मंगलवार, 05 मार्च, 2024

चालीसे का तीसरा सप्ताह

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📒 पहला पाठ : दानिएल का ग्रन्थ 3:25,34-43

25) अजर्या खड़ा हो कर प्रार्थना करने लगा और उसने आग की लपटों के बीच यह कहना आरंभ किया:

34) तू अपने नाम का ध्यान रख कर हमें सदा के लिए न त्याग; हमारे लिए अपना विधान रद्द न कर।

35) अपने मित्र इब्राहीम, अपने सेवक इसहाक और अपने भक्त इस्राएल का स्मरण कर। अपनी कृपादृष्टि हम पर से न हटा।

36) तूने उन से यह प्रतिज्ञा की थी कि आकाश के तारों की तरह और समुद्रतट के रेतकणों की तरह तुम्हारे वंशजों को असंख्या बना दूँगा।

37) प्रभु! संख्या की दृष्टि से, हम सब राष्ट्रों से छोटे हो गये हैं

38) और हमारे पापों के कारण पृथ्वी भर में हमारा अपमान हो रहा है। अब तो न राजा है, न नबी, न नेता, न होम, न यज्ञ, न बलि, न धूपदान।

39) कोई स्थान ऐसा नहीं, जहां तेरी कृपादृष्टि प्राप्त करने के लिए हम तुझे प्रथम फल अर्पित करें।

40) हमारा पश्चात्तापी हृदय और हमारा विनम्र मन मेढ़ों, साँडो और हज़ारों पुष्ट भेड़ो की बलि-जैसे तुझे ग्राह्य हों। आज तेरे लिए यही हमारा बलिदान हो। ऐसा कर कि हम पूर्ण रूप से तेरे मार्ग पर चलें, क्योंकि तुझ पर भरोसा रखने वाले कभी निराश नहीं होते।

41) अब हम यह दृढ संकल्प करते हैं कि हम तेरे मार्ग पर चलेंगे, तुझ पर श्रद्धा रखेंगे, और तेरे दर्शनों की कामना करते रहेंगे।

42) हमें निराश न होने दे, बल्कि हम पर अपनी सहनशीलता तथा महती दया प्रदर्शित कर।

43) प्रभु! अपने अपूर्व कार्यों द्वारा हमारी रक्षा कर और अपने नाम को महिमान्वित कर।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 18:21-35

21) तब पेत्रुस ने पास आ कर ईसा से कहा, ’’प्रभु! यदि मेरा भाई मेरे विरुद्ध अपराध करता जाये, तो मैं कितनी बार उसे क्षमा करूँ? सात बार तक?’’

22) ईसा ने उत्तर दिया, ’’मैं तुम से नहीं कहता ’सात बार तक’, बल्कि सत्तर गुना सात बार तक।

23) ’’यही कारण है कि स्वर्ग का राज्य उस राजा के सदृश है, जो अपने सेवकों से लेखा लेना चाहता था।

24) जब वह लेखा लेने लगा, तो उसका लाखों रुपये का एक कर्ज़दार उसके सामने पेश किया गया।

25) अदा करने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं था, इसलिए स्वामी ने आदेश दिया कि उसे, उसकी पत्नी, उसके बच्चों और उसकी सारी जायदाद को बेच दिया जाये और ऋण अदा कर लिया जाये।

26) इस पर वह सेवक उसके पैरों पर गिर कर यह कहते हुए अनुनय-विनय करता रहा, ’मुझे समय दीजिए, और मैं आपको सब चुका दूँगा।

27) उस सेवक के स्वामी को तरस हो आया और उसने उसे जाने दिया और उसका कजऱ् माफ़ कर दिया।

28) जब वह सेवक बाहर निकला, तो वह अपने एक सह- सेवक से मिला, जो उसका लगभग एक सौ दीनार का कर्ज़दार था। उसने उसे पकड़ लिया और उसका गला घांेट कर कहा, ’अपना कर्ज़ चुका दो’।

29) सह-सेवक उसके पैरों पर गिर पड़ा और यह कहते हुए अनुनय-विनय करता रहा, ’मुझे समय दीजिए और मैं आपको चुका दूँगा’।

30) परन्तु उसने नहीं माना और जा कर उसे तब तक के लिये बन्दीगृह में डलवा दिया, जब तक वह अपना कर्ज़ न चुका दे!

