काथलिक धर्मशिक्षा

संस्कृतीकरण

संस्कृति सभ्यता का वह रूप है जो आध्यात्मिक एवं मानसिक वैशिष्ट्य का द्योतक है। संस्कृति से तात्पर्य है किसी भी समुदाय की सामाजिक व्यवस्था, परम्परा, रीति-रिवाज़, भाषा, साहित्य, कला, सामाजिक मानदण्ड और मूल्य। किसी भी समाज या देश की संस्कृति की अभिव्यक्ति उसके रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, पहनावे के तौर-तरीकों, भाषा, तथा संस्कारों के द्वारा होती है। संस्कृति एकदम से अस्तित्व में नहीं आती है बल्कि यह धीरे-धीरे रूप धारण करती तथा विकसित होती है। मानवजाति के विकास के साथ-साथ विभिन्न संस्कृतियों का विकास भी होता जाता है। जैसे-जैसे समाज में बदलाव आता जाता है वैसे-वैसे उसकी संस्कृति तथा अभिव्यक्ति में भी बदलाव आता जाता है। इस प्रकार हमारे रीति-रिवाज, रहन-सहन एवं भाषा में निरंतर बदलाव आता रहता है। अतः हम कह सकते हैं कि कोई भी संस्कृति कभी भी पूर्ण रूप से विकसित नहीं होती है। क्योंकि समाज जीवित मनुष्यों का समूह है तथा मनुष्य सृजनात्मक, क्रियात्मक, रचनात्मक तथा सक्रिय होते हैं।

इसी तरह अगर हम नज़र डालें तो पायेंगे कि हमारे देश की संस्कृति में पिछले 20-25 वर्षों में कई बदलाव आये हैं। हमने हमारे समाज की बदलती परिस्थतियों में अपनी संस्कृति को भी बदल डाला है, भले ही ये बदलाव अच्छे हो या नहीं। इस संसार में अनेक संस्कृतियाँ हैं, जैसे भारतीय-संस्कृति, यूरोपीय-संस्कृति, अमेरिकी-संस्कृति, अफ्रीकी-संस्कृति आदि। वास्तव में ’एक’ भारतीय संस्कृति की भी बात करना सच्चाई के विरूद्ध होगा क्योंकि भारत में विभिन्न संस्कृतियों का एक सम्पन्न समावेश ही पाया जाता है। मनुष्य की विचारधाराएं तथा मनोभाव उसकी संस्कृति से जुडे हैं।

हमें दूसरी संस्कृतियों से जुड़ी बातों तथा शिक्षा को ठीक रीति से समझना कठिन लगता है। जब उसी बात या शिक्षा को स्थानीय संस्कृति के अंकों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है तो हम उस बात या शिक्षा को सरलता से समझ पाते हैं। अगर हमारे धार्मिक रीति-रिवाज हमारी संस्कृति से मेल नहीं खाते तो हम अपने धार्मिक रीति-रिवाजों को समझ नहीं पायेंगे और न ही ऐसी धर्मविधि हममें गहरी भावनाएं उत्पन्न कर सकेगी।

