पवित्र बाइबिल में हमारा विश्वास

’’ये तुम्हारे लिए निरे शब्द नहीं है, बल्कि इन पर तुम्हारा जीवन निर्भर है।’’

फादर माइकिल जॉन

1. प्रस्तावनाः

क) ईश वचन का महत्त्व: ’’ये तुम्हारे लिए निरे शब्द नहीं हैं, बल्कि इन पर तुम्हारा जीवन निर्भर है’’ (वि. वि. 32,47)।

  • नबी मूसा के अन्तिम शब्द - अति महत्त्वपूर्ण।
  • मूसा का अन्तिम आग्रह एंव आदेश:
    • इन्हें अपने हृदय पर अंकित करो;
    • इनका पालन करो;
    • अपने बच्चों को भी इन्हें पालन करने का निर्देश दो।
  • देखें: विधि-विवरण 32,44-47; 2 तिमथी 3,16-17

ख) ईश वचन के पठन, जानकारी, अध्ययन एंव व्याख्या का महत्त्व।

  • ईश वचन के मूल सन्देश को पहचानने एवं उसके अर्थ को गहराई से समझने के लिए पवित्र बाइबिल का अध्ययन करना अनिवार्य है।
  • देखें: प्रेरित-चरित 8,30-31; लूकस 24,25-27

ग) पवित्र बाइबिल हमारे लिएः

  1. ईश्वर का वचन;
  2. पवित्र धर्मग्रन्थ या धर्मशास्त्र;
  3. मुक्ति का इतिहास है।
  • ख्रीस्तीय विश्वासियों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक है।
  • दुनिया के एक-तिहाई लोगों के लिए पवित्र ग्रन्थ है।
  • आध्यात्मिक जीवन के लिए लाभदायक है।
  • ईश्वर की इच्छा को जानने का माध्यम है।

1. ’बाइबिल’ क्या है?

1.1 ’बाइबिल’ का शब्दिक अर्थ।

  • ’बाइबिल’ < ’बिब्लोस’ = पुस्तक (ग्रन्थ); ’बिब्लिया’ = पुस्तकें।
  • बाइबिल न केवल दुनिया का महानतम् पुस्तक है, वरन् अनेक रचनाओं का संकलन भी है।
  • सन्त जेरोम: ’’पवित्र बाइबिल एक दैविक पुस्तकालय है’’।
  • देखें: पवित्र बाइबिल की ’विषय-सूची’।

दैविक पुस्तकालय का प्रारूप

पुराना विधान
नया विधान
क) तैरेत (पंचग्रन्थ = 5 गन्थ) ख) ऐतिहासिक ग्रन्थ (16) क) सुसमाचार (4) ख) इतिहास: प्रेरित चरित (1)
ग) उपदेशक ग्रन्थ तथा काव्यात्मक ग्रन्थ (7) घ) नबियों का ग्रन्थ (18) ग) प्रेरितों के पत्र (21) घ) प्रकाशना ग्रन्थ (1)

1.2 पवित्र बाइबिल की उत्पत्ति एवं संरचना।

क) पुराना विधानः

  • कुल 46 ग्रन्थ;
  • पवित्र बाइबिल का प्रथम भाग;
  • मूल रूप से इब्रानी भाषा में;
  • बाइबिल की प्राचीनतम रचनाएँ;
  • ईसा ने स्वयं इन्हें धर्मग्रन्थ माना;
  • इनमें की गयी भविष्यवाणियाँ ईसा में पूर्ण हुई हैं।
  • देखें: इसायाह 40,3-4/ मत्ती 3,1-3; इसायाह 7,14/ मत्ती1,22-23; मीकाह 5,1/ मत्ती ,5-6; यिरमियाह 31,15/ मत्ती 2,17-18
  • ईसाई इन्हें अपनी धार्मिक विरासत मानते हैं।

ख) नया विधानः

  • ईसा ने सुसमाचार की घोषण मात्र की।
  • शिष्यों की प्राथमिकताः
  1. सुसमाचार प्रचार करना;
  2. ईसा के पुनरूत्थान का साक्ष्य देना;
  3. विश्वासी समुदाय का गठन करना।
  • कुछ प्रेरित, सुसमाचार प्रचारक एंव कुछ उपदेशकों जैसेः सन्त पौलुस (50-65 ईसवीं), सन्त मारकुस, मत्ती, लूकस, योहन (65-110 ईसवीं) ने कुछ रचनाएँ लिखीं - इन्हें ईश्वर की वाणी, धर्मग्रन्थ का दर्जा प्राप्त हुआ।
  • अतः ख्र्रीस्तीय विश्वासियों एवं धर्मप्रचारकों द्वारा रचित लेखों का संकलन = नया विधान।

