शनिवार, 02 मार्च, 2024

चालीसे का दूसरा सप्ताह

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📒 पहला पाठ : मीकाह का ग्रन्थ 7:14-15,18-20

14) तू अपना डण्डा ले कर अपनी प्रजा, अपनी विरासत की भेडें चराने की कृपा कर। वे जंगल और बंजर भूमि में अकेली ही पडी हुई है। प्राचीन काल की तरह उन्हें बाशान तथा गिलआद में चरने दे।

15) जिन दिनों तू हमें मिस्र से निकाल लाया, उन्हीं दिनों की तरह हमें चमत्कार दिखा।

18) तेरे सदृश कौन ऐसा ईश्वर है, जो अपराध हरता और अपनी प्रजा का पाप अनदेखा करता हैं; जो अपना क्रोध बनाये नहीं रखता, बल्कि दया करना चाहता हैं?

19) वह फिर हम पर दया करेगा, हमारे अपराध पैरों तले रौंद देगा और हमारे सभी पाप गहरे समुद्र में फेंकेगा।

20) तू याकूब के लिए अपनी सत्यप्रतिज्ञता और इब्राहीम के लिए अपनी दयालुता प्रदर्शित करेगा, जैसी कि तूने शपथ खा कर हमारे पूर्वजों से प्रतिज्ञा की है।

📙 सुसमाचार : सन्त लूकस 15:1-3, 11-32

1) ईसा का उपदेश सुनने के लिए नाकेदार और पापी उनके पास आया करते थे।

2 फ़रीसी और शास्त्री यह कहते हुए भुनभुनाते थे, ’’यह मनुष्य पापियों का स्वागत करता है और उनके साथ खाता-पीता है’’।

3) इस पर ईसा ने उन को यह दृष्टान्त सुनाया,

11) ईसा ने कहा, ’’किसी मनुष्य के दो पुत्र थे।

12) छोटे ने अपने पिता से कहा, ’पिता जी! सम्पत्ति का जो भाग मेरा है, मुझे दे दीजिए’, और पिता ने उन में अपनी सम्पत्ति बाँट दी।

13 थोड़े ही दिनों बाद छोटा बेटा अपनी समस्त सम्पत्ति एकत्र कर किसी दूर देश चला गया और वहाँ उसने भोग-विलास में अपनी सम्पत्ति उड़ा दी।

14) जब वह सब कुछ ख़र्च कर चुका, तो उस देश में भारी अकाल पड़ा और उसकी हालत तंग हो गयी।

15) इसलिए वह उस देश के एक निवासी का नौकर बन गया, जिसने उसे अपने खेतों में सूअर चराने भेजा।

16) जो फलियाँ सूअर खाते थे, उन्हीं से वह अपना पेट भरना चाहता था, लेकिन कोई उसे उन में से कुछ नहीं देता था।

17) तब वह होश में आया और यह सोचता रहा-मेरे पिता के घर कितने ही मज़दूरों को ज़रूरत से ज़्यादा रोटी मिलती है और मैं यहाँ भूखों मर रहा हूँ।

18) मैं उठ कर अपने पिता के पास जाऊँगा और उन से कहूँगा, ’पिता जी! मैंने स्वर्ग के विरुद्ध और आपके प्रति पाप किया है।

19) मैं आपका पुत्र कहलाने योग्य नहीं रहा। मुझे अपने मज़दूरों में से एक जैसा रख लीजिए।’

20) तब वह उठ कर अपने पिता के घर की ओर चल पड़ा। वह दूर ही था कि उसके पिता ने उसे देख लिया और दया से द्रवित हो उठा। उसने दौड़ कर उसे गले लगा लिया और उसका चुम्बन किया।

21) तब पुत्र ने उस से कहा, ’पिता जी! मैने स्वर्ग के विरुद्ध और आपके प्रति पाप किया है। मैं आपका पुत्र कहलाने योग्य नहीं रहा।’

22) परन्तु पिता ने अपने नौकरों से कहा, ’जल्दी अच्छे-से-अच्छे कपड़े ला कर इस को पहनाओ और इसकी उँगली में अँगूठी और इसके पैरों में जूते पहना दो।

23) मोटा बछड़ा भी ला कर मारो। हम खायें और आनन्द मनायें;

24) क्योंकि मेरा यह बेटा मर गया था और फिर जी गया है, यह खो गया था और फिर मिल गया है।’ और वे आनन्द मनाने लगे।

25) ‘‘उसका जेठा लड़का खेत में था। जब वह लौट कर घर के निकट पहुँचा, तो उसे गाने-बजाने और नाचने की आवाज़ सुनाई पड़ी।

26) उसने एक नौकर को बुलाया और इसके विषय में पूछा।

27) इसने कहा, ’आपका भाई आया है और आपके पिता ने मोटा बछड़ा मारा है, क्योंकि उन्होंने उसे भला-चंगा वापस पाया है’।