31) यह सब देख कर उसके दूसरे सह-सेवक बहुत दुःखी हो गये और उन्होंने स्वामी के पास जा कर सारी बातें बता दीं।

32) तब स्वामी ने उस सेवक को बुला कर कहा, ’दृष्ट सेवक! तुम्हारी अनुनय-विनय पर मैंने तुम्हारा वह सारा कजऱ् माफ़ कर दिया था,

33) तो जिस प्रकार मैंने तुम पर दया की थी, क्या उसी प्रकार तुम्हें भी अपने सह-सेवक पर दया नहीं करनी चाहिए थी?’

34) और स्वामी ने क्रुद्ध होकर उसे तब तक के लिए जल्लादों के हवाले कर दिया, जब तक वह कौड़ी-कौड़ी न चुका दे।

35) यदि तुम में हर एक अपने भाई को पूरे हृदय से क्षमा नहीं करेगा, तो मेरा स्वर्गिक पिता भी तुम्हारे साथ ऐसा ही करेगा।’’

📚 मनन-चिंतन

येसु अपनी कृपा और उदारता से हमें अपनी क्षमा प्रदान करते हैं। फिर भी हमें चोट पहुँचाने और ठेस पहुँचाने वालों को क्षमा करने की हमारी अनिच्छा ईश्वरीय क्षमा को रोक सकती है। सभी मनुष्य हमारे ईश्वर की संतान हैं और इसलिए वे हमारे भाई-बहन हैं। इसी कारण दूसरों के खिलाफ हर अपराध भी प्रभु को चोट पहुँचाता है जैसे प्रभु के लिए हमारा प्यार दूसरों के लिए हमारे प्यार में प्रकट होता है। ईश्वरीय प्रेम के महान गुणों में से एक यह है कि वह क्षमाशील है। जब हम उन्हें चोट पहुँचाते रहते हैं तब भी ईश्वर हमसे प्रेम करते रहते हैं। क्षमा करने वाला यह प्रेम अनिवार्य रूप से क्षमा की एक लहर पैदा करता है। जब ये तरंगें बाधित होती हैं, तो ईश्वरीय क्षमा का प्रवाह रुक जाता है। स्वस्थ संबंधों के लिए क्षमा महत्वपूर्ण है जो एकता की ओर ले जाती है। हमारे बीच इस सहभागिता के बिना, हम ईश्वर की क्षमा का अनुभव नहीं कर सकते हैं। क्षमा करने की हमारी इच्छा हमें ईश्वर से क्षमा दिलाती है। ऐसा कहा जाता है, "परिपक्वता की असली पहचान तब होती है जब कोई आपको चोट पहुँचाता है और आप उन्हें वापस चोट पहुँचाने की कोशिश करने के बजाय उनकी स्थिति को समझने की कोशिश करते हैं।" यह वही है जो येसु ने किया था जब उन्होंने उन्हें क्रूस पर चढ़ाने वालों के लिए प्रार्थना की, "पिता, इन्हें क्षमा कर क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं"। आइए हम येसु की तरह क्षमा करना सीखें।

- फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

Jesus graciously and generously offers his forgiveness to us. Yet our unwillingness to forgive those who hurt and offend us can block divine forgiveness. All human beings are children of our God and so they are our brothers and sisters. Hence every offence against others also hurts God just as our love for God is manifested in our love for others. One of the great qualities of the divine love is that it is forgiving. God loves us even when we keep hurting him. This forgiving love necessarily creates ripples of forgiveness. When these ripples are interrupted, the flow of divine forgiveness stops. Forgiveness is vital to healthy relationships which lead to communion. Without this communion among us, we cannot experience the forgiveness of God. Our willingness to forgive gives us access to the forgiveness from God. It is said, “The true mark of maturity is when somebody hurts you and you try to understand their situation instead of trying to hurt them back.” This is what Jesus did when he prayed for his own executioners, “Father, forgive them for they do not know what they are doing”. Let us learn to forgive like Jesus.

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन -2

क्षमा येसु की शिक्षाओं को केन्द्र हैं। येसु ने ईश्वर की क्षमा पाने, उस पर विश्वास करने तथा दूसरों को भी माफ करने पर गहरा जोर दिया। गौर करने की महत्वपूर्ण बात इन दोनों -माफी पाना और माफी देना के मध्य का संबंध है। येसु ने ’निर्दयी सेवक’ के दृष्टांत द्वारा समझाया कि क्षमा पाना और देना पारस्पारिक तथा एक-दूसरे पर निर्भर है। येसु ने जब अपने शिष्यों को सिखायी प्रार्थना में इसी वास्तविकता का दिखाया कि क्षमा पाने के लिये क्षमा देना भी जरूरी है। जो क्षमा नहीं कर सकता वह क्षमा पा भी नहीं सकता। ’’यदि तुम दूसरों के अपराध क्षमा करोगे, तो तुम्हारा स्वर्गिक पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा। परन्तु यदि तुम दूसरों को क्षमा नहीं करोगे, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा नहीं करेगा।’’ (मत्ती 6ः14-15)

हम इसलिये क्षमा करते हैं क्योंकि हमें भी क्षमा मिली है। हमें याद रखना चाहिये कि जो क्षमा हम प्राप्त करते हैं वह जो हम देते हैं उससे कहीं अधिक बडी और महान होती है। यदि कोई क्षमा के वरदान द्वारा फलना-फूलना चाहता है तो उसे इस प्राप्त की गयी क्षमा को दूसरों के साथ बांटना भी चाहिये। निर्दय सेवक एक अकृतज्ञ व्यक्ति भी था। उसने जो ऋण मुक्ति पायी थी वह उसके प्रति अकृतज्ञ था। उसने अपने बडे भारी कर्ज से मुक्ति पायी थी किन्तु वह दूसरों का छोटा सा कर्जा भी माफ नहीं कर सका। चूंकि उसने इस क्षमा के उपहार को दूसरों के साथ बांटने से इंकार कर दिया इसलिये उसका यह उपहार उससे वापस ले लिया गया।

दृष्टांत का उद्देश्य, इसकी मांग एवं अनिवार्यता एकदम स्पष्ट है। क्षमा ईश्वर में हमारे विश्वास तथा एक-दूसरे को प्रेम करने का आधार है। पिता ईश्वर की जो क्षमा हम येसु के़ द्वारा प्राप्त करते उसे दूसरों के साथ बांटना ईश्वर की योजना का अहम हिस्सा है।

- फादर रोनाल्ड वाँन


📚 REFLECTION

Forgiveness is at the heart of the teaching of Jesus. Jesus lays great emphasis on forgiving others as well as believing in the forgiveness of God. What is important is correlation between these two. Jesus through the parable of ‘Unforgiving Servant’ explains that forgiveness is reciprocal and reliant. When teaching his disciples to pray he instructed them that forgiveness -- both the giving and the receiving of it -- is reciprocal, one cannot have it without doing it. "For if you forgive others their trespasses, your heavenly Father will also forgive you; but if you do not forgive others, neither will your Father forgive your trespasses" (Matthew 6:14-15)

We forgive others because we have been forgiven. The measure of forgiveness received is greater than what we offer it to others. The gift of forgiveness is to be shared if one wants it to flourish. The Unforgiving servant was also an ungrateful person. He accepted the waiving off of his massive debts but refused to waive off comparatively meagre amount of his debtor. Since he refused to share the gift of forgiveness he was condemned. The gift of forgiveness was taken away from him because of his hardheartedness.

The point of this parable is clear, and its demands are essential. Forgiveness lies at the heart of our faith in God and our love of one another. Forgiveness, which we receive from God our father through his son Jesus is what God expects from us to share with others while dealing with each other.

-Fr. Ronald Vaughan