अस्सीसी के संत फ्रांसिस

अक्टूबर 4

फ्रांसिस का जन्म सन1181 में इटली के अस्सीसी शहर में हुआ। उनके पिता का नाम पीयत्रो बेर्नारदोने तथा माता का नाम पीका था। पीयत्रो एक अमीर कपड़ा व्यापारी था। फ्रांसिस के जन्म के समय उनके पिता पीयत्रो फ्रांस में थे। जब वह वापस आया तब उसे पता चला कि उनके बेटे का नाम योहन रखा गया है। उसे ऐसा धार्मिक नाम पसन्द नहीं था। इसलिए उसने उनका नाम बदल कर फ़्रांसिस रख दिया। फ्रांसिस अस्सीसी शहर के युवकों के नेता के रूप में देखे जाते थे। उन्होंने एक शानदार तथा आरामदायक जीवन-शैली का आनंद लिया। सन 1202 में अस्सीसी और पेरूजा के बीच युध्द छिड गया और फ्रांसिस करीब एक साल के लिए कैदी बनाये गये। कैद से वापस आने पर वे बीमार हो गये।

एक बार उन्हें एक सपना या दर्शन हुआ जिसके बाद उनका जीवन पूरी तरह बदल गया। वे ज़्यादात्तर समय प्रार्थना में बिता कर ईश्वर की इच्छा को विवारने की कोशिश करते थे। तत्पश्चात्त‍ उनके जीवन में विभिन्न प्रकार के अनुभव हुए। एक बार उन्होंने एक कुष्ठरोगी को गले से लगाया। एक बार अस्सीसी शहर के फाटक के बाहर के सान दामियानो नामक जीर्ण गिरजाघर के अन्दर बलिवेदी के ऊपर के क्रूसित प्रभु की मूर्ति से उन्होंने यह आवाज़ सुनी, “फ्रांसिस जाओ और मेरे घर की मरम्मत करो”।

इसे सचमुच में लेते हुए, फ्रांसिस जल्दबाजी में घर गये, अपने पिता की दुकान से कुछ बढ़िया कपडे इकट्ठा किये और पास के शहर फोलिग्नो में जा पहुँचे, जहाँ उन्होंने कपडे और घोड़ा दोनों बेचे। फिर उन्होंने सन दामियानो में पुरोहित को पैसे देने की कोशिश की, जिसके इनकार ने फ्रांसिस को पैसे खिड़की से बाहर फेंकने के लिए प्रेरित किया। इस पर उनके पिता क्रोधित हो उठे और फ्रांसिस को शासकीय अधिकारियों के सामने लाये। फ्रांसिस ने उनके सामने जाने से इनकार किया। तब पीयत्रो ने उनके धर्माध्यक्ष के समक्ष फ्रांसिस के विरुध्द शिकायत की। फ्रांसिस ने अपना कपडा भी उतार कर अपने पिता को दे कर, अपने धर्माध्यक्ष के सामने ईश्वर को ही पिता मानने के अपने संकल्प की घोषणा की। फ्रांसिस ने गरीबी के जीवन को अपनाने के लिए सांसारिक वस्तुओं तथा पारिवारिक संबंधों को त्याग दिया।

24 फरवरी 1208 को उन्होंने मिस्सा बलिदान के दौरान संत मत्ती के सुसमाचार 10:7,9-11 के वचनों की घोषणा सुनी। उसी क्षण वे एक नये व्यक्ति बन गये। वे सब कुछ त्याग कर पश्चाताप का प्रवचन सुनाने लगे। फ्रांसिस की जीवन-शैली ने कुछ युवकों को आकर्षित किया। सन 1209 में उन्होंने पवित्र बाइबिल पर आधारित कुछ सादे नियम बना कर भिक्षुक शिष्यों के एक दल की स्थापना की। फ्रांसिस ने अपने 12 शिष्यों के साथ संत पापा इन्नोसेन्ट तृतीय के पास जाकर अपने धर्मसंघ के लिए मान्यता की माँग की। पहले संत पापा इन्नोसेंट हिचकिचा रहे थे, लेकिन एक सपने के बाद, जिसमें उन्होंने फ्रांसिस को लातेरन महागिर्जा को गिरने से बचाते हुए देखा, उन्होंने फ्रांसिस्कन जीवन शैली के लिए मौखिक स्वीकृति दी। यह घटना, परंपरा के अनुसार, 16 अप्रैल, 1210 को हुई। फ्रांसिस हमेशा प्रकृति से जुडे हुए रहना चाह्ते थे। वे सूर्य को भाई तथा चन्दमा को बहन मानते थे। वे प्रकृति का आदर करते थे।

सन 1212 में फ्रांसिस ने महिलाओं के लिए एक धर्मसंघ की भी स्थापना की। जो एक धार्मिक जीवन बिताना चाहते थे, बल्कि परिवार को छोड नहीं सकते थे, उन के लिए सन्‍1221 में फ्रांसिस ने “तपस्या के भाइ-बहनों के तीसरे धर्मसंघ” की स्थापना की।

सन्‍1223 में क्रिसमस के समय उन्होंने पहली बार एक चरनी बनायी। वे आध्यात्मिकता में बढ़ते गये तथा कई बार क्रूसित प्रभु के घाव उनके शरीर पर प्रकट होने लगे। अक्टूबर 3, सन‍ 1226 में स्तोत्र 142 सुनते-सुनते उनका निधन हुआ। 16 जुलाई 1228 को संत पापा ग्रिगोरी नौवें ने उनको संत घोषित किया। वे “द्वितीय ख्रीस्त” के नाम से जाने जाते हैं।


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