अगस्त 21

संत पीयुस दसवें

बीसवीं सदी के भावी संत पिता का जन्म 2 जून 1835 को वेनेशिया के रीसे में हुआ था, उनका नाम योसेफ सार्तो था। तेईस साल की उम्र में (विशेष व्यवस्था द्वारा) अपने पुरोहिताभिषेक के बाद, उन्होंने 17 साल तक एक पल्लीपुरोहित के रूप में काम किया, फिर मांतुआ के धर्माध्यक्ष के रूप में, और 1892 में प्राधिधर्माध्यक्ष के मानद उपाधि के साथ वेनिस के महानगरीय धर्मप्रांतीय अधिकारी क्षेत्र के लिए उन्नत किए गए। 4 अगस्त, 1903 को, उन्हें संत पिता चुना गया, ‘‘ईश्वर का एक व्यक्ति जो दुनिया के दुख और जीवन की कठिनाइयों को जानते थे, और अपने दिल की महानता में सभी को दिलासा देना चाहते थे।‘‘

पीयुस दसवें ने अपने परमधर्मपीठ के प्राथमिक उद्देश्य को अपने पहले परिपत्र में घोषित किया, अर्थात, ‘‘ख्रीस्त में सभी चीजों को नवीनीकृत करना।‘‘ यहां हमें पवित्र परमप्रसाद के शीघ्र और बार-बार ग्रहण करने के बारे में उनके फरमान की ज़िक्र करने की आवश्यकता है। कलीसियाई संगीत पर उनकी पहल; दैनिक बाइबिल पठन और विभिन्न बाइबिल संस्थानों की स्थापना के लिए उनका प्रोत्साहन; रोमन कलीसियाई कार्यालयों का पुनर्गठन; कैनन कानून के संहिताकरण पर उनका काम; आधुनिकतावाद के खिलाफ उनका तीखा रुख, कि ‘‘सभी विधर्मों का संश्लेषण‘‘, ये सभी ख्रीस्त में सभी चीजों को नवीनीकृत करने के उनके मुख्य उद्देश्य की प्राप्ति के साधन थे।

प्रथम विश्व युद्ध का आरंभ, व्यावहारिक रूप से संत पेत्रुस के आसन पर उनके चुनाव की ग्यारहवीं वर्षगांठ की तारीख पर, वह आघात था जो उनकी मृत्यु का कारण बना। कुछ ही दिनों में फेफड़ों की बिमारी विकसित हो गई, और 20 अगस्त, 1914 को, पीयुस दसवें ने ‘‘आखिरी दुःख जो प्रभु मुझ पर आएगा‘‘ से दम तोड़ दिया। उन्होंने अपनी वसीयत में कहा था, ‘‘मैं गरीब पैदा हुआ था, मैं गरीब रहा हूँ, मैं गरीब मरना चाहता हूँ‘‘ - और किसी ने भी उनके शब्दों की सच्चाई पर सवाल नहीं उठाया। उनकी पवित्रता और चमत्कार करने की उनकी शक्ति को पहले ही पहचाना जा चुका था। 1672 में संत पियुस पाँचवें की संत घोषणा के बाद से पूयुस दसवें ही संत घोषित होने वाले पहले संत पिता थे।


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