1.3 पवित्र बाइबिल = ईश वचन या प्रभु की वाणी।

  • यहूदी केवल 36 ग्रन्थ (इब्रानी भाषा में रचित) को ही धर्मग्रन्थ मानते हैं।
  • सुधारवादी (प्रोटेस्टेन्ट) बाइबिल संस्करण में केवल 39 + 27 = 66 ग्रन्थ हैं।
  • कैथोलिक बाइबिल में 46 + 27 = 73 ग्रन्थ हैं।
  • सन् 1546 में ट्रेन्ट (इटली) की महासभा ने इन सभी लेखों को धर्मग्रन्थ की अधिकृत मान्यता दी।

1.4 पवित्र बाइबिल की रचना में ईश्वर का योगदान।

  • सम्पूर्ण पवित्र बाइबिल ईश्वर की प्रेरणा से लिखा गया है।
  • इसमें व्याप्त ग्रन्थों के मूल स्रोत स्वयं ईश्वर हैं।
  • लेकिन पवित्र बाइबिल की रचना में मानवों (लेखकों) का भी बराबर योगदान है।
  • द्वितीय वेटिकन महासभा: ’’ईश्वर की अदृश्य सहायता से पवित्र लेखकों ने अपनी स्वतंत्र, प्रतिभा एंव अपनी व्यक्तिगत शैली अखण्डित रखते हुए तथा देश-काल की सीमाओं में आबद्ध रहकर वही लिखा जो ईश्वर चाहता था’’ (DV 11-13)।
  • देखे: 2 तिमथी 3,15-17; 2 पेत्रुस 1,20-21
  • पवित्र बाइबिल: ’’मनुष्यों द्वारा मानव शब्द-शैली में लिखित ;लिपिबद्व किया गयाद्ध ईश्वर की वाणी है।’’

1.5 क्या पवित्र बाइबिल ईश्वर की ’वाणी’ मात्र है?

  • सृष्टि के प्रारम्भ से सृष्टिकर्त्ता ईश्वर की इच्छा यह रही कि मानवजाति उसे जाने एवं उससे सम्बन्ध स्थापित कर उसकी कृपा के सहभागी बनें।
  • ईश्वर का सम्बोधन् न केवल शब्दों के माध्यम से वरन् विशेष रूप से चुने गये लोगों के जीवन में ईश्वर द्वारा किये गये कार्यों एवं उनके ईश्वरीय-अनुभवों के माध्यम से भी होता है।
  • इस प्रकार पवित्र बाइबिल में ईश्वर के मुक्तिदायक वचन या संदेश एंव मुक्तिकार्य दोनों का वर्णन मिलता है।

1.6 क्या पवित्र बाइबिल ईश्वर के एकतरफा सम्बोधन मात्र हैं?

  • पवित्र बाइबिल में मानवजाति को ईश्वरीय कृपा के सहभागी होने के निमन्त्रण के अलावा, ईश्वर के उस निमन्त्रण के प्रति विभिन्न अवसरों पर मानवजाति की प्रतिक्रिया का भी वर्णन मिलता है।
  • देखें: इब्रा. 1,1-4; स्तोत्र 78

1.7 पवित्र बाइबिल ’मुक्ति का इतिहास’ है।

  • पवित्र बाइबिल में मानव मुक्ति के इतिहास की सभी महत्त्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन मिलता है।
  • मुक्ति-इतिहास के महत्त्वपूर्ण घटनाओंध्चरणों के वर्णन के लिए,
  • देखें: 1) इस्राएलियों का धर्मसार: वि. वि. 26,1-11; 2) सिखेम में विधान का नवीनीकरण: योशुआ 25,1-13; 3) सन्त पौलुस का भाषण: प्रे. च. 13,13-39.

1.8 पवित्र बाइबिल = मुक्ति-इतिहास।

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1.8.1. मुक्ति-इतिहास के दो भागः

1. पुराना विधान - पहला भाग (46 पुस्तकें)।

  • मूसा की मध्यस्थता से इस्राएल जाति के साथ ईश्वर द्वारा स्थापित प्रेम के विधान का वर्णन।
  • देखे: निर्गमन 20-24

2. नया विधान - दूसरा भाग (27 पुस्तकें)।

  • ईश्वर द्वारा अपने पुत्र ईसा मसीह की मध्यस्थता से हम मानवों के साथ स्थापित विधान का वर्णन।
  • देखें: मत्ती 26,26-29; 1 कुरिंथ 11,23-26

1.8.2. ’मुक्ति-इतिहास’ के चार चरण।

  • सम्पूर्ण मुक्ति-इतिहास के चार महत्वपूर्ण चरण हैं।
  1. सृष्टि के प्रारम्भ से इब्राहीम तकः आदम से इब्राहीम तक।
  2. अब्रहाम से प्रभु येसु के आगमन तक।
    (इन दोनों चरणों का वर्णन पुराने विधान के लेखों में मिलता है।)
  3. प्रभु येसु के जन्म से उनके पुनरागमन तक।
    (इस चरण का वर्णन नये विधान के लेखों में मिलता है।)
  4. नया आकाश एवं नई पृथ्वी की स्थापना का समय।

