जनवरी 31

योहन बोस्को

16 अगस्त सन्1815 में इटली के बेक्की नामक स्थान पर योहन बोस्को का जन्म हुआ। फ्रांसिस तथा माग्रेरिटो उनके माता-पिता थे। योहन की दो साल की आयु में ही उनके पिता का देहान्त हो गया। उनकी माता ने उन्हें खेती करना सिखाया। साथ ही साथ उन्होंने उनको प्रकृति की सुन्दरता तथा फसलों के पीछे के ईश्वरीय हाथों के होने का अहसास कराया। उनकी माँ से उन्होंने प्रार्थना करना तथा गरीबों एवं जरूरतमंदों में ईश्वर को देखना सीखा। नौ साल की आयु में योहन बोस्को ने एक सपना देखा, जिसमें एक भव्य पुरूष दिखाई पडे़। उस भव्य पुरूष ने खेलने तथा ईशनिन्दा करने वाले गरीब बच्चों की भीड़ को योहन को दिखाते हुये कहा कि, ’’दयालुता तथा प्यार से तुम इन युवा दोस्तों को अधीन कर लोगे।’’ साथ ही एक भव्य महिला ने कहा,’’अपने को विनम्र, शक्तिशाली एवं बलवान बनाओ। सही समय पर तुम सबकुछ समझ जाओगे।’’ इसी सपने ने योहन को जीवन का लक्ष्य बताया। उसी दिन से गरीब बच्चों की भलाई के लिये काम करने का दृढ़ संकल्प लेकर योहन ने बच्चों को आकर्षित करने हेतु जादू तथा नये तरीके सीखने की कोशिश की। इन आकर्षक करतबों को देखकर बच्चे बड़ी संख्या में उनके पास आने लगे और वे उनको गिर्जाघर में सुनाये गये प्रवचनों को फिर से सुनाने लगे। वे खेलकूद के द्वारा बच्चों आकर्षित करके उन्हें ईशवचन सुनाने तथा धर्मशिक्षा सिखाने की कोशिश की।

योहन को लगा कि अनेक बच्चों को आकर्षित कर उनके लिये भलाई करने हेतु मुझे पढाई करके या प्रशिक्षण पाकर एक पुरोहित बनना होगा। उनका बड़ा भाई अंतोनी उनके साथ हमेशा झगड़ा करता रहता था। तंग आकर सन् 1827 फरवरी माह की एक ठण्डी सुबह को उन्होंने अपना घर छोड दिया। वे घर छोडकर एक किसान के यहाँ मजदूरी के बीच में भी उन्होंने किताबे पढने की कोशिश की। करीब तीन साल बाद जब उनके झगडालू भाई की शादी हुई तो योहन वापस घर लौटे और स्कूल जाने लगे। पहले कास्टेलनोवो और फिर कियरी में। रोजी-रोटी कमाने हेतु उन्होंने दर्जी तथा लोहार के काम सीखे। इस के अलावा अपने फुर्सत के समय में बच्चों को पढाने का काम शुरू किया। योहन बुद्धिमान तथा बडे परिश्रमी थे। उनमें अन्य बच्चों को आकर्षित करने का विशेष गुण था। 20 साल की आयु में उन्होंने पुरोहित बनने के लिये सेमिनरी में प्रवेश किया। 6 साल की पढ़ाई के बाद 5 जून 1841 को तूरीन के महाधर्माध्यक्ष ने योहन को पुरोहित के रूप में अभिषेक किया।

इसी के साथ अपने सपने को साकार करने का मार्ग योहन के लिये खुल गया। उन्होंने तूरीन की गली-गली घूमकर बच्चों को एकत्रित करने की कोशिश की। इस पर उन्हें पता चला कि जिस प्रकार उन्होंने सपने में देखा था उसी प्रकार बच्चे निन्दित, तिरस्कृत तथा शोशित थे। सबसे शोचनीय अनुभव उन्हें तब हुआ जब वे शहर के जेल पहुँचे। उन्होंने देखा कि 12 से 18 साल के बीच के लडके जो स्वस्थ, बलवान तथा बुद्धिमान थे, आध्यात्मिक तथा भौतिक रूप से भूखे थे। इस दयनीय हालात से बच्चों को बचाने के लिये कुछ कदम उठाने का निर्णय लिया। उस समय तूरीन में 16 पेरिश थे। वहाँ के पल्ली पुरोहितों का यह मानना था कि बच्चों को चर्च आकर धर्म शिक्षा ग्रहण करना चाहिये। परन्तु कई बच्चे विभिन्न कार्यों में व्यस्त थे और इस कारण वे धर्मशिक्षा में शामिल नहीं हो पाते थे। लेकिन योहन बोस्को ने यह माना कि हमें दुकानों, दफतरों तथा बाजारों में जाकर बच्चों से मिलना चाहिये। फादर योहन बोस्को के प्रभाव से अब कई युवा पुरोहित बच्चों से मिलने जाने लगे तथा उनकी आध्यात्मिक तथा भौतिक विकास के लिये प्रयत्न करने लगे। फादर योहन बोस्को की प्रथम लडके से 8 दिसंबर 1841 में मुलाकात हुई। 3 दिन के अन्दर 9 बच्चे, 3 महीने के अंदर 25 और गर्मी शुरू होने तक 80 बच्चे उनके पास थे। उन्होंने उन्हीं के साथ अपने युवा केन्र्त की शुरूआत की। वहाँ पर बच्चे रहते थे तथा प्रशिक्षण पाते थे। फादर बोस्को ने उनके लिये जो बेरोजगार थे रोजगार की खोज की तथा रोजगार के स्थानों में बच्चों के साथ मालिकों का अच्छा व्यवहार सुनिश्चितत किया। जो पढाई करना चाहते थे काम के बदले उनको पढ़ाया गया। बच्चों के सेवाकार्य करने के लिये पैसे की कमी सारी जिंदगी बनी रही। इस कार्य में उनकी प्रथम उपकारक उनकी माँ थी जिन्होंने अपना घर छोड़कर बच्चों के साथ रहने के अलावा अपने मूल्यवान गहनों को भी बेचकर प्राप्त रकम को इस कार्य में लगाया। उनमें से कुछ लडके फादर बोस्को के कार्यों से इतने प्रभावित हो गये कि उन्होंने उनका सहयोग करने का दृढ संकल्प लिया। उन्ही सहयोगियों के साथ उन्होंने सेलेशियन धर्मसमाज की स्थापना की।

फादर बोस्को ने महिलाओं के लिये ’’ख्रीस्तीयों की सहायक मरियम की बेटियाँ’’ नामक धर्मसमाज की स्थापना की। उन्होंने वालदोको नामक जगह पर ख्रीस्तीयों की सहायक मरियम के तीर्थस्थान की स्थापना की। उन्होंने 6 देशों में सेलेशियन धर्मसंघों की स्थापना की। किताबों के प्रकाशन में उनका योगदान सराहनीय रहा। उन्होंने अपने महान कार्यों का श्रेय माता मरियम को दिया। 31 जनवरी 1888 की भोर उन्होंने अंतिम श्वास ली।

उनका अंतिम संदेश यह था ’’एक-दूसरे को भाईयों तरह प्यार करो। सबकी भलाई करो तथा किसी की बुराई मत करो। मेरे लडकों से कहो कि मैं उनके लिये स्वर्ग में इंतजार करूँगा।’’ सन् 1929 में उनको धन्य घोषित किया गया। संत पापा पीयुस ग्यारहवें ने सन् 1934 में उन्हें संत घोषित किया।


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