बुधवार, 24 जनवरी, 2024

सामान्य काल का तीसरा सप्ताह

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📒 पहला पाठ: समुएल का दुसरा 7:4-17

4) उसी रात प्रभु की वाणी नातान को यह कहते हुए सुनाई पड़ी,

5) ‘‘मेरे सेवक दाऊद के पास जाकर कहो - प्रभु यह कहता है: क्या तुम मेरे लिए मन्दिर बनवाना चाहते हो?

6) जिस दिन मैं इस्राएलियों को मिस्र देश से निकाल लाया, उस दिन से आज तक मैंने किसी भवन में निवास नहीं किया।

7) मैं तम्बू में रहकर उनके साथ भ्रमण करता रहा। जब तक मैं इस्राएलियों के साथ भ्रमण करता रहा, मैंने कभी किसी से यह नहीं कहा, ‘तुम मेरे लिए देवदार का मन्दिर क्यों नहीं बनाते हो?’ मैंने किसी न्यायकर्ता से, जिसे मैंने अपनी प्रजा चराने के लिए नियुक्त किया, ऐसा निवेदन नहीं किया।

8) इसलिए मेरे सेवक दाऊद से यह कहो - विश्वमण्डल का प्रभु कहता है: तुम भेड़ें चराया करते थे और मैंने तुम्हें चरागाह से बुला कर अपनी प्रजा इस्राएल का शासक बनाया।

9) मैंने तुम्हारे सब कार्यों में तुम्हारा साथ दिया और तुम्हारे सामने तुम्हारे सब शत्रुओं का सर्वनाश कर दिया है। मैं तुम्हें संसार के सब से महान् पुरुषों-जैसी ख्याति प्रदान करूँगा।

10) मैं अपनी प्रजा इस्राएल के लिए भूमि का प्रबन्ध करूँगा और उसे बसाऊँगा। वह वहाँ सुरक्षित रहेगी। कुकर्मी उस पर अत्याचार नहीं कर पायेंगे। ऐसा पहले हुआ करता था,

11) जब मैंने अपनी प्रजा इस्राएल का शासन करने के लिए न्यायकर्ताओं को नियुक्त किया था। मैं उसे उसके सब शत्रुओं से छुड़ाऊँगा। प्रभु तुम्हारा वंश सुरक्षित रखेगा।

12) जब तुम्हारे दिन पूरे हो जायेंगे और तुम अपने पूर्वजों के साथ विश्राम करोगे, तो मैं तुम्हारे पुत्र को तुम्हारा उत्तराधिकारी बनाऊँगा और उसका राज्य बनाये रखूँगा।

13) वही मेरे आदर में एक मन्दिर बनवायेगा और मैं उसका सिंहासन सदा के लिए सुदृढ़ बना दूँगा।

14) मैं उसका पिता होऊँगा, और वह मेरा पुत्र होगा। यदि वह बुराई करेगा, तो मैं उसे दूसरे लोगों की तरह बेंत और कोड़ों से दण्डित करूँगा।

15) किन्तु मैं उस पर से अपनी कृपा नहीं हटाऊँगा, जैसा कि मैंने साऊल के साथ किया, जिसे मैंने तुम्हारे लिए ठुकराया।

16) इस तरह तुम्हारा वंश और तुम्हारा राज्य मेरे सामने बना रहेगा और उसका सिंहासन अनन्त काल तक सुदृढ़ रहेगा।’’

17) नातान ने दाऊद को ये सब बातें और यह सारा दृष्य बताया।

📙 सुसमाचार : सन्त मारकुस 4:1-20

1) ईसा किसी दिन समुद्र के किनारे शिक्षा देने लगे और उनके पास इतनी भीड़ इकट्ठी हो गयी कि वह समुद्र में एक नाव पर जा बैठे और सारी भीड़ समुद्र के तट पर बनी रही।

2) उन्होंने दृष्टान्तों में उन्हें बहुत-सी बातों की शिक्षा दी। शिक्षा देते हुए उन्होंने कहा-

3) ’’सुनो! कोई बोने वाला बीज बोने निकला।

4) बोते-बोते कुछ बीज रास्ते के किनारे गिरे और आकाश के पक्षियों ने आ कर उन्हें चुग लिया।

5) कुछ बीज पथरीली भूमि पर गिरे, जहाँ उन्हें अधिक मिट्टी नहीं मिली। वे जल्दी ही उग गये, क्येांकि उनकी मिट्टी गहरी नहीं थी।

6) सूरज चढ़ने पर वे झुलस गये और जड़ न होने के कारण सूख गये।

7) कुछ बीज काँटों में गिरे और काँटों ने बढ़ कर उन्हें दबा दिया, इसलिए वे फल नहीं लाये।

8) कुछ बीज अच्छी भूमि पर गिरे। वे उग कर फले-फूले और तीस गुना या साठ गुना या सौ गुना फल लाये।’’

9) अन्त में उन्होंने कहा, ’’जिसके सुनने के कान हों, वह सुन ले !

