अगस्त 30

संत एवुप्रासिया

संत एवुप्रासिया का जन्म 17 अक्टूबर 1887 को त्रिश्शूर जिले के काट्टूर गाँव में कुलीन तथा सम्पन्न एलवुत्तिंकल चेरप्पुक्कारन परिवार में हुआ था। वे अपने पिता श्री अंतोनी एवं माता श्रीमति कुंजेत्ती की प्रथम संतान थी। बच्ची के जन्म के आठवें दिन उसका बपतिस्मा एडतुरुत्ती पल्ली में हुआ तथा उसका नाम रोसा रखा गया। बचपन से ही रोसा का रूझान आध्यात्मिक बातों में रहता था। दृढ़ता, स्नेही स्वाभाव, दुख सहने की योग्यता, प्रार्थना, माता मरियम के प्रति भक्ति आदि उनके चरित्र की विशेषतायें थी, जो उन्होंने अपने माता-पिता से सीखी थी।
अल्पायु में ही बालिका रोसा ने अपने हृदय की उस इच्छा को पहचान लिया था कि उन्हें एक समर्पित जीवन जीना है। उन्होंने इस पवित्र बुलाहट के बीज को अपने हृदय में अंकुरित होने का अनुभव किया। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि नौ वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपने कुँवारेपन को ईश्वर को समर्पित कर दिया। समय आने पर उन्होंने अपने पिता को इस बात की सूचना की। यह सुनकर उनके पिता को गहरा झटका लगा क्योंकि वे अपनी प्रिय पुत्री का विवाह एक धनी तथा आकर्षक नवयुवक से करने का स्वप्न देख रहे थे। उनके पिता ने निश्चय किया कि वे रोसा को समर्पित जीवन जीने के लिये कांवेंट नहीं भेजेगें लेकिन यदि उनकी छोटी पुत्री ऐसा करना चाहे तो इसमें उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। लेकिन ईश्वर के मार्ग विपरीत थे। उनकी छोटी पुत्री गंभीर रूप से बीमार पड़ गयी और उसकी असमय मृत्यु हो गयी। अंत में रोसा को उनकी इच्छानुसार कांवेंट जाने की अनुमति मिल गयी।
उन दिनों संत चावरा कुरियाकोस द्वारा सन् 1866 में स्थापित, कूनम्माव स्थित संत तेरेसा कांवेंट एकमात्र कांवेंट था। बालिका रोसा ने सन् 1888 में प्रथम भारतीय महिला धर्मसंघ कार्मल सिस्टर्स के कांवेंट से संबंधित बोर्डिंग में प्रवेश लिया। रोसा को अपनी बुलाहट से संबधिंत बातों को लेकर अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा। इन परेशानियों में प्रमुख थी उनका खराब स्वास्थ्य।
उनके जीवन में दिव्य करूणा का हस्तक्षेप हुआ। पवित्र परिवार का दिव्यदर्शन तथा इसके बाद की चंगाई ने उनके आध्यात्मिक जीवन को और भी सुदृढ़ बनाया। इन सारी घटनाओं ने उनकी बुलाहट को और अधिक दृढ़ता प्रदान की तथा रोसा को उनके समर्पित जीवन के प्रति पूर्ण रूप से निश्चित बना दिया।
सन् 1896 में केरल की सिरियन कलीसिया में पुनः विभाजन हो गया। इसके परिणामस्वरूप एर्णाकुलम, त्रिश्शूर एवं चंगनाशेरी उपधर्मप्रान्त अस्तित्व में आये। धर्माध्यक्ष मार जॉन मेनाच्चेरी ने अम्बाज़ाकाट में कांवेंट शुरू किया तथा त्रिश्शूर उपधर्मप्रान्त की सभी सिस्टर्स को कूनम्माव से अम्बाज़ाकाट के कांवेंट में स्थांनातरित कर दिया। इस तरह एलवुत्तिंकल एवुप्रासिया उन नौ उम्मीदवारों के साथ जो कांवेंट में प्रवेष के लिये तैयारी कर रही थी अम्बाज़ाकाट आयी। नये कांवेंट के उद्घाटन के दूसरे दिन 10 मई 1897 को रोसा को शिरोवस्त्र तथा नया नाम ’’येसु के पवित्र हृदय की सिस्टर एवुप्रासिया’ प्रदान किया गया। 10 जनवरी 1898 में उन्होंने प्रथम व्रतधारण किया। सिस्टर एवुप्रासिया दिव्य प्रेम, प्रार्थना तथा धर्मसंघ के गुणों में निरंतर बढ़ती गयी तथा उन्हें ओल्लूर के कांवेंट में रहने की इजाजत मिली। उन्होंने 10 मई 1900 को स्वर्गारोहण के पर्व के दिन अपना अंतिम व्रत धारण किया। निष्कलंक माता मरियम से किसी अबोध बच्चे की तरह चिपके रहकर यूखारिस्तीय प्रकोष में उपस्थित येसु पर ध्यान केंद्रित करके तथा अपने आध्यात्मिक गुरू धर्माध्यक्ष मार जॉन मेनाशेरी के मार्गदर्शन में वे आध्यात्मिक तथा पवित्र जीवन की सीढ़ियाँ तेजी से चढती जा रही थी। अत्यंत फलदायी तथा पवित्र जीवन जीने के बाद 29 अगस्त 1952 को वे अपना अंनत पुरस्कार पाने इस जीवन से विदा हुई।
ततकालीन संत पापा बेनेडिक्ट सौहलवें की धर्मानुज्ञा के अनुसार कार्डिनल मार वर्की विथयातिल ने औल्लूर में सन् 2006 को पूज्यनीय एवाप्रासिया को ’’धन्य’’ घोषित किया तथा 23 नवंबर 2014 को वे रोम में संत पापा फ्रांसिस द्वारा संत घोषित की गयी। इस महान घटना को 10 जनवरी 2015 को कोच्चिन के औल्लूर में सिरो-मलाबार कलीसिया के प्राधि-धर्माध्यक्ष कार्डिनल मार जार्ज अलेनचेरी के मार्गदर्षन में बड़ी धूमधाम के साथ मनाया गया।

अनुवादक - फादर रोनाल्ड वॉन
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