शनिवार, 27 जनवरी, 2024

संत तिमथी एवं तीतुस

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📒 पहला पाठ : 2 तिमथी 1:1-8

1) यह पत्र प्रिय पुत्र तिमथी के नाम पौलुस की ओर से है, जिसे ईश्वर ने इस बात का प्रचार करने के लिए ईसा मसीह का प्रेरित चुना है कि उसने हमें जीवन प्रदान करने की जो प्रतिज्ञा की थी, वह ईसा में पूरी हो गयी है।

2) पिता-परमेश्वर और हमारे प्रभु ईसा मसीह तुम्हें कृपा, दया तथा शान्ति प्रदान करें!

3) मैं अपने पूर्वजों की तरह शुद्ध अन्तःकरण से ईश्वर की सेवा करता हूँ और उसे धन्यवाद देता हुआ निरन्तर दिन-रात तुम्हें अपनी प्रार्थनाओं में याद करता हूँ।

4) जब मुझे तुम्हारे आँसुओं का स्मरण आता है, तो तुम से फिर मिलने की तीव्र अभिलाषा होती है, जिससे मेरा आनन्द परिपूर्ण हो जाये।

5) तब मुझे तुम्हारा निष्कपट विश्वास सहज ही याद आता है। वह विश्वास पहले तुम्हारी नानी लोइस तथा तुम्हारी माता यूनीके में विद्यमान था और मुझे विश्वास है, अब तुम में भी विद्यमान है।

6) मैं तुम से अनुरोध करता हूँ कि तुम ईश्वरीय वरदान की वह ज्वाला प्रज्वलित बनाये रखो, जो मेरे हाथों के आरोपण से तुम में विद्यमान है।

7) ईश्वर ने हमें भीरुता का नहीं, बल्कि सामर्थ्य, प्रेम तथा आत्मसंयम का मनोभाव प्रदान किया।

8) तुम न तो हमारे प्रभु का साक्ष्य देने में लज्जा अनुभव करो और न मुझ से, जो उनके लिए बन्दी हूँ, बल्कि ईश्वर के सामर्थ्य पर भरोसा रख कर तुम मेरे साथ सुसमाचार के लिए कष्ट सहते रहो।

अथवा पहला पाठ : तीतुस 1:1-5

1) यह पत्र, एक ही विश्वास में सहभागिता के नाते सच्चे पुत्र तीतुस के नाम, पौलुस की ओर से है, जो ईश्वर का सेवक तथा ईसा मसीह का प्रेरित है,

2) ताकि वह ईश्वर के कृपापात्रों को विश्वास, सच्ची भक्ति का ज्ञान और अनन्त जीवन की आशा दिलाये। सत्यवादी ईश्वर ने अनादि काल से इस जीवन की प्रतिज्ञा की थी।

3) अब, उपयुक्त समय में, इसका अभिप्राय उस सन्देश द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है, जिसका प्रचार मुक्तिदाता ईश्वर ने मुझे सौंपा है।

4) पिता-परमेश्वर और हमारे मुक्तिदाता ईसा मसीह तुम्हें अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें!

5) मैंने तुम्हें इसलिए क्रेत में रहने दिया कि तुम वहाँ कलीसिया का संगठन पूरा कर दो और मेरे अनुदेश के अनुसार प्रत्येक नगर में अधिकारियों को नियुक्त करो।

📙 सुसमाचार : सन्त मारकुस 4:35-41

35) उसी दिन, सन्ध्या हो जाने पर, ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ’’हम उस पार चलें’’।

36) लोगों को विदा करने के बाद शिष्य ईसा को उसी नाव पर ले गये, जिस पर वे बैठे हुए थे। दूसरी नावें भी उनके साथ चलीं।

37) उस समय एकाएक झंझावात उठा। लहरें इतने ज़ोर से नाव से टकरा नहीं थीं कि वह पानी से भरी जा रही थी।

38) ईसा दुम्बाल में तकिया लगाये सो रहे थे। शिष्यों ने उन्हें जगा कर कहा, ’’गुरुवर! हम डूब रहे हैं! क्या आप को इसकी कोई चिन्ता नहीं?’’

