन ने अपने पत्र में लिखा है, ‘‘हम ईश्वर की संतान हैं, किन्तु यह अभी तक प्रकट नहीं हुआ है कि हम क्या बनेंगे। हम इतना ही जानते हैं कि जब ईश्वर का पुत्र प्रकट होगा, तो हम उसके सदृश बन जायेंगे; क्योंकि हम उसे वैसा ही देखेंगे, जैसा कि वह वास्तव में हैं’’ (1 योहन 3:2)।

स्वर्ग की ओर दृष्टि वर्तमान की परीक्षाओं का सामना करने का बल देती है। नवम्बर माह में काथलिक कलीसिया चार बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है- मृत्यु, न्याय, स्वर्ग और नरक। इन बातों पर चिंतन और मनन् हमें दूसरों से प्रेम रखते हुए ईश्वर के लिये जीने की प्रेरणा देता है। उदाहरण के लिए आज के पहले पाठ में हमने उन सात पुत्रों का वर्णन सुना जो ईश्वर के प्रति दृढ़ विश्वास रखकर घोर यातना सहते हुए मरने के लिए राजी थे।

प्रभु येसु बताते हैं इब्राहिम, इसहाक और याकूब आज भी जीवित हैं यद्यपि उनके शरीर मर गये हैं। हमें इस तथ्य से प्रेरित होना चाहिए कि हम ईश्वर के वरदानों के परिचारक हैं। महान अंग्रेज प्रचारक जॉन विस्ले ने लिखा है, ‘यदि मेरी मृत्यु के बाद मेरे पीछे दस पाउण्ड भी मिले तो तुम सब इसके गवाह हो कि मैंने चोर और डाकू का जीवन जीया है’। संत जॉन क्रिस्सोस्टॉम का यह कहना है, ‘‘हमारी आवष्यकता की पूर्ति के बाद जो कुछ बच जाता है वह सब गरीबों का है’’। विस्ले ने न केवल अपनी अल्प कमाई बल्कि अपनी सारी शक्ति और प्रेम गरीबों में बाँटा। लंदन वासी सत्तर वर्षीय विस्ले को गरीबों के लिए कपड़ों की गठरी और भोजन ले जाते हुए अकसर देखा करते थे। विस्ले स्वर्ग के लिए जीते थे पर उन्होंने इस संसार में लोगों की भलाई के लिए बहुत कार्य किया।

प्रभु येसु मर कर जी उठे हैं और हमारा काथलिक विश्वास इसी पर आधारित है कि हमारा जीवन पृथ्वी पर खत्म नहीं होता तथा मृत्यु पर उसका विकास होता है। संत पौलुस ने कहा है, ‘‘हम उस अनंत जीवन का प्रचार करते हैं और उसके लिए कष्ट सहते हैं। यदि हमारा जीवन सिर्फ इस संसार तक ही सीमित है तो हम सब मनुष्यों में सबसे अभागे मनुष्य हैं।’’ आज हम मनन्-चिंतन करें कि हमने ईश्वर से प्राप्त वरदानों- समय, गुण और धन का किस प्रकार उपयोग किया है? मैं नहीं कहता हँू कि हमें मदर तेरेसा या दूसरा विस्ले बन जाना चाहिये। परन्तु हम एक दूसरा महान कार्य कर सकते हैं- ईश्वर के हाथों में अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पित करना। सम्पूर्ण समर्पण हमें भयभीत करता है परन्तु तब हम संत क्रिस्टोबल के शब्दों को याद करें, ‘‘भाई धीरज रखो हम स्वर्ग में फिर मिलेंगे’’।


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