10) ईसा के अनुयायियों और बारहों ने एकान्त में उन से दृष्टान्तों का अर्थ पूछा।

11) ईसा ने उत्तर दिया, ’’तुम लोगों को ईश्वर के राज्य का भेद जानने का वरदान दिया गया है। बाहर वालों को दृष्टान्त ही मिलते हैं,

12) जिससे वे देखते हुए भी नहीं देख़ें और सुनते हुए भी नहीं समझें। कहीं ऐसा न हो कि वे मेरी ओर लौट आयें और मैं उन्हें क्षमा प्रदान कर दूँ।’’

13) ईसा ने उन से कहा, ’’क्या तुम लोग यह दृष्टान्त नहीं समझते? तो सब दृष्टान्तों को कैसे समझोगे?

14) बोने वाला वचन बोता है।

15) जो रास्ते के किनारे हैं, जहाँ वचन बोया जाता हैः ये वे लोग हैं जिन्होंने सुना है, परन्तु शैतान तुरन्त ही आ कर यह वचन ले जाता है, जो उनके हृदय में बोया गया है।

16) इस प्रकार, जो पथरीली भूमि में बोये जाते हैं: ये वे लोग हैं, जो वचन सुनते ही उसे प्रसन्नता से ग्रहण करते हैं;

17) किन्तु उन में जड़ नहीं है और वे थोड़े ही दिन दृढ़ रहते हैं। वचन के कारण संकट या अत्याचार आ पड़ने पर, वे तुरन्त विचलित हो जाते हैं।

18) दूसरे बीज काँटों में बोये जाते हैं: ये वे लोग हैं, जो वचन सुनते हैं,

19) परन्तु संसार की चिन्ताएँ, धन का मोह और अन्य वासनाएँ उन में प्रवेश कर वचन को दबा देती हैं और वह फल नहीं लाता।

20) जो अच्छी भूमि में बोये गये हैं: ये वे लोग हैं, जो वचन सुनते हैं- उसे ग्रहण करते हैं और फल लाते हैं -कोई तीस गुना, कोई साठ गुना, कोई सौ गुना।’’

📚 मनन-चिंतन

येसु एक दृष्टान्त सुनाते हैं एक बोने वाले के बारे में जो बीज बोता है। कुछ बीज रास्ते पर गिरते हैं, जहाँ चिड़ियां उन्हें जल्दी ही उड़ा लेती हैं। कुछ बीज चट्टानी जमीन पर गिरते हैं, जो जल्दी ही अंकुरित होते हैं लेकिन सूरज के प्रकाश में मुरझा जाते हैं। और कुछ बीज कांटों के बीच में गिरते हैं, जो केवल घुटकर फल नहीं देते हैं। लेकिन अच्छी खबर भी है - कुछ बीज उपजाऊ मिट्टी पर गिरते हैं, जो एक फसल उत्पन्न करते हैं। यह दृष्टांत केवल बीज और मिट्टी के बारे में नहीं है। यह हमारे दिल की स्थिति के बारे में है। बीज ईश्वर का वचन हैं, और मिट्टी हमारा दिल है। क्या हमारा दिल कठोर रास्ते की तरह है, जहाँ ईश्वर का वचन आसानी से छीन लिया जाता है? क्या हम चट्टानी जमीन की तरह हैं, जहाँ हम ईश्वर का वचन खुशी से स्वीकार करते हैं लेकिन जब मुसीबतें आती हैं तो जल्दी ही विश्वास खो देते हैं? या हम कांटों के बीच में हैं, जो चिंताओं और व्यग्रताओं से वचन को घुटने देते हैं? इस दृष्टांत में यह आह्वान है कि हम अच्छी मिट्टी की तरह हों - खुले, अनुकूल, और ईश्वर का वचन प्राप्त करने के लिए तैयार। एक ऐसा दिल जो सुनने, समझने, और ईश्वर के वचन को अपने अंदर गहराई से जड़ने देने के लिए तैयार है। हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जिसमें बहुत सारी व्यग्रताएं और चुनौतियां हैं। जीवन की चिंताओं को प्राथमिकता देना आसान है और ईश्वर की आवाज को बहा देना। लेकिन, आइए हम अच्छी मिट्टी बनने का प्रयास करें। आइए हम अपने दिल को प्रार्थना, इश्वरीय वचन पर चिंतन, और ईश्वर के साथ एक गहरे संबंध की तलाश के माध्यम से पोषित करें। जब हम अपने दिल को ईश्वर के वचन के लिए खोलते हैं, तो हम उसे हमें बदलने देते हैं। वह परीक्षा के समय में ताकत का स्रोत, भ्रम के क्षणों में मार्गदर्शक, और हमारी विश्वास की यात्रा में प्रेरणा का प्रकाश बनता है। हम अच्छी मिट्टी की तरह हों, प्रेम, आनंद, और वफादारी की एक फसल उत्पन्न करें। आइए हम अपने दिल को ईश्वर के वचन से पोषित करें, ताकि उसका संदेश हमारे जीवन में जड़ जाए और फल दे।

- फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

p>Jesus tells a story about a Sower who throws seeds. Some fall on the path, where birds quickly snatch them away. Some fall on rocky ground, sprouting quickly but withering away in the sun. Others fall among thorns, only to be choked and bear no fruit. But there’s good news too – some seeds fall on fertile soil, producing a bountiful harvest. This parable is not just about seeds and soil it’s about the condition of our hearts. The seeds represent the Word of God, and the soil is our hearts. Are our hearts like the hard path, where God’s Word is easily snatched away? Are we like rocky ground, where we receive God’s Word with joy but quickly lose faith when challenges arise? Or are we among the thorns, letting worries and distractions choke the Word? The call in this parable is to be like the good soil open, receptive, and ready to receive God’s Word. A heart that is willing to listen, understand, and let God’s Word take root deep within. We live in a world with many distractions and challenges. It’s easy for the worries of life to take precedence and drown out the voice of God. But, let’s strive to be the good soil. Let’s nurture our hearts through prayer, reflection on Scripture, and seeking a deeper relationship with God. As we open our hearts to God’s Word, we allow it to transform us. It becomes the source of strength in times of trial, the guide in moments of confusion, and the light that leads us on our journey of faith. May we be like the good soil, producing a harvest of love, joy, and faithfulness. Let’s cultivate our hearts with the Word of God, so that His message may take root and bear fruit in our lives.

-Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन-2

राजा दाऊद प्रभु के लिए एक घर बनाना चाहता था। लेकिन प्रभु चाहते थे कि दाऊद समझे कि उन्हें घर की जरूरत नहीं है और उन्हें मंदिर में नहीं रखा जा सकता। इसायाह 66: 1 में प्रभु प्रश्न करते हैं, “आकाश मेरा सिंहासन है और पृथ्वी मेरा पावदान। तुम मेरे लिए कौन-सा घर बनाओगे? मेरे विश्राम का घर कहाँ होगा?” हम किसी भी जगह पर ईश्वर को सीमित नहीं रख सकते। ईश्वर हर जगह है और वे जगह और समय से परे हैं। उनकी कोई सीमा नहीं है। नबी नाथन के माध्यम से प्रभु ने दाऊद को समझाया कि वह ईश्वर को बसाने के लिए एक ढाँचे का निर्माण नहीं कर सकता है और प्रभु बदले में दाऊद के घर का निर्माण कर रहे थे। भेड़-बकरियों का चरवाहा होने से, ईश्वर ने उसे महान बनाया और उसे इस्राएल के लोगों पर राजा नियुक्त किया तथा उसकी महानता ईश्वर की देन है। हमारे पास जो कुछ है वह ईश्वर द्वारा बनाया गया है। हम स्वयं ईश्वर की रचना हैं। हम ईश्वर के लिए घर कैसे बना सकते हैं? यहां तक कि हमारा शरीर भी प्रभु का ही एक उपहार है। हमें अपने चारों ओर ईश्वर के आवरण और सुरक्षात्मक उपस्थिति के बारे में लगातार जागरूक होना चाहिए।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

King David wanted to build a house for the Lord. But the Lord wanted David to understand that He does not need a house and that he cannot be housed in a temple. In Is 66:1 the Lord asks, “Heaven is my throne and the earth is my footstool; what is the house that you would build for me, and what is my resting place?” We cannot contain God in any space. God is everywhere and is beyond space and time. He has no limitations. The Lord through Prophet Nathan explained to David that he cannot build a structure to house God and that God in turn was building the household of David. From being a shepherd-boy, the Lord made him great and made him king over the people of Israel. His greatness is built by God. Everything we have is made by God. We ourselves are God’s creation. How can we build a house for God? Even our body is a gift of God. We need to constantly be aware of the enveloping and protective presence of God around us.

-Fr. Francis Scaria