39) वे जाग गये और उन्होंने वायु को डाँटा और समुद्र से कहा, ’’शान्त हो! थम जा!’’ वायु मन्द हो गयी और पूर्ण शान्ति छा गयी।

40) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ’’तुम लोग इस प्रकार क्यों डरते हो ? क्या तुम्हें अब तक विश्वास नहीं हैं?’’

41) उन पर भय छा गया और वे आपस में यह कहते रहे, ’’आखिर यह कौन है? वायु और समुद्र भी इनकी आज्ञा मानते हैं।’’

📚 मनन-चिंतन

येसु अपने 72 शिष्यों को एक मिशन पर भेजते हैं, और यह हमारे लिए विचार करने के लिए सुंदर सबक हैं। पहली बात, येसु उन्हें जोड़ों में भेजते हैं। यह हमें साथीदारी और प्रेम का संदेश फैलाने के लिए साथ काम करने की महत्ता के बारे में सिखाता है। हमें अकेले सफर नहीं करना चाहिए हमारा विश्वास एक साझा अनुभव है। जब शिष्य अपने मिशन पर निकलते हैं, तो येसु उन्हें आदेश देते हैं कि वे कोई पैसे का थैला, कोई पिटारी, और कोई चप्पल न लें। यह अजीब लग सकता है, लेकिन यह ईश्वर की व्यवस्था पर निर्भरता पर जोर देता है। शिष्यों को ईश्वर के प्रबन्ध पर पूरी तरह से भरोसा करने के लिए कहा जाता है, जो सुसमाचार फैलाने के लिए आवश्यक सादगी और विश्वास को दर्शाता है। येसु आगे कहते हैं, “जो भी घर तुम प्रवेश करो, पहले कहो, इस घर को शांति।” यह हमें याद दिलाता है कि हमारा मिशन केवल एक संदेश पहुंचाने के बारे में नहीं है बल्कि हम जहां भी जाएं, वहाँ ईश्वर की शांति लाने के बारे में भी है। हमारे शब्द और कार्य ईश्वर की शांति के साधन होने चाहिए, एक दुनिया में जो अक्सर अशांति से भरी होती है। इसके अलावा, येसु शिष्यों को प्रोत्साहित करते हैं कि वे जो कुछ उनके सामने रखा जाता है, उसे खाएं, जो कृतज्ञता और स्वीकार की भावना पर जोर देता है। यह हमें दूसरों की मेहमाननवाजी की कद्र करना और उनकी दयालुता में ईश्वर के आशीर्वाद को पहचानना सिखाता है। मसीह के शिष्य होने के नाते, हम जहां भी जाते हैं, उम्मीद और उद्धार का संदेश लेकर जाते हैं। हमारा मिशन है कि हम अपने शब्दों, कार्यों, और जो प्यार हम बांटते हैं, के माध्यम से दूसरों को ईश्वर के राज्य के करीब लाएं। येसु के शब्द हमें प्रेरित करते हैं कि हम अपने मिशन को खुशी और प्यार के साथ अपनाएं, जानते हुए कि परमेश्वर का राज्य नजदीक है।

- फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

p>Jesus and His disciples find themselves in a boat, crossing the Sea of Galilee. Suddenly, a fierce storm arises, and the waves crash against the boat. The disciples are terrified, fearing for their lives. Meanwhile, Jesus is peacefully sleeping in the boat. The disciples, in their panic, wake Jesus, asking if He cares that they are perishing. In response, Jesus stands up and speaks to the wind and the sea, saying, ‘Peace! Be still!’ Miraculously, the wind ceases, and there is a great calm. This incident holds a beautiful lesson for us. Life, at times, can be like a stormy sea. Challenges, uncertainties, and difficulties may surround us, causing fear and anxiety. In those moments, we may feel like the disciples, wondering if God is aware of our struggles. But here’s the reassuring truth, Jesus is with us in the boat of life. Even though the storms may rage, His presence brings peace. Amid the chaos, He can speak to the storms of our hearts, saying, ‘Peace! Be still!’ It’s a reminder that no matter how turbulent life gets, Jesus is in control. He can bring calm to our fears, clarity to our confusion, and peace to our troubled hearts. We just need to trust Him, even when it seems like He’s asleep in the boat. May we trust in His power to calm the storms and find peace in His loving presence.

-Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन -02

हमारा जीवन येसु के साथ नौकायन है। येसु जीवन के बारे में यथार्थवादी और व्यावहारिक हैं। हमारी नाव में येसु के होने का मतलब यह नहीं है कि कोई तूफान या परेशानी नहीं आयेगी। क्लेशों और तूफानों के बीच भी हमें उस प्रभु पर भरोसा रखना चाहिए जो सदैव हमारे साथ हैं। वे हमारी रक्षा करते और बचाते हैं। वास्तविक तथा व्यावहारिक विश्वास तूफानों के बीच भी तकिये पर चैन से सोने की हमारी क्षमता है। बीमारी, उत्पीड़न, अस्वीकृति, अन्याय और विरोध के बीच हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, बल्कि प्रभु पर भरोसा रखना चाहिए जो सब कुछ का मालिक है। वे परिस्थितियों को एक पल में बदलने में सक्षम हैं। वे टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं से सीधा लिख सकते हैं। उथल-पुथल के बीच वे हमें सुरक्षित रखते हैं। योहन 16:33 में येसु कहते हैं, "संसार में तुम्हें क्लेश सहना पडेगा। परन्तु ढारस रखो- मैंने संसार पर विजय पायी है"। स्तोत्रकार बहुत आश्वस्त होता है जब वह कहता है, “धर्मी विपत्तियों से घिरा रहता है। किन्तु उन सबों से प्रभु उसे छुड़ाता है।" (स्तोत्र 34:19)।

- फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

Our life is about sailing with Jesus. Jesus is realistic and practical about life. Having Jesus in our boat does not mean that there will be no storm or trouble. Even in the midst of tribulations and storms we are called upon to trust in the Lord who is sailing with us. He protects and saves us. Real faith is our ability to sleep peacefully on the cushion even in the midst of storms. In the midst of sickness, persecution, rejection, injustice and opposition we should not lose heart, but trust in the Lord who is the Master of everything. He is capable of changing situations in a moment. He can write straight with crooked lines. In the midst of turmoil he keeps us safe. In Jn 16:33 Jesus says, “In the world you face persecution. But take courage; I have conquered the world”. The Psalmist is very confident when he says, “Many are the afflictions of the righteous, but the Lord rescues them from them all” (Ps 34:19).

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन -03

येसु और उनके शिष्य एक नाव में होकर गलील के समुद्र को पार कर रहे हैं। अचानक, एक भयानक तूफान उठता है, और लहरें नाव को टकराती हैं। शिष्य भयभीत हो जाते हैं, अपनी जान के लिए डरते हुए। इस बीच, येसु नाव में शांतिपूर्वक सो रहे हैं। शिष्य, अपने घबराहट में, येसु को जगाते हैं, पूछते हैं कि क्या उन्हें परवाह है कि वे नष्ट हो रहे हैं। जवाब में, येसु खड़े होकर हवा और समुद्र से कहते हैं, ‘शांति! शांत हो जाओ!’ चमत्कारिक रूप से, हवा ठहर जाती है, और एक महान शांति छा जाती है। इस घटना में हमारे लिए एक सुंदर सबक है। जीवन, कभी-कभी, एक तूफानी सागर की तरह हो सकता है। चुनौतियाँ, अनिश्चितताएं, और कठिनाइयाँ हमें घेर सकती हैं, डर और चिंता पैदा कर सकता है। उन पलों में, हम शिष्यों की तरह महसूस कर सकते हैं, सोचते हुए कि क्या ईश्वर हमारी संघर्षों से परिचित है। लेकिन यहाँ एक आश्वस्त करने वाली सच्चाई है, येसु हमारे जीवन की नाव में हमारे साथ हैं। भले ही तूफान तेज हों, उनकी उपस्थिति शांति लाती है। अराजकता के बीच, वह हमारे दिल के तूफानों से बोल सकते हैं, कहते हैं, ‘शांति! शांत हो जाओ!’ यह हमें याद दिलाता है कि जीवन कितना भी अशांत क्यों न हो, येसु नियंत्रण में हैं। वह हमारे डर को शांत कर सकते हैं, हमारी भ्रम को स्पष्ट कर सकते हैं, और हमारे परेशान दिलों को शांति दे सकते हैं। हमें बस उन पर भरोसा करने की जरूरत है, भले ही ऐसा लगे कि वह नाव में सो रहे हैं। हम उनकी शक्ति पर भरोसा करें, जो तूफानों को शांत कर सकती है, और उनकी प्रेममय उपस्थिति में शांति पाएं।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

In today’s Gospel we find Jesus sailing with his disciples in a boat across the lake of Galilee. They experienced storm and high waves. Jesus was asleep with his head on a cushion. In their anxiety the disciples woke him up. Jesus rebuked the storm and the wind saying “Quiet now! Be calm”. There was calm. Jesus scolded them for their lack of faith. When Jesus is in our boat, even if there is a storm or a wind, we need not worry, because he is the Lord of the land and the sea. In Jer 31:35 we read, “Thus says the Lord, who gives the sun for light by day and the fixed order of the moon and the stars for light by night, who stirs up the sea so that its waves roar — the Lord of hosts is his name”. Jesus is Christ, the Son of the Living God. When the Lord is in the boat, why should the disciples fear? The wind and the sea obeyed him. The Psalmist says, “You rule the raging of the sea; when its waves rise, you still them.” (Ps 89:9) Elsewhere he says, “he made the storm be still, and the waves of the sea were hushed” (Ps 107:29). Let us remind ourselves always that we have nothing to fear because the Lord of the universe is in our boat.

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन -04

आज काथलिक कलीसिया संत तिमथी तथा तीतुस का त्योहार मनाती है। तिमथी एक यूनानी गैरयहूदी पिता और एक यहूदी मां का पुत्र था, जिसे संत पौलुस द्वारा परिवर्तित किया गया था। प्रेरित-चरित 16: 2 के अनुसार, “लुस्त्रा और इकोनियुम के भाइयों में उसका अच्छा नाम था”। उन्होंने मिशनरी कार्य में संत पौलुस के साथ मिलकर काम किया। वह एफेसुस की कलीसिया का अगुआ बन गया। उन्हें शहादत का स्वीकार करना पड़ा। तीतुस शायद अंताखिया से आया था और क्रेत का धर्माध्यक्ष था जिसे संत पौलुस ने एक पत्र लिखा था। संत पौलुस और संत तीतुस के बीच घनिष्ठ मित्रता थी। केवल बारह शिष्य ही नहीं, बल्कि सभी विश्वासी सुसमाचार का प्रचार करने के लिए बुलाये गये हैं। उद्घोषणा स्वयं ईश्वर के अनुभव का हिस्सा है। ईश्वर की अनुभूति ईश्वर की उद्घोषणा में व्यक्त की जाती है। उद्घोषणा ईश्वर के अनुभव की परिपक्वता है। जिन लोगों ने प्रभु से चंगाई का अनुभव किया, उन्होंने प्रभु के महान कार्यों की घोषणा की, तब भी जब उन्हें ऐसा करने से मना किया गया था। संत पौलुस कहते हैं, "मैं इस पर गौरव नहीं करता कि मैं सुसमाचार का प्रचार करता हूँ। मुझे तो ऐसा करने का आदेश दिया गया है। धिक्कार मुझे, यदि मैं सुसमाचार का प्रचार न करूँ! (1कुरिन्थियों 9:16) आइए हम इन दो प्रारंभिक कलीसिया के संतों की प्रेरणा पायें और उनसे सीखें।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

Today the Catholic Church celebrates the Feast of Timothy and Titus. Timothy was the son of a Greek Gentile and a Jewish mother, converted by St. Paul. According to Acts 16:1-4, he was well spoken of by the believers. He closely collaborated with St. Paul in his missionary work. He became the leader of the Church of Ephesus. He suffered martyrdom. Titus probably came from Antioch and was the bishop of Crete to whom St. Paul wrote a pastoral letter. There existed a close friendship between St. Paul and St. Titus. Not only the twelve disciples, but all believers are to proclaim the Gospel. Proclamation is part of the experience of God itself. Experience of God is expressed in the proclamation of God. Proclamation is the maturation of the experience of God. Those who experienced the healing from the Lord proclaimed the mighty works of the Lord even when they were forbidden to do so. St. Paul says, “If I proclaim the gospel, this gives me no ground for boasting, for an obligation is laid on me, and woe to me if I do not proclaim the gospel!” (1Cor 9:16). Let us imbibe the Spirit of these two early saints and learn from them.

-Fr. Francis Scaria