मंगलवार, 16 जनवरी, 2024

सामान्य काल का दूसरा सप्ताह

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📒 पहला पाठ: समुएल का पहला ग्रन्थ 16:1-13

1) प्रभु ने समूएल से कहा, ‘‘तुम कब तक उस साऊल के कारण शोक मनाते रहोगे, जिसे मैंने इस्राएल के राजा के रूप में अस्वीकार किया है? तुम सींग में तेल भर कर जाओ। मैं तुम्हें बेथलेहेम-निवासी यिशय के यहाँ भेजता हूँ, क्योंकि मैंने उसके पुत्रों में एक को राजा चुना है।"

2) समूएल ने यह उत्तर दिया, ‘‘मैं कैसे जा सकता हूँ? साऊल को इसका पता चलेगा और वह मुझे मार डालेगा।’’ इस पर प्रभु ने कहा, ‘‘अपने साथ एक कलोर ले जाओ और यह कहो कि मैं प्रभु को बलि चढ़ाने आया हूँ।

3) यज्ञ के लिए यिशय को निमन्त्रण दो। मैं बाद में तुम्हें बताऊँगा कि तुम्हें क्या करना है- मैं जिसे तुम्हें दिखाऊँगा, उसी को मेरी ओर से अभिशेक करोगे।’’

4) प्रभु ने जो कहा था, समूएल ने वही किया। जब वह बेथलेहेम पहुँचा, तो नगर के अधिकारी घबरा कर उसके पास दौडे़ आये और बोले, ‘‘कैसे पधारे? कुशल तो है?’’

5) समूएल ने कहा, ‘‘सब कुशल है। मैं प्रभु को बलि चढ़ाने आया हूँ। अपने को शुद्ध करो और मेरे साथ बलि चढ़ाने आओ।’’ उसने यिशय और उसके पुत्रों को शुद्ध किया और उन्हें यज्ञ के लिए निमन्त्रण दिया।

6) जब वे आये और समूएल ने एलीआब को देखा, तो वह यह सोचने लगा कि निश्चय ही यही ईश्वर का अभिषिक्त है।

7) परन्तु ईश्वर ने समूएल से कहा, ‘‘उसके रूप-रंग और लम्बे क़द का ध्यान न रखो। मैं उसे नहीं चाहता। प्रभु मनुष्य की तरह विचार नहीं करता। मनुष्य तो बाहरी रूप-रंग देखता है, किन्तु प्रभु हृदय देखता है।’’

8) यिशय ने अबीनादाब को बुला कर उसे समूएल के सामने उपस्थित किया। समूएल ने कहा, ‘‘प्रभु ने उसे को भी नहीं चुना।’’

9) तब यिशय ने शम्मा को उपस्थित किया, किन्तु समूएल ने कहा, ‘‘प्रभु ने उस को भी नहीं चुना।’’

10) इस प्रकार यिशय ने अपने सात पुत्रों को समूएल के सामने उपस्थित किया। किन्तु समूएल ने यिशय से कहा, ‘‘प्रभु ने उन में किसी को भी नहीं चुना।’’

11) उसने यिशय से पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे पुत्र इतने ही है? ’’यिशय ने उत्तर दिया, ‘‘सब से छोटा यहाँ नहीं है। वह भेडे़ चरा रहा है।‘‘ तब समूएल ने यिशय से कहा, ‘‘उसे बुला भेजो। जब तक वह नहीं आयेगा, हम भोजन पर नहीं बैठेंगे।’’

12) इसलिए यिशय ने उसे बुला भेजा। लड़के का रंग गुलाबी, उसकी आँखें सुन्दर और उसका शरीर सुडौल था। ईश्वर ने समूएल से कहा, ‘‘उठो, इसका अभिशेक करो। यह वही है।’’

13) समूएल ने तेल का सींग हाथ में ले लिया और उसके भाइयों के सामने उसका अभिशेक किया। ईश्वर का आत्मा दाऊद पर छा गया और उसी दिन से उसके साथ विद्यमान रहा। समूएल लौट कर रामा चल दिया।

📙 सुसमाचार : सन्त मारकुस 2:23-28

23) ईसा किसी विश्राम के दिन गेहूँ के खे़तों से हो कर जा रहे थे। उनके शिष्य राह चलते बालें तोड़ने लगे।

24) फ़रीसियों ने ईसा से कहा, ’’देखिए, जो काम विश्राम के दिन मना है, ये क्यों वही कर रहे हैं?’’

25) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ’’क्या तुम लोगों ने कभी यह नहीं पढ़ा कि जब दाऊद और उनके साथी भूखे थे और खाने को उनके पास कुछ नहीं था, तो दाऊद ने क्या किया था?

26) उन्होंने महायाजक अबियाथार के समय ईश-मन्दिर में प्रवेश कर भेंट की रोटियाँ खायीं और अपने साथियों को भी खिलायीं। याजकों को छोड़ किसी और को उन्हें खाने की आज्ञा तो नहीं थी।’’

27) ईसा ने उन से कहा, ’’विश्राम-दिवस मनुष्य के लिए बना है, न कि मनुष्य विश्राम-दिवस के लिए।

28) इसलिए मानव पुत्र विश्राम-दिवस का भी स्वामी है।’’

📚 मनन-चिंतन

मारकुस 2:23-28 से लिया गया आज का सुसमाचार-अंश हमें विश्राम दिवस के पालन के संबंध में येसु और फरीसियों के बीच हुये वाद-विवाद पर विचार करने के लिए आमंत्रित करता है। कहानी की शुरुआत येसु और उनके शिष्यों के विश्राम के दिन एक अनाज के खेत से गुज़रने से होती है। जैसे ही वे खाने के लिए अनाज की बालें तोड़ते हैं, फरीसी, जो विश्राम दिवस के कानूनों का सख्ती से पालन करने के लिए जाने जाते हैं, इस गैरकानूनी गतिविधि के बारे में येसु से सवाल करते हैं। येसु ने राजा दाऊद से जुड़ी एक घटना का जिक्र करते हुए जवाब दिया कि जब राजा दाऊद ने और उसके साथियों ने पवित्र रोटी खाई थी, जो आम तौर पर याजकों के लिए आरक्षित थी। ऐसा करते हुए, येसु इस सिद्धांत पर जोर देते हैं कि विश्राम दिवस मनुष्य के लिए बना है, न कि मनुष्य विश्राम दिवस के लिए। यह हमें याद दिलाता है कि येसु सच्चे आराम का स्रोत हैं। विश्राम दिवस, जो शुरू में आराम के दिन के रूप में दिया गया था, मसीह में अपनी अंतिम पूर्णता पाता है। जैसे-जैसे हम उसका अनुसरण करते हैं, हम एक विश्राम की खोज करते हैं जो नियमों और रीति-रिवाजों से परे होता है। यह हमारी आत्माओं के लिए आराम है, वह आराम जो येसु में विश्वास के माध्यम से ईश्वर के साथ सही रिश्ते में रहने से आता है। फरीसी बाहरी अनुष्ठानों पर ध्यान केंद्रित करते थे, लेकिन येसु हमारा ध्यान हृदय की ओर निर्देशित करते हैं। वह हमें अपने प्रेम, दया और अनुग्रह में आराम करने के लिए आमंत्रित करते हैं। हमारा विश्वास कठोर नियमों के बारे में नहीं है, बल्कि विश्राम दिवस के स्वामी के साथ एक रिश्ते के बारे में है, जो हमारे थके हुए दिलों में शांति और ताज़गी लाता है।

- फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Today’s Gospel passage from Mark 2:23-28 invites us to reflect on an encounter between Jesus and the Pharisees regarding the observance of the Sabbath. The story begins with Jesus and His disciples walking through a grainfield on the Sabbath. As they pluck heads of grain to eat, the Pharisees, known for their strict adherence to the Sabbath laws, question Jesus about this seemingly unlawful activity. Jesus responds by referring to an incident involving King David when he and his companions ate the consecrated bread, which was generally reserved for the priests. In doing so, Jesus emphasizes the principle that the Sabbath is made for humanity, not humanity for the Sabbath. It reminds us that Jesus is the source of true rest. The Sabbath, initially given as a day of rest, finds its ultimate fulfillment in Christ. As we follow Him, we discover a rest that goes beyond rules and rituals. It is a rest for our souls, a rest that comes from being in a right relationship with God through faith in Jesus. The Pharisees were focused on external observances, but Jesus directs our attention to the heart. He invites us to rest in His love, mercy, and grace. Our faith is not about rigid rules but about a relationship with the Lord of the Sabbath, who brings peace and refreshment to our weary hearts.

-Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन-2

फरीसियों को क्रोधित करने वाली एक बात यह थी कि येसु ने विश्राम दिवस के नियमों को तोड़ा। फरीसियों ने विश्राम दिवस के नियमों की व्याख्या बहुत ही संकीर्ण तरीके से की थी। येसु चाहते थे कि वे समझें कि ईश्वर की आज्ञाएँ मनुष्य के लाभ और कल्याण के लिए हैं। हमारे प्रभु चाहते हैं कि हम सुखी रहें। कानूनों का इस्तेमाल इंसानों पर अत्याचार करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इसके विपरीत येसु कहते हैं, “थके-माँदे और बोझ से दबे हुए लोगो! तुम सभी मेरे पास आओ। मैं तुम्हें विश्राम दूँगा। मेरा जूआ अपने ऊपर ले लो और मुझ से सीखो। मैं स्वभाव से नम्र और विनीत हूँ। इस तरह तुम अपनी आत्मा के लिए शान्ति पाओगे, क्योंकि मेरा जूआ सहज है और मेरा बोझ हल्का।" (मत्ती 11:28-30)। प्रभु में, हमें आराम, सांत्वना और आनंद पाना चाहिए।

- फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

One of the things that angered the Pharisees was that Jesus broke the Sabbath laws. The Pharisees had interpreted the Sabbath laws in a very narrow and ritualistic way. Jesus wanted them to understand that the commandments of God were meant for the benefit and welfare of human beings. Our Lord wants us to be happy. The laws were not meant to be used to oppress human beings. On the contrary Jesus says, “Come to me, all you that are weary and are carrying heavy burdens, and I will give you rest. Take my yoke upon you, and learn from me; for I am gentle and humble in heart, and you will find rest for your souls. For my yoke is easy, and my burden is light.” (Mt 11:28-30). In the Lord, we need to find comfort, solace and joy.

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन - 3

धार्मिक प्रथाओं सहित किसी भी प्रकार के मानव व्यवहार या प्रथा से प्रभु ईश्वर को कोई लाभ नहीं होता है। धर्म मनुष्य के लिए है कि वह अपने जीवन के लिए समझदार लक्ष्य और मूल्य प्रणाली रख सकें। ईश्वर सभी लोगों की भलाई चाहते हैं। ईश्वर केवल एक है। कोई ईसाई ईश्वर, हिंदू ईश्वर या इस्लामी ईश्वर नहीं है। ईश्वर सभी का कल्याण चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि कोई भी भूखा, प्यासा, बीमार या परेशानी में रहे। वे चाहते हैं कि सभी लोगों का जीवन आरामदायक और शांतिप्रद हो। येसु के प्रचार के विषय, ईश्वर के राज्य का सारांश भी यही था। प्रभु ने मानव को प्रभु के दिन को पवित्र रखने की आज्ञा दी। वह विश्राम का दिन है। यह कानून मानव के कल्याण के लिए बनाया गया था। हम किसी भी तरह से ईश्वर के नाम पर विभिन्न धार्मिक प्रथाओं को शुरू करके ईश्वर की महानता में कुछ नहीं जोड़ सकते हैं। विश्राम दिवस के आचरण की आज्ञा लोगों को परेशान करने की आज्ञा नहीं थी, बल्कि लोगों को आराम और विश्राम देने के लिए थी। येसु के समय के कुछ निष्ठावान धर्मगुरुओं ने विश्राम दिवस के आचरण के लिए कई नियम बनाये और प्रतिबंध लगाए। वे लोगों के लिए सहायक नहीं थे, लेकिन उन्होंने उनके जीवन को दयनीय बना दिया। हमें अपने नियमों और विनियमों की जांच करने और उन पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है कि क्या वे ईश्वर और पड़ोसी को प्यार करने में सहायक हैं या नहीं।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

God does not benefit from human practices of any kind including religious practices. Religion is meant for human beings to have sensible goal and a value system for their lives. God wills the good of all. There is only one God. There is no Christian God, Hindu God or Islamic God. God wants the welfare of everyone. He does not want any one to remain hungry, thirsty, sick or in trouble. He wants everyone to have a comfortable, peaceful and joyful life. That is the logic of the Kingdom of God, the theme of Jesus’ preaching. The Lord commanded human beings to keep the Sabbath holy. That is a day of rest – a day to rest in God, to breathe the goodness of God. This law was made for the welfare of the human beings. We cannot add in any way to the greatness of God by introducing various new religious practices in the name of God. Sabbath was not meant to be a law to trouble the people of God, but was meant to give rest and relaxation to God’s people. Some of the scrupulous religious leaders of Jesus’ time introduced too many regulations and restrictions for the practice of the Sabbath. They were not helpful to people but made their lives difficult and at times miserable. We need to examine and reconsider our rules and regulations as to whether they are helpful in loving God and the neighbor.

-Fr. Francis Scaria