ईशवचन विषयानुसार

अन्तिम न्याय


रोमियों 2:5-11“अथवा क्या तुम ईश्वर की असीम दयालुता, सहनशीलता और धैर्य का तिरस्कार करते और यह नहीं समझते कि ईश्वर की दयालुता तुम्हें पश्चाताप की ओर ले जाना चाहती है? तुम अपने इस हठ और अपने हृदय के अपश्चाताप के कारण कोप के दिन के लिए अपने विरुद्ध कोप का संचय कर रहे हो, जब ईश्वर का न्यायसंगत निर्णय प्रकट हो जायेगा और वह प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों का फल देगा। जो लोग धैर्यपूर्वक भलाई करते हुए महिमा, सम्मान और अमरत्व की खोज में लगे रहते हैं, ईश्वर उन्हें अनन्त जीवन प्रदान करेगा। और जो लोग स्वार्थी हैं और सत्य से विद्रोह करते हुए अधर्म पर चलते हैं, वे ईश्वर के क्रोध और प्रकोप के पात्र होंगे। बुराई करने वाले प्रत्येक मनुष्य को-पहले यहूदी और फिर यूनानी को-कष्ट और संकट सहना पड़ेगा। और भलाई करने वाले प्रत्येक मनुष्य को -पहले यहूदी और फिर यूनानी को- महिमा, सम्मान और शान्ति मिलेगी; क्योंकि ईश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता।“

1 थेसलनीकियों 4:15-18“हमें मसीह से जो शिक्षा मिली है, उसके आधार पर हम आप से यह कहते हैं- हम, जो प्रभु के आने तक जीवित रहेंगे, मृतकों से पहले महिमा में प्रवेश नहीं करेंगे, क्योंकि जब आदेश दिया जायेगा और महादूत की वाणी तथा ईश्वर की तुरही सुनाई पड़ेगी, तो प्रभु स्वयं स्वर्ग से उतरेंगे। जो मसीह में विश्वास करते हुए मरे, वे पहले जी उठेंगे। इसके बाद हम, जो उस समय तक जीवित रहेंगे, उनके साथ बादलों में आरोहित कर लिये जायेंगे और आकाश में प्रभु से मिलेंगे। इस प्रकार हम सदा प्रभु के साथ रहेंगे। आप इन बातों की चर्चा करते हुए एक दूसरे को सान्त्वना दिया करें।“ ।

प्रवक्ता 16:7-23 “पापियों की सभा में आग प्रज्वलित होती है और विद्रोही भीड़ के विरुद्ध कोप भड़कता है। (8) प्रभु ने भीमकाय लोगों को क्षमा नहीं किया, जिन्होंने अपनी शक्ति के बल पर विद्रोह किया था। (9) उसने लोट के नगर की रक्षा नहीं की; क्योंकि उसे उसके घमण्ड से घृणा थी। (10) उसने विनाश की प्रजाति पर दया नहीं की; वह अपने पापों के कारण नष्ट की गयी। (11) उसने छः लाख पैदल सैनिकों के साथ वही किया, जिन्होंने हठपूर्वक उस से विद्रोह किया था। यदि केवल एक ही हठीला विद्रोही हुआ होता और वह बच गया होता, तो बड़े आश्चर्य की बात होती; (12) क्योंकि उसके पास दया और क्रोध है; वह बड़ा दयालु है, किन्तु अपने क्रोध को भी भड़कने देता है। (13) उसकी दया जितनी बड़ी है, उतनी ही महान् है उसकी डाँट। वह कर्मों के अनुसार मनुष्यों का न्याय करता है। (14) पापी अपनी लूट के साथ नहीं भाग सकेगा और धर्मी की आशा पूर्ण हो जायेगी। (15) जो भलाई करता है, उसे पुरस्कार मिलेगा और सब को अपने कर्मों का फल दिया जायेगा। प्रभु ने फिराउन का हृदय कठोर बना दिया; जिससे वह प्रभु को नहीं पहचाने और प्रभु के कार्य सर्वत्र सम्पन्न हों। सारी सृष्टि पर प्रभु की कृपा प्रकट हो गयी है। उसने प्रकाश और अन्धकार, दोनों को मनुष्यों में बाँट दिया। (16) यह मत कहो, ''मैं प्रभु के सामने से छिप जाऊँगा, वहाँ आकाश में मुझे कौन याद करेगा? (17) अपार भीड़ में मुझे कौन पहचानेगा? समस्त सृष्टि में मैं क्या हूँ? (18) प्रभु के आगमन पर आकाश, सर्वोच्च आकाश, महागर्त्त और पृथ्वी सब-के-सब हिलाये जायेंगे। (19) जब प्रभु उन पर दृष्टि डालेगा, तो पर्वत और पृथ्वी के आधार डर के मारे काँप उठेंगे। (20) फिर भी वह मुझ पर ध्यान नहीं देता। मेरे मार्ग का निरीक्षण कौन करेगा? (21) जब मैं पाप करता, तो काई नहीं देखता; जब मैं गुप्त में अपराध करता, तो कौन जानता है? (22) कौन भले कामों की चरचा करता है? कौन उनकी प्रतीक्षा करता है? न्याय का दिन दूर है।'' (23) ये नासमझ के विचार हैं, अविवेकी ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें सोचता है।

यिरमियाह 17:10''मैं प्रभु, मनुष्य का हृदय और अन्तरतम जानता हूँ। मैं हर एक को उसके आचरण और उसके कमोर्ं का फल देता हूँ''।

