मंगलवार, 02 जनवरी, 2024

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

📒 पहला पाठ: 1 योहन 2:22-28

22) झूठा कौन है? वह, जो ईसा को मसीह नहीं मानता। वही मसीह-विरोधी है। वह पिता और पुत्र, देानों को अस्वीकार करता है।

23) जो पुत्र को अस्वीकार करता है, उस में पिता का निवास नहीं है। जो पुत्र को स्वीकार करता है, उस में पिता का निवास है।

24) जो शिक्षा तुम लोगों ने प्रारम्भ से सुनी, वह तुम में बनी रहे। जो शिक्षा तुम लोगों ने प्रारम्भ से सुनी, यदि वह तुम में बनी रहेगी, तो तुम भी पुत्र तथा पिता में बने रहोगे।

25) मसीह ने हम से जो प्रतिज्ञा की, वह है- अनन्त जीवन।

26) मैंने ये बातें तुम को उन लोगों के विषय में लिखीं हैं, जो तुम्हें भटकाना चाहते हैं।

27) तुम लोगों को मसीह से जो पवित्र आत्मा मिला, वह तुम में विद्यमान रहता है; इसलिए तुम को किसी अन्य गुरु की आवश्यकता नहीं। वह तुम्हें सब कुछ सिखलाता है। उसकी शिक्षा सत्य है, असत्य नहीं। तुम उस शिक्षा के अनुसार मसीह में बने रहो।

28) बच्चो! अब तुम उन में बने रहो, जिससे जब वह प्रकट हों, तो हमें पूरा भरोसा हो और उनके आगमन पर उन से अलग होने की निराशा न हो।

📙 सुसमाचार : सन्त योहन 1:19-28

19) जब यहूदियों ने येरुसालेम से याजकों और लेवियों को योहन के पास यह पूछने भेजा कि आप कोन हैं,

20) तो उसने यह साक्ष्य दिया- उसने स्पष्ट शब्दों में यह स्वीकार किया कि मैं मसीह नहीं हूँ।

21) उन्होंने उस से पूछा, ‘‘तो क्या? क्या आप एलियस हैं?’’ उसने कहा, ‘‘में एलियस नहीं हूँ’’। ‘‘क्या आप वह नबी हैं?’’ उसने उत्तर दिया, ‘‘नहीं’’।

22) तब उन्होंने उस से कहा, ‘‘तो आप कौन हैं? जिन्होंने हमें भेजा, हम उन्हें कौनसा उत्तर दें? आप अपने विषय में क्या कहते हैं?’’

23) उसने उत्तर दिया, ‘‘मैं हूँ- जैसा कि नबी इसायस ने कहा हैं- निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज़ः प्रभु का मार्ग सीधा करो’’।

24) जो लोग भेजे गये है, वे फ़रीसी थे।

25) उन्होंने उस से पूछा, ‘‘यदि आप न तो मसीह हैं, न एलियस और न वह नबी, तो बपतिस्मा क्यों देते हैं?’’

26) योहन ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘मैं तो जल में बपतिस्मा देता हूँ। तुम्हारे बीच एक हैं, जिन्हें तुम नहीं पहचानते।

27) वह मेरे बाद आने वाले हैं। मैं उनके जूते का फीता खोलने योग्य भी नहीं हूँ।’’

28) यह सब यर्दन के पास बेथानिया में घटित हुआ, जहाँ योहन बपतिस्मा देता था।

📚 मनन-चिंतन

योहन 1:19-28 में, हम योहन बपतिस्ता से उसकी पहचान के बारे में पूछताछ की जाने की घटना पाते हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या वह मसीहा हैं, तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक इससे इनकार कर दिया, लेकिन खुद को आने वाले मसीह के लिए रास्ता तैयार करने वाली आवाज के रूप में घोषित किया। योहन विनम्रता के महत्व पर जोर देते हैं और अपने से महान व्यक्ति की ओर इशारा करते हैं। यह अनुच्छेद हमें आत्म-जागरूकता के गुण और उस उद्देश्य को पूरा करने की तत्परता के बारे में सिखाता है जो हमारी महत्वाकांक्षाओं से बड़ा है। योहन की प्रतिक्रियाओं से उद्देश्य की गहरी समझ और दैवीय योजना में उनकी भूमिका की समझ का पता चलता है। उनके संदेश की सरलता इस विचार से प्रतिध्वनित होती है कि कभी-कभी, हमारा उद्देश्य मुख्य पात्र बनना नहीं, बल्कि एक महत्वपूर्ण सहायक भूमिका निभाना होता है। यह परिच्छेद हमें अपने जीवन पर चिंतन करने और अस्तित्व के बड़े आख्यान में अपनी अनूठी भूमिकाओं को पूरा करने में विनम्रता के महत्व को पहचानने के लिए प्रोत्साहित करता है। अंततः, योहन 1:19-28 हमें विनम्रता को अपनाने के लिए आमंत्रित करता है, यह स्वीकार करते हुए कि हम एक भव्य कहानी का हिस्सा हैं जहां प्रत्येक व्यक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह अनुच्छेद हमें दूसरों की सेवा करने और ऐसे उद्देश्य के प्रति ग्रहणशील होने में अर्थ खोजने के लिए प्रोत्साहित करता है जो हमारी व्यक्तिगत इच्छाओं से परे हो सकता है।

- फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

In John 1:19-28, we find the story of John the Baptist being questioned about his identity. When asked if he is the Messiah, he humbly denies it, but declares himself as a voice preparing the way for the coming one. John emphasizes the importance of humility, pointing to someone greater than himself. This passage teaches us about the virtue of self-awareness and the readiness to serve a purpose which is larger than our ambitions. John’s responses reveal a profound sense of purpose and an understanding of his role in the divine plan. The simplicity of his message resonates with the idea that sometimes, our purpose is not to be the main character but to play a crucial supporting role. This passage encourages us to reflect on our own lives and recognize the significance of humility in fulfilling our unique roles in the larger narrative of existence. Ultimately, John 1:19-28 invites us to embrace humility, acknowledging that we are part of a grander story where each person has a vital role to play. The passage encourages us to find meaning in serving others and being receptive to a purpose that may transcend our individual desires.

-Fr. Paul Raj

📚 मनन-चिंतन-2

सुकरात कहते थे, "खुद को जानो"। स्वयं को पहचानने से हम आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं। जितना समग्र अपना आत्मज्ञान होता है, उतना ही बेहतर हम विभिन्न परिस्थितियों का सामना कर पायेंगे। आज के सुसमाचार में, संत योहन बपतिस्ता की पहचान के बारे में पूछताछ की जाती है। वे अपनी पहचान को न बडा-चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं और न ही मूल्य घटा कर। उन्होंने इनकार किया कि वे मसीह, एलिय्याह या नबी थे। उन्होंने अपनी पहचान "निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज़" के रूप में व्यक्त की। उन्होंने यह नहीं कहा कि वे निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले हैं, लेकिन पुकारने वाले की 'आवाज'। इसका तात्पर्य यह है कि वे किसी और की ओर से बोलते हैं। वे ईश्वर के लिए एक मुखपत्र है जो लोगों को पश्चाताप करने के लिए कहते हैं। कितना बडा आत्म-ज्ञान! संत अगस्तीन संत योहन बपतिस्ता को आवाज और ख्रीस्त को वचन कह कर उनकी तुलना करते हैं। (उपदेश 293, 3: PL 1328-1329) न्यूयॉर्क के महाधर्माध्यक्ष टिमोथी डोलन पुरोहितों को याद दिलाते थे कि उनकी बुलाहट एक पहचान है, न कि एक पेशा और न ही केवल एक कैरियर और इसलिए उन्हें पवित्रता का जीवन बिताना चाहिए। हमारे लिए यह ज़रूरी है कि हम अपनी वास्तविक पहचान के बारे में लगातार जागरूक रहें ताकि हम ईश्वर के प्रति वफादार रह सकें। संत योहन बपतिस्ता हमें इसी के लिए प्रेरित करें।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

Socrates used to say, “know thyself”. Knowing one’s own identity is what we term as self-awareness. The more you know about your own identity, the better you are able to adapt to every situation. In the Gospel of the day, we have John the Baptist who is questioned about his identity. St. John the Baptist neither had an inflated sense of self-worth, nor did have a deflated one. He denied that he was the Christ, Elijah or the prophet. He then articulated his identity as “A voice of one that cries in the desert”. He did not say that he was the one that cried in the desert, but ‘the voice’ of the one that cries in the desert. He speaks on behalf of someone else. He is a mouthpiece for God who calls people to repentance. What a great self-awareness! St. Augustine compared John the Baptist, the voice with Jesus, the Word (Sermo 293, 3: PL 1328-1329) Archbishop Timothy Dolan of New York used to remind the priests that their vocation was an identity, not simply a career, and thus it must be lived with holiness. It is important for us to be constantly aware of our true identity so that we can be faithful to God. May St. John the Baptist inspire us for the same.

-Fr. Francis Scaria