वर्ष - 2, सातवाँ सप्ताह, मंगलवार

📒 पहला पाठ : याकूब 4:1-10

13) आप लोगों में जो ज्ञानी और समझदार होने का दावा करते हैं, वह अपने सदाचरण द्वारा, अपने नम्र तथा बुद्धिमान व्यवहार द्वारा इस बात का प्रमाण दें।

14) यदि आपका हृदय कटु ईर्ष्या और स्वार्थ से भरा हुआ है, तो डींग मार कर झूठा दावा मत करें।

15) इस प्रकार की बुद्धि ऊपर से नहीं आती, बल्कि वह पार्थिव, पाशविक और शैतानी है।

16) जहाँ ईर्ष्या और स्वार्थ है, वहाँ अशान्ति और हर तरह की बुराई पायी जाती है।

17) किन्तु उपर से आयी हुई प्रज्ञा मुख्यतः पवित्र है और वह शान्तिप्रिय, सहनशील, विनम्र, करुणामय, परोपकारी, पक्षपातहीन और निष्कपट भी है।

18) धार्मिकता शान्ति के क्षेत्र में बोयी जाती है और शान्ति स्थापित करने वाले उसका फल प्राप्त करते हैं।

📙 सुसमाचार : मारकुस 9:30-37

30) वे वहाँ से चल कर गलीलिया पार कर रहे थे। ईसा नहीं चाहते थे कि किसी को इसका पता चले,

31) क्योंकि वे अपने शिष्यों को शिक्षा दे रहे थे। ईसा ने उन से कहा, "मानव पुत्र मनुष्यों के हवाले कर दिया जायेगा। वे उसे मार डालेंगे और मार डाले जाने के बाद वह तीसरे दिन जी उठेगा।"

32) शिष्य यह बात नहीं समझ पाते थे, किन्तु ईसा से प्रश्न करने में उन्हें संकोच होता था।

33) वे कफ़रनाहूम आये। घर पहुँच कर ईसा ने शिष्यों से पूछा, "तुम लोग रास्ते में किस विषय पर विवाद कर रहे थे?"

34) वे चुप रह गये, क्योंकि उन्होंने रास्ते में इस पर वाद-विवाद किया था कि हम में सब से बड़ा कौन है।

35) ईसा बैठ गये और बारहों को बुला कर उन्होंने उन से कहा, "जो पहला होना चाहता है, वह सब से पिछला और सब का सेवक बने"।

36) उन्होंने एक बालक को शिष्यों के बीच खड़ा कर दिया और उसे गले लगा कर उन से कहा,

37) "जो मेरे नाम पर इन बालकों में किसी एक का भी स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह मेरा नहीं, बल्कि उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है।"

📚 मनन-चिंतन

कभी-कभी ऐसा होता है कि जब एक छात्र को कुछ भी समझ में नहीं आता है कि शिक्षक क्या पढ़ा रहा है, तो वह शिक्षक की बात सुनने के बजाय कक्षा में और कुछ कार्य करना शुरू कर लेता है। एक अच्छा और साहसी छात्र शिक्षक से स्पष्टीकरण मांगेगा, लेकिन शिक्षक से डरने वाला छात्र शिक्षक से स्पष्टीकरण मांगने की हिम्मत नहीं कर सकता है। येसु और उनके शिष्यों के साथ आज के सुसमाचार में कुछ ऐसा ही होता है। सुसमाचार लेखक हमें बताता है कि जब येसु अपने आसन्न दुख और मृत्यु के बारे में बोल रहे थे, तो शिष्यों को कुछ भी समझ नहीं आया और वे उनसे स्पष्टीकरण माँगने से डरते थे। इसलिए वे आपस में बहस करने लगे कि उनमें से कौन सबसे महान है। यह शायद उनके पसंदीदा विषयों में से एक था। येसु चाहते हैं कि उन्हें एहसास हो कि दूसरों की सेवा करने से ही वे महान बन सकते हैं। उन्होंने मसीह को पीड़ित सेवक के रूप में नहीं समझा था जो सेवा करने और अपना जीवन उन लोगों के लिए देने के लिए आये थे, जिनकी उन्होंने सेवा की थी। येसु के शिष्यों को येसु के सेवक होने के रहस्य को समझने की कोशिश करनी चाहिए और उन्हें अपने दैनिक जीवन में उनका अनुकरण करना चाहिए।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

It can happen that when a student does not understand anything of what the teacher has been teaching, he may start doing something else in the class instead of listening to the teacher any further. A good and courageous student would ask for clarifications, but a student who is afraid of the teacher may not dare asking the teacher for any clarification. Something similar happens in today’s gospel with Jesus and his disciples. The Gospel writer notes that when Jesus was speaking about his impending suffering and death, the disciples did not understand anything and they were afraid to ask him for any clarification. So they started arguing among themselves as to which of them was the greatest. This probably was one of their favorite topics. Jesus wants them to realize that it is by serving others that they can become great. They had not understood the Messiah as the suffering servant who came to serve and give his life for those whom he served. The disciples of Jesus should try to understand the mystery of the servanthood of Jesus and imitate him in their daily life.

-Fr. Francis Scaria


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