1.8.3. मुक्ति-इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण घटनाएँ:

  • कुलपति इब्राहिम का बुलावा : करीब 1850 ई.पू
  • इस्रायलियों का मिस्र देश में प्रवास : करीब 1500-1250 ई.पू
  • इस्रायलियों का मिस्र से निर्गमन (मुक्ति) : करीब 1250 ई.पू
  • योशुआ का नेतृत्व : करीब 1200 ई.पू
  • न्याकर्त्ताओं का काल : करीब 1200-1025 ई.पू
  • साऊल का राजाभिषेक : करीब 1040 ई.पू
  • दाऊद का राजाभिषेक : करीब 1010 ई.पू
  • सुलेमान का राजाभिषेक : करीब 970 ई.पू
  • ईस्रायल राज्य का विभाजन : करीब 931 ई.पू
  • नबियों का काल (आमोस से जोएल) : करीब 750-350 ई.पू
  • बाबूल में निर्वासन : करीब 587 ई.पू.
  • बाबूल निर्वसन से वापसी : करीब 539 ई.पू.
  • मक्काबियों का काल : करीब 167 ई.पू
  • योहन बप्तिस्ता का जन्म : करीब 6-र्5 इं.
  • ईसा का जन्म : करीब 6-र्5 इं./li>
  • योहन बप्तिस्ता का उपदेश : 27 ईं.
  • ईसा द्वारा सुसमाचार प्रचार का शुभारम्भ : 27 ईं.
  • ईसा का दु:खभोग, मरण एंव पुनरूत्थान : 30 ईं.
  • सन्त पौलुस का धर्मपरिवर्तन एवं सुसमाचार प्रचार : 45-67 ईं.
  • कलीसिया की प्रथम महासभा (येरूसालेम) : 49 ईं.
  • सन्त पेत्रुस एंव पौलूस की शहादत : 67 ईं.

1.9 पवित्र बाइबिल की उत्पत्ति एवं लिखने का उद्देश्य: विश्वास (योहन 20,30-31)

1.9.1 पवित्र बाइबिल विश्वास से उत्पन्न रचना है।

  • पवित्र बाइबिल के लेखक विश्वासी थे।
  • इन लेखकों ने पवित्र बाइबिल के विभिन्न पुस्तकें की रचाना अपने विश्वास से प्रेरित होकर किया है।
  • पवित्र बाइबिल में विभिन्न लेखकों ने स्वयं अपने एवं अपने लोगों के जीवन के (ईश्वरीय) अनुभवों को अपने विश्वास के आधार पर व्याख्या कर लिपिबद्व किया है।
  • इसलिए एक विश्वासी ही पवित्र बाइबिल को समझ सकता है या उसमें व्याप्त ईश्वर के सन्देश को पहचान सकता है।

1.9.2 पवित्र बाइबिल लोगों में विश्वास जगाने के उद्देश्य से लिखा गया है।

  • पवित्र बाइबिल के विभिन्न किताबों के लेखकों का एक मात्र उद्देश्य यह था कि इसे पढ़ने वालों के मन में भी विश्वास उत्पन्न हो।
  • पवित्र लेखकों ने इस आशा से ईश्वर की वाणी को लिपिबद्व करने का कठिन कार्य किया है, ताकि उसे पढ़ने वाले भी पवित्र बाइबिल में वर्णित घटनाओं को उसी विश्वास के दृष्टिकोण से देखें एंव समझें, जैसे स्वयं पवित्र लेखकों ने देखा तथा समझा है।
  • देखें: योहन 20,30-31।

1.10: पवित्र बाइबिल के पाठक ध्यान रखें:

  • पवित्र बाइबिल में वर्णित हर घटना या शिक्षा के माध्यम से पवित्र लेखक अपने विष्वास का साक्ष्य देता है।
  • इसमें लेखक पाठकों को महत्त्वपूर्ण सन्देश सम्प्रेषित करते हैं।
  • इस पाठ में आमन्त्रण का भाव निहित है।
  • पाठक इस आमन्त्रण को अस्वीकार कर, पवित्र बाइबिल को एक साहित्य अथवा इतिहास के रूप में भी पढ़ सकता है।
  • पाठक पवित्र लेखकों के निमंत्रण को स्वीकार भी कर सकता है।
  • तभी पवित्र बाइबिल का ईश वचन के रूप में (यथोचित) पाठ प्रारम्भ होता है।
  • ऐसे पाठ में पाठक पवित्र लेखक के साथ संवाद प्रारम्भ करने, उसके अनुभव के सहभागी होने के लिए तत्पर होता है।
  • तभी ईश वचन जिसमें पवित्र लेखक अपने विष्वास का जो साक्ष्य देता है, वही विष्वास पाठक में भी उत्पन्न करता है।

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