प्रकाशना 20:11-21:4”इसके बाद मैंने एक विशाल श्वेत सिंहासन और उस पर विराजमान व्यक्ति को देखा। पृथ्वी और आकाश उसके सामने लुप्त हो गये और उनका कहीं पता नहीं चला। (12) मैंने छोटे-बड़े, सब मृतकों को सिंहासन के सामने खड़ा देखा। पुस्तकें खोली गयीं। तब एक अन्य पुस्तक अर्थात् जीवन-ग्रन्थ खोला गया। पुस्तकों में लिखी हुई बातों के आधार पर मृतकों का उनके कर्मों के अनुसार न्याय किया गया। (13) समुद्र ने अपने मृतकों को प्रस्तुत किया। तब मृत्यु तथा अधोलोक ने अपने मृतकों को प्रस्तुत किया। हरेक का उनके कर्मों के अनुसार न्याय किया गया। (14) इसके बाद मृत्यु और अधोलोक, दोनों को अग्निकुण्ड में डाल दिया गया। यह अग्निकुण्ड द्वितीय मृत्यु है। (15) जिसका नाम जीवन-ग्रन्थ में लिखा हुआ नहीं मिला, वह अग्निकुण्ड में डाल दिया गया। (21:1)तब मैंने एक नया आकाश और एक नयी पृथ्वी देखी। पुराना आकाश तथा पुरानी पृथ्वी, दोनों लुप्त हो गये थे और समुद्र भी नहीं रह गया था। (2) मैंने पवित्र नगर, नवीन येरुसालेम को ईश्वर के यहाँ से आकाश में उतरते देखा। वह अपने दुल्हे के लिए सजायी हुई दुल्हन की तरह अलंकृत था। (3) तब मुझे सिंहासन से एक गम्भीर वाणी यह कहते सुनाई पड़ी, ''देखो, यह है मनुष्यों के बीच ईश्वर का निवास! वह उनके बीच निवास करेगा। वे उसकी प्रजा होंगे और ईश्वर स्वयं उनके बीच रह कर उनका अपना ईश्वर होगा। (4) वह उनकी आंखों से सब आंसू पोंछ डालेगा। इसके बाद न मृत्यु रहेगी, न शोक, न विलाप और न दुःख, क्योंकि पुरानी बातें बीत चुकी हैं।''

प्रकाशना 21:22-27 “मैंने उस में कोई मन्दिर नहीं देखा, क्योंकि सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर उसका मन्दिर है और मेमना भी। (23) नगर को सूर्य अथवा चन्द्रमा के प्रकाश की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ईश्वर की महिमा उसकी ज्योति और मेमना उसका प्रदीप है। (24) राष्ट्र उसकी ज्योति में चलेंगे और पृथ्वी के राजा उस में अपना वैभव ले आयेंगे। (25) उसके फाटक दिन में कभी बन्द नहीं होंगे और वहाँ कभी रात नहीं होगी। (26) उस में राष्ट्रों का वैभव और सम्पत्ति लायी जायेगी, (27) लेकिन, उस में न तो कोई अपवित्र व्यक्ति और न कोई ऐसा व्यक्ति, जो घृणित काम करता या झूठ बोलता है। वह केवल वही प्रेवेश कर पायेंगे, जिनके नाम मेमने के जीवन-ग्रन्थ में अंकित हैं।

प्रकाशना 22:4-5“वे उसे आमने-सामने देखेंगे और उसका नाम उनके माथे पर अंकित होगा। (5) वहाँ फिर कभी रात नहीं होगी। उन्हें दीपक या सूर्य के प्रकाश की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि प्रभु-ईश्वर उन्हें आलोकित करेगा और वे युग-युगों तक राज्य करेंगे।“

प्रकाशना 22:12''देखो, मैं शीघ्र ही आऊँगा। मेरा पुरस्कार मेरे पास है और मैं प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों का प्रतिफल दूँगा।“

रोमियों 8:18-25“मैं समझता हूँ कि हम में जो महिमा प्रकट होने को है, उसकी तुलना में इस समय का दुःख नगण्य है; (19) क्योंकि समस्त सृष्टि उत्कण्ठा से उस दिन की प्रतीक्षा कर रही है, सब ईश्वर के पुत्र प्रकट हो जायेंगे। (20) यह सृष्टि तो इस संसार की असारता के अधीन हो गयी है-अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि उसकी इच्छा से, जिसने उसे अधीन बनाया है- किन्तु यह आशा भी बनी रही (21) कि वह असारता की दासता से मुक्त हो जायेगी और ईश्वर की सन्तान की महिमामय स्वतन्त्रता की सहभागी बनेगी। (22) हम जानते हैं कि समस्त सृष्टि अब तक मानो प्रसव-पीड़ा में कराहती रही है और सृष्टि ही नहीं, हम भी भीतर-ही-भीतर कराहते हैं। (23) हमें तो पवित्र आत्मा के पहले कृपा-दान मिल चुके हैं, लेकिन इस ईश्वर की सन्तान बनने की और अपने शरीर की मुक्ति की राह देख रहे हैं। (24) हमारी मुक्ति अब तक आशा का ही विषय है। यदि कोई वह बात देखता है, जिसकी वह आशा करता है, तो यह आशा नहीं कही जा सकती। (25) हम उसकी आशा करते हैं, जिसे हम अब तक नहीं देख सके हैं। इसलिए हमें धैर्य के साथ उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ती है।“


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