पुराने विधान में हम देखते है कि ईश्वर मनुष्य के सामने अपने ही तरीके से प्रकट हो रहा था। ईश्वर ने मनुष्य के समक्ष अपने आप को आग, बादल और बादल की गर्जन, के रूपों में प्रकट किया। मनुष्य ईश्वर के ये रूप देख कर डरने लगा क्योंकि ये सब प्रकृति की ऐसी शक्तिशाली ताकतें थी जो मनुष्य की समझ से परे थी। इस तरह मानव ईश्वर को सही रूप से समझने में असमर्थ था। जैसे-जैसे सभ्यता बदलती तथा विकसित होती जा रही थी वैसे-वैसे नयी-नयी भाषायें, संस्कृति, सामाजिक तौर-तरीके अस्तित्व में आते गये। समय के बदलते परिवेश में ईश्वर ने स्वयं को मनुष्य के समक्ष अलग-अलग तरीकों तथा रूपों में प्रकट किया। ये सब ईश्वर ने इसलिये किया कि मानव उन्हें सही तथा स्पष्ट रूप से समझ सकें तथा उसका अनुभव कर पायें। समय की पूर्णता में ईश्वर ने मनुष्य को अपनी सही प्रकृति तथा विचारधारा समझाने के लिये स्वयं मनुष्य ही का रूप धारण किया तथा येसु के रूप में दुनिया में जन्म लिया। ईश्वर येसु के रूप में मानव शरीर धारण कर इस दुनिया में आये, मनुष्य की भाषा बोले, उसके समाज तथा दुनिया में रहे तथा उसकी सभ्यता तथा संस्कृति के अनुरूप अपने को ढाला ताकि मनुष्य ईश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त करें। येसु जो स्वयं ईश्वर थे, न सिर्फ मानव की भाषा बोले बल्कि उन्होंने अपनी शिक्षा को इस तरह प्रकट किया कि वह मानव की समझ में आ सकती थी। अपने दृष्टांतो में प्रभु येसु ने उस समय की संस्कृति में प्रचलित धारणाओं तथा रीति-रिवाजों का चित्रण किया। येसु के दृष्टांतों में राजाओं, मछुआरों, विधवाओं, भिखारियों, मेमनों, चरवाहों आदि के उदाहरण देखने को मिलते हैं जोकि उस समय के समाज के अभिन्न अंग थे। उन्होंने खेतों, चरागाहों, भोजों तथा निर्माणकार्यों की भी बात की। इस तरह हम देखते हैं कि ईश्वरीय संदेश को मानवीय संस्कृति तथा उसके सामाजिक परिपेक्ष में प्रस्तुत किया गया। ईश्वर का यह कार्य संस्कृतिकरण का सर्वोंत्तम उदाहरण है। येसु ने अपने जीवन में ईश्वरीय ज्ञान तथा मानवीय संस्कृति का समावेश किया। इस तरह ईश्वरीय ज्ञान को तत्कालीन संस्कृति में प्रस्तुत किया गया। इस सन्दर्भ में ईश्वरीय ज्ञान का संस्कृति पर ऐसा प्रभाव पडा कि संस्कृति को उस समय की कुरीतियों तथा कुकर्मों से सचेत किया तथा उसमंे बदलाव लाने की चुनौती दी। इस संबंध में उन्होंने महिला की दुर्गति, भेदभाव के मनोभाव, पददलितों की अवहेलना आदि पर प्रष्न चिह्न लगाया। इस प्रकार सुसमाचार के संपर्क में आकर संस्कृति को एक नई दिशा प्राप्त होती है।

येसु की मृत्यु तथा पुनरुत्थान के बाद उनके शिष्य ख्रीस्तीय संदेश या सुसमाचार को संसार के कौने-कौन में फैलाने लगे। जैसा कि विदित है, हर देश या क्षेत्र की उसकी अपनी अलग संस्कृति होती है। शिष्यों ने भी तत्कालीन संस्कृतियों के अनुरूप ख्रीस्तीय विश्वास को ढाला तथा प्रस्तुत किया। ऐसा करने पर भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के लोगों ने सुसमाचार को अपनी संस्कृति के ही अनुसार समझा। इस तरह हम देखते हैं कि शिष्यों ने सुसमाचार की मौलिकता के साथ समझौता किये बिना सुसमाचार को अलग-अलग रूप तथा ढंग से प्रस्तुत किया। अपने विश्वास तथा जीवन को स्थानीय संस्कृति में प्रस्तुत करने के कलीसिया के प्रयास को संस्कृतीकरण कहते हैं। संस्कृतीकरण के द्वारा ही लोग ख्रीस्तीय विश्वास तथा शिक्षा को गहराई तथा व्यक्तिगत रीति से समझ पाते हैं।

