शुक्रवार, 08 मार्च, 2024

चालीसे का तीसरा सप्ताह

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📒 पहला पाठ : होशेआ का ग्रन्थ 14:2-10

2) इस्राएल! अपने प्रभु-ईश्वर के पास लौट आओ, क्योंकि तुम अपने पापों के कारण गिर गये हो।

3) प्रार्थना का चढावा ले कर प्रभु के पास आओ और उस से यह कहो, ’’हमारा अपराध मिटा दे और हमारा सद्भाव ग्रहरण कर। हम तुझे बलिपशुओं के स्थान पर यह निवेदन चढाते हैं।

4) अस्सूर हमें बचाने में असमर्थ है। हम फिर कभी अपने घोडों पर भरोस नहीं रखेंगे और अपने हाथों की बनायी हुई मुर्ति से नहीं कहेंगे- तू हमारा ईश्वर है। प्रभु! तू ही अनाथ पर दया करता है।’’

5) मैं उनके विश्वासघात का घाव भर दूँगा। मैं सारे हृदय से उन को प्यार करूँगा; क्योंकि मेरा क्रोध उन पर से दूर हो गया है।

6) मैं इस्राएल के लिए ओस के सदृश बन जाऊँगा। वह सोसन की तरह खिलेगा और लेबानोन के बालूत की तरह जडे जमायेगा।

7) उसकी टहानियाँ फैलेंगी, उसकी शोभा जैतून के सदृश होगी और उसकी सुगन्ध लेबानोन के सदृश।

8) इस्राएली फिर मेरी छत्रछाया में निवास करेंगे और बहुत-सा अनाज उगायेंगे। वे दाखबारी की तरह फलेंगे-फूलेंगे और लेबानोन की अंगूरी की तरह प्रसिद्ध हो जायेंगे।

9) अब एफ्राईम को देवमूर्तियों से क्या? मैं ही उसकी सुनता और उसकी सुध लेता हूँ। मैं सदाबाहर सनोबर के सदृश हूँ- मुझ से ही उसे फल मिलते हैं।

10) जो समझदार है, वह इन बातों पर विचार करे। जो बुद्धिमान है, वह इन्हें अच्छी तरह जान ले। प्रभु के मार्ग सीधे हैं- धर्मी उन पर चलते हैं, किन्तु पापी उन पर ठोकर खा कर गिर जाते हैं।

📙 सुसमाचार : सन्त मारकुस 12:28b-34

28) तब एक शास्त्री ईसा के पास आया। उन से पूछा, “सबसे पहली आज्ञा कौन सी है?“

29) ईसा ने उत्तर दिया, “पहली आज्ञा यह है- इस्राएल, सुनो! हमारा प्रभु-ईश्वर एकमात्र प्रभु है।

30) अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी बुद्धि और सारी शक्ति से प्यार करो।

31) दूसरी आज्ञा यह है- अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। इनसे बड़ी कोई आज्ञा नहीं।“

32) शास्त्री ने उन से कहा, “ठीक है, गुरुवर! आपने सच कहा है। एक ही ईश्वर है, उसके सिवा और कोई नहीं है।

33) उसे अपने सारे हृदय, अपनी सारी बुद्धि और अपने सारी शक्ति से प्यार करना और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करना, यह हर प्रकार के होम और बलिदान से बढ़ कर है।“

34) ईसा ने उसका विवेकपूर्ण उत्तर सुन कर उस से कहा, “तुम ईश्वर के राज्य से दूर नहीं हो’’। इसके बाद किसी को ईसा से और प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ।

📚 मनन-चिंतन

शास्त्री ने येसु का उत्तर सुनकर उसे स्वीकारा तथा बडे विवेक से साथ उसे दोहराया जिसे सुनकर येसु ने उसकी सराहना करते हुये कहा, ’’तुम स्वर्ग राज्य से दूर नहीं हो।’’ यहॉ पर एक बात स्पष्ट है कि ईश्वर से प्यार करना एक ऐसा कार्य है जिसे हमें पूरी जागरूकता तथा सामर्थ्य के साथ करना चाहिये। शास्त्री स्वर्ग तक पहुॅचने की बात जानता था तथा वह इसको कहकर स्वीकारता भी है लेकिन स्वर्गराज्य में प्रवेश करने के लिये उसे इससे ज्यादा करने की जरूरत है। यदि शास्त्री स्वर्गराज्य से दूर नहीं है तो उसे उसमें प्रवेश करने के लिये क्या करना चाहिये? इसके लिये उसे इस आज्ञा, ’’अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी बुद्धि और सारी शक्ति से प्यार करो तथा अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो।“ को अपने कार्यों में ढालना पडेगा।

जब धनी नवयुवक जो येसु से पूछता हैं, ’’भले गुