बुधवार, 06 मार्च, 2024

चालीसे का तीसरा सप्ताह

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📒 पहला पाठ : विधि-विवरण ग्रन्थ 4:1,5-9

1) इस्राएलियों मैं जिन नियमों तथा आदेशों की शिक्षा तुम लोगों को आज दे रहा हूँ, उन पर ध्यान दो और उनका पालन करो, जिससे तुम जीवित रह सको और उस देश में प्रवेश कर उसे अपने अधिकार में कर सको, जिसे प्रभु, तुम्हारे पूर्वजों का ईश्वर तुम लोगों को देने वाला है।

5) देखो, मैं अपने प्रभु-ईश्वर के आदेश के अनुसार तुम लोगों को नियमों तथा आदेशों की शिक्षा दे चुका हूँ। तुम जो देश अपने अधिकार में करने जा रहे हो, वहाँ उनके अनुसार आचरण करो।

6) उनका अक्षरषः पालन करो और इस तरह तुम अन्य राष्ट्रों की दृष्टि में समझदार और बुद्धिमान समझे जाओगे। जब वे उन सब आदेशों की चर्चा सुनेंगे, तो बोल उठेंगे ’उस महान् राष्ट्र के समान समझदार तथा बुद्धिमान और कोई राष्ट्र नहीं है’।

7) क्योंकि ऐसा महान राष्ट्र कहाँ है, जिसके देवता उसके इतने निकट हैं, जितना हमारा प्रभु-ईश्वर हमारे निकट तब होता है जब-जब हम उसकी दुहाई देते हैं?

8) और ऐसा महान् राष्ट्र कहाँ है, जिसके नियम और रीतियाँ इतनी न्यायपूर्ण है, जितनी यह सम्पूर्ण संहिता, जिसे मैं आज तुम लोगों को दे रहा हूँ?

9) ’’सावधान रहो। जो कुछ तुमने अपनी आँखों से देखा है, उसे मत भुलाओ। उसे जीवन भर याद रखो और अपने पुत्र पौत्रों को सिखाओ।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 5:17-19

(17) ’’यह न समझो कि मैं संहिता अथवा नबियों के लेखों को रद्द करने आया हूँ। उन्हें रद्द करने नहीं, बल्कि पूरा करने आया हूँ।

(18) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- आकाश और पृथ्वी भले ही टल जाये, किन्तु संहिता की एक मात्रा अथवा एक बिन्दु भी पूरा हुए बिना नहीं टलेगा।

(19) इसलिए जो उन छोटी-से-छोटी आज्ञाओं में एक को भी भंग करता और दूसरों को ऐसा करना सिखाता है, वह स्र्वगराज्य में छोटा समझा जायेगा। जो उनका पालन करता और उन्हें सिखाता है, वह स्वर्गराज्य में बड़ा समझा जायेगा।

📚 मनन-चिंतन

येसु ने पुराने विधान की शिक्षाओं को समाप्त नहीं किया, परन्तु उन्होंने उन्हें पूर्ण किया। पुराने विधान ने लोगों से कहा कि वे एक सीमा से अधिक प्रतिशोध न लें जबकि नया नियम सभी को बदला लेने से मना करता है। पुराना नियम हमें लोगों को उनका हक देने के लिए कहता है, लेकिन नए नियम में येसु की शिक्षाएं हमें बताती हैं कि हम दूसरों को उससे अधिक दें जितना पाने के लिए वे हकदार हैं। यह भले सामरी के दृष्टांत में बहुत स्पष्ट है जहाँ येसु ने दया दिखाने वाले की प्रशंसा की और अपने श्रोताओं से भी ऐसा ही करने को कहा। येसु चाहते हैं कि हम देने, प्रेम करने और क्षमा करने में उदार बनें। जब वे हमें एक अतिरिक्त मील चलना सिखाते हैं तो वे हमें रिश्तों में माप और गणना से परे जाने के लिए कह रहे हैं। जब हम किसी से प्यार करते हैं, तो हमारी बाधाएं तथा सीमाएं टूट जाती हैं। येसु नहीं चाहते कि हम "संहिता तथा नबियों" का तिरस्कार करें। इसके बजाय वे चाहते हैं कि हम संहिता तथा नबियों में निर्धारित बातों से आगे बढ़ें और स्वर्गिक पिता के समान उदार बनें।

- फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

Jesus did not abolish the Old Testament teachings, but he perfected them. The Old Testament asked the people not to take revenge beyond a limit while the New Testament rules out revenge all together. The Old Testament tells us to give people their due, but the teachings of Jesus in the New Testament tell us to give others more than what they deserve. This is very clear in the parable of the Good Samaritan where Jesus praised the one who showed mercy and asked his listeners to do likewise. Jesus wants us to be generous in giving, in loving and in forgiving. When he teaches us to walk an extra mile he is asking us to go beyond measurements and calculations in relationships. When we love, our barriers break. Jesus does not want us to throw away “the Law and the Prophets”. Instead he wants us to go beyond what is prescribed in the Law and the Prophets and become generous like the heavenly father..

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन -2

प्रारंभ से ही ईश्वर ने मनुष्य को आज्ञाएं प्रदान की जिसके पालन से वह जीवित रहे तथा जीवन की सारी खुशियों और कृपाओं को प्राप्त कर सके। ईश्वर ने आदम और हेवा से एक वृक्ष के फल नहीं खाने को कहा था जिससे वे जीवित रहे। ईश्वर ने कहा था, ’’किन्तु भले-बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल नहीं खाना क्योंकि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे, तुम अवश्य मर जाओगे’’। (उत्पति 2ः17) किन्तु उन्होंने ईश्वर की आज्ञा तोडी और वर्जित फल खाया जिससे संसार में मृत्यु का प्रवेश हुआ। (1कुरि.15ः21) मूसा के द्वारा ईश्वर ने उन्हें दस आज्ञायें एवं संहिता प्रदान की जिसके पालन से वे एक राष्ट्र के रूप में फले-फूले। ’’देखो, मैं अपने प्रभु-ईश्वर के आदेश के अनुसार तुम लोगों को नियमों तथा आदेशों की शिक्षा दे चुका हूँ। ...उनका अक्षरषः पालन करो और इस तरह तुम अन्य राष्ट्रों की दृष्टि में समझदार और बुद्धिमान समझे जाओगे। जब वे उन सब आदेशों की चर्चा सुनेंगे, तो बोल उठेंगे ’उस महान् राष्ट्र के समान समझदार तथा बुद्धिमान और कोई राष्ट्र नहीं है’।’’ (विधिविवरण 4ः5-7) लेकिन उन्होंने विद्रोह किया और मरूभूमि में ही मर गये। न्यायकर्ताओ और नबियों के द्वारा ईश्वर ने उन्हें सही मार्ग दिखाया किन्तु उन्होंने उनकी हत्याएं की।

ईश्वर की संहिता मनुष्य की भलाई के लिये थी लेकिन मनुष्य ने या तो उसको माना नहीं और दूसरा यदि माना भी तो अपनी मन-मर्जी से। येसु इस संहिता के पालन के लिये आये थे। इब्रानियों के नाम पत्र इस बात का साक्ष्य देता है, ं’’इसलिए मसीह ने संसार में आ कर यह कहा, ईश्वर! मैं तेरी इच्छा पूरी करने आया हूँ, जैसा कि धर्मग्रन्थ में मेरे विषय में लिखा हुआ है।’’ (इब्रानियों 10ः5,7) येसु न सिर्फ संहिता के पालन के लिये आये बल्कि उसे योग्य रीति से पूरा करने भी आये। संहिता का उद्देश्य मनुष्य तथा उसके पडोसी का भला था। येसु ने उसका सारांक्ष देते हुये कहा, ’’अपने प्रभु-ईश्वर को... प्यार करो। तथा अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। इनसे बड़ी कोई आज्ञा नहीं।“ (मारकुस 12ः30-31) धर्म मेरे और ईश्वर का संबंध न हो एक त्रिकोणीय सच्चाई बन गया, मैं ईश्वर और मेरा पडोसी। येसु ने अपने जीवन के द्वारा संहिता को पूर्णता प्रदान की जब उन्होंने सभी को उनके सामाजिक बंधनों, लिंग, जाति, पूर्वाग्रहों, धन, गरीबी आदि के परे जाकर प्रेम किया।

- फादर रोनाल्ड वाँन


📚 REFLECTION

From the very beginning God gave his commands so that by obeying it man will have life with all its happiness and blessings. God told Adam and Eve not to eat the fruit of a particular tree so that they may live forever, “but of the tree of the knowledge of good and evil you shall not eat, for in the day that you eat of it you shall die.” (Genesis 2:17) However, they broke the command and ‘death came into the world.’ (1 Cor. 15:21) Through Moses God gave them 10 commandments and the Law so that they may flourish as a nation, “See, just as the Lord my God has charged me, I now teach you statutes and ordinances… You must observe them diligently, for this will show your wisdom and discernment to the peoples, who, when they hear all these statutes, will say, ‘Surely this great nation is a wise and discerning people!’ For what other great nation has a god so near to it as the Lord our God is whenever we call to him? (Deut. 4:5-7) But they constantly rebelled against God’s command and perished in the wilderness. Similarly, the Judges, Prophets etc. thought them to obey God commands but they killed them.

God’s law was for the good of man but either man defied it or fulfilled it as it pleases him. Jesus came to fulfil the Law, Letter to Hebrews testifies about Jesus, “Consequently, when Christ came into the world, he said, ……“See, God, I have come to do your will, O God” (in the scroll of the book it is written of me).” (Hb. 10:5,7) Jesus not only came to fulfil but to do it in the true spirit of the law. The purpose of the law was the good of man and good of the neighbour. Jesus rightly summarized it, “You shall love the Lord your God,…and “You shall love your neighbour as yourself.” (Mark 12:30-31) The religion was no longer between I and my God but between I, God and what I do to my neighbour. Through his life Jesus profusely displayed the love of God, cutting across all the barriers of gender, social inhibition, prejudices, wealth and poverty etc.

-Fr. Ronald Vaughan