सुसमाचार का प्रचार-प्रसार करते-करते शिष्यगण रोम पहुँचे। रोमन साम्राज्य उस समय लगभग सारी ज्ञात दुनिया में फैला हुआ था तथा रोमन सभ्यता एवं संस्कृति उस समय के संसार की श्रेष्ठ संस्कृति मानी जाती थी। इसलिये ऐसा स्वाभाविक था कि शिष्यों ने रोमियों के लिए ख्रीस्तीय संदेश रोमन संस्कृति तथा रीति-रिवाजों में प्रस्तुत किया। रोमन संस्कृति का फैलाव तथा प्रभाव उस समय इतना अधिक था कि संसार के ज्यादातर हिस्सों में ख्रीस्तीय संदेश रोमन संस्कृति के अनुरूप ही प्रस्तुत किया गया। ऐसा करने से रोमन संस्कृति ख्रीस्तीय विश्वास का हिस्सा बन कर रह गयी। इस के कारण कलीसिया में एकरूपता पर ज्यादा जोर दिया गया और दूसरों को ख्रीस्तीय विश्वास को एक विदेशी संस्कृति में समझना या हृदय से ग्रहण करना कठिन महसूस हुआ। वतिकान महासभा ने इस कमी को दूर करने की कोशिश की तथा स्थानीय संस्कृति में ख्रीस्तीय विश्वास तथा आराधना की अभिव्यक्ति पर जोर दिया। उस समय से लेकर दुनिया भर की कलीसियाओं में काफी प्रयत्न किया जा रहा है कि सभी लोगों को ख्रीस्तीय विश्वास को अपनी ही संस्कृति में समझने तथा ईश्वर के प्रति अपने प्रेम एवं आराधना को अपनी संस्कृति में प्रकट करने की सुविधा प्राप्त हो। यह सच है कि वर्तमान समय में भी भारत में ज़्यादातर जगहों पर ख्रीस्तीय विश्वास को रोमन संस्कृति के अनुसार ही मनाया जाता है। हमारे गिर्जाघरों की बनावट, आंतरिक सजावट, मिस्सा बलिदान के परिधान आदि रोमन संस्कृति की निषानी है।

द्वितीय वतिकान सभा ने ख्रीस्तीय शिक्षा को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिये उसे स्थानीय संस्कृति के अनुरूप प्रस्तुत करने पर जोर दिया ताकि लोग येसु, उनके जीवन तथा शिक्षाओं को स्वयं की सामाजिक परिस्थितियों में साक्षात रूप से अनुभव कर सकें। भारत में भी सुसमाचार को स्थानीय संस्कृति के अनुरूप ढालने के अनेक प्रभावी प्रयास किये जा चुके हैं। येसु-समाजी यूरोपीय पुरोहित, रोबेर्तो डि नोबिली इसका एक उचित उदाहरण है। रोबेर्तो डि नोबिली ने सत्रहवीं सदी में ही सुसमाचार को भारतीय जीवन शैली में प्रस्तुत करते हुये इसे स्थानीय भारतीय भाषा तथा तौर-तरीकों का जामा पहनाया। उस समय उन्हें इस कार्य में भले ही आंषिक सफलता ही मिली हो, लेकिन आज उनके कार्यों की बडी सराहना की जाती है तथा एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो पाते हैं कि भारत में एक नहीं बल्कि बहुत संस्कृतियाँ हैं। हर प्रदेश एवं क्षेत्र की अपनी ही भाषा तथा संस्कृति है। इसलिये जब हम सुसमाचार को भारतीय संस्कृति में प्रस्तुत करने की बात करते हैं तो हमें यह ध्यान में रखना होगा कि यहाँ भारतीय संस्कृति से तात्पर्य स्थानीय संस्कृति से है। कई बार ख्रीस्तीयों के विरुद्ध यह आरोप लगाया जाता है कि हम विदेशी संस्कृति के अभिकर्ता हैं। कई लोगों को ऐसा लगता है कि जो ख्रीस्तीय विश्वास को अपनाते हैं वे एक पाश्चात्य संस्कृति को भी अपनाते हैं। जब हम इस आरोप की सकारात्मक दृष्टि से जाँच करते हैं, तो हमें पाते है कि शायद हम ख्रीस्तीय विश्वास को भारतीय संस्कृति के अनुसार प्रस्तुत करने में सफल नहीं हुए हैं। हमें प्रभु येसु के सुसमाचार को भारतीय संस्कृति के अनुकूल प्रस्तुत करने के लिए गंभीर कदम उठाने होंगे। इस सिलसिले में हमें न केवल बाहरी चीज़ों पर ध्यान देना होगा, बल्कि उससे भी ज़्यादा हमारे विश्वास को एक भारतीय दृष्टिकोण के मुताबिक प्रस्तुत करने के योग्य मनोभावना भी अपनानी होगी। हमें ख्रीस्त में हमारे विश्वास को पाश्चात्य संस्कृति से अलग कर स्थानीय या क्षेत्रीय संस्कृति में प्रस्तुत करना होगा। विविधता तथा एक दूसरे के प्रति उदारता भारतीय संस्कृति की पहचान है। क्षमा तथा सहनशीलता की ख्रीस्तीय शिक्षा को भारत की मिट्टी में पनपने का अवसर अवश्य मिलेगा। आत्मत्याग तथा ज़रूरतमन्दों की सेवा के ख्रीस्तीय मूल्यों को भारत देश में कितना अनुकूल वातावरण प्राप्त होगा?