28) इस पर वह क्रुद्ध हो गया और उसने घर के अन्दर जाना नहीं चाहा। तब उसका पिता उसे मनाने के लिए बाहर आया।

29) परन्तु उसने अपने पिता को उत्तर दिया, ’देखिए, मैं इतने बरसों से आपकी सेवा करता आया हूँ। मैंने कभी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। फिर भी आपने कभी मुझे बकरी का बच्चा तक नहीं दिया, ताकि मैं अपने मित्रों के साथ आनन्द मनाऊँ।

30) पर जैसे ही आपका यह बेटा आया, जिसने वेश्याओं के पीछे आपकी सम्पत्ति उड़ा दी है, आपने उसके लिए मोटा बछड़ा मार डाला है।’

31) इस पर पिता ने उस से कहा, ’बेटा, तुम तो सदा मेरे साथ रहते हो और जो कुछ मेरा है, वह तुम्हारा है।

32) परन्तु आनन्द मनाना और उल्लसित होना उचित ही था; क्योंकि तुम्हारा यह भाई मर गया था और फिर जी गया है, यह खो गया था और मिल गया है’।’’

📚 मनन-चिंतन

उडाउॅ पुत्र का दृष्टांत तीन लोगों के स्वाभाव तथा उनकी स्थिति के बारे में बताता है। पिता का दोनों पुत्रों के प्रति जागरूकता, सक्रियता तथा बिना शर्त प्रेम ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। उडाउॅ पुत्र नाकेदारों तथा पापियों का प्रतीक है जिन्होंने जीवन में पाप किया तथा उसका फल भुगता। लेकिन उन्होंने अपनी दयनीयता में पहचाना कि वे पापी है, ’’मैंने स्वर्ग के विरूद्ध और आपके विरूद्ध पाप किया है’’ (लूकस 15:21) तथा इस स्थिति से निकलने का प्रयास किया, ’’मैं उठकर अपने पिता के पास जाउॅगा’’ (लूकस 15:18)

उसक जेठा लडका फरीसियों और शास्त्रियों को चिन्हित करता है। वास्तव में येसु ने उन फरीसियों के लिये ही यह दृष्टांत सुनाया था। ’’फरीसी और शास्त्री यह कहते हुए भुनभुनाते थे, ’यह मनुष्य पापियों का स्वागत करता है और उनके साथ खाता-पीता हैष्। इस पर ईसा ने उन को यह दृष्टान्त सुनाया,’’ (लूकस 15:2-3) फरीसियों और शास्त्रियों ने अपने आप को धर्मी माना। येसु के दूसरों के प्रति दयालु तथा अपनापन दिखाने के कारण वे उनसे ईर्ष्या किया करते थे। उनकी मूर्खता न सिर्फ इस बात तक सीमित है वे स्वयं को आत्म-धर्मी मानते थे बल्कि इसमें भी की वे दूसरों तुच्छ तथा पापी मानते थे।

इसके द्वारा येसु सिखाते हैं कि ईश्वर के दया द्वार सभी के लिये हर समय खुले हैं। ईश्वर सभी का ध्यान रखता है। उडाउॅ के वापस लौटने पर वह उसका स्वागत करता है उसी प्रकार ईर्ष्यालु बडे पुत्र को समझाने के लिये उसके पीछे-पीछे भी जाता है। लेकिन इस बात निर्णय हरेक व्यक्ति को लेना कि उसे क्या भूमिका चुननी है। ईश्वर के राज्य में न ही हठधर्मिता के लिये जगह है और न ही दूसरों पर दोष लगाने के लिये। आइये हम भी उसकी दया पर विश्वास करे और अपने पापों को पहचान कर अपने पिता की ओर वापस लौटे।

- फादर रोनाल्ड वाँन


📚 REFLECTION

Through the parable of ‘the Prodigal son’ Jesus explains the status or the nature of the three people. Father represents God, his watchful, proactive and unconditional love towards both the sons. Prodigal son is the symbol of the tax collectors, sinners etc. who have wronged in their life and suffered miserably. They have floundered the freedom and resources on themselves. However, in their suffering they recognized their sinfulness, ‘I have sinned against heaven’s and earth’ and are willing to make a return journey homeward, “I shall rise up and go to my father’s house”.

The elder son is stark example of the pharisees and the scribes. In the fact it is for them Jesus narrates the parable, “And the Pharisees and the scribes were grumbling and saying, ‘This fellow welcomes sinners and eats with them.’ So he told them this parable:”(Luke 15:2-3)” The Pharisees saw themselves as righteous people. Like the elder son they were sulking at the kind of acceptance and promises Jesus is providing them. Their folly lays not only in being wrong and considering themselves right but in considering others as condemned lot.

Through his parable Jesus makes it abundantly clear that God’s doors of mercy are always open to everyone. The father welcomes the prodigal son as well as goes behind to assuage the sulking son. Nonetheless, it is the choice of individual to decide and make a homeward journey. There is neither a place for a judgemental attitude towards others nor a self-assumed righteousness in the kingdom.

-Fr. Ronald Vaughan