कई भारतीय महान नेता ख्रीस्त की शिक्षा से बहुत ही प्रभावित हुए थे। समय की चुनौती यह है कि हम हमारे विश्वास को हमारे देश तथा समाज की संस्कृति के अनुसार प्रस्तुत करने की कोशिश करें। इस दिशा में सोचना तथा सकारात्मक उपाय अपनाना हर ख्रीस्तीय विश्वासी का कर्तव्य है। ईशशास्त्र तथा धर्मविधियों के क्षेत्रों में संस्कृतीकरण के लिए हमें महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे। सुसमाचार के प्रचार करने का यह उद्देश्य कभी भी नहीं हैं कि किसी भी संस्कृति को मिटाएं, बल्कि उस संस्कृति के अच्छे मूल्यों को स्वीकार करते हुए मनुष्य को सच्चे मार्ग दिखाए।

हम इस बात का खंडन नहीं कर सकते कि भूगोलिक परिस्थितियों तथा जलवायु का भी संस्कृति के विकास पर प्रभाव पड़ता है। आज की दुनिया में संचार तथा यातायात के साधनों का काफी विकास हो चुका है। समाजों के बीच की दूरी घट गयी है। अंग्रेजी भाषा एक विश्वस्तरीय भाषा हो चुकी है। इस प्रकार के वातावरण के चलते मनुष्य और मनुष्य, समाज और समाज तथा राष्ट्र और राष्ट्र के बीच की दूरी कम या लुप्त होने लगी है। इसी कारण संस्कृतियों के बीच आदान-प्रदान बड़े पैमाने पर होने लगा है। इस सम्बंध में लोग एक-दूसरे की संस्कृति के कुछ भागों को अपनाते है। कभी-कभी दूसरी संस्कृतियों के सम्पर्क में आकर लोग अपनी संस्कृति में परिवर्तन लाने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार के सभी परिवर्तन अच्छे होना अनिवार्य नहीं है। मानव सभ्यता को बनाये रखने के लिये दूसरी संस्कृतियों के सम्पर्क में अपनी संस्कृति में परिवर्तन लाते समय मानव जाति की भलाई को ध्यान में रखना बहुत ही ज़रूरी है। संस्कृतियों को और अधिक उत्कृष्ठ बनाने के लिए हमें एक-दूसरे की सहायता करनी चाहिये। प्रतिस्पद्र्धा की वर्तमान परिस्थिति में भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर को बचाना ख्रीस्तीयों की भी ज़िम्मेदारी है।


प्रश्न
1. पुराने विधान तथा नये विधान में ईश्वर स्वयं को किस प्रकार प्रकट करते हैं?
2. येसु ने अपने समय की संस्कृति को कैसे अपनाया?
3. रोमन संस्कृति का ख्रीस्तीय धर्म पर क्या प्रभाव पड़ा?
4. द्वितीय वतिकान महासभा ने संस्कृतीकरण की दिशा में क्या योगदान दिया है?
5. सुसमाचार की घोषणा करते समय हमें किस प्रकार स्थानीय संस्कृति को ध्यान में रखना चाहिए?
6. संस्कृतीकरण के हमारे प्रयासों में हमें किन-किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए?

दलों में चर्चा कीजिए
1. आप के अनुभवों के अनुसार वर्तमान की कलीसिया स्थानीय संस्कृति को अपना अपेक्षित स्थान देने में कहाँ तक सफल हुई है?
2. आप पल्ली स्तर पर संस्कृतीकरण की दिशा में क्या-क्या कदम उठा सकते हैं? सुझाव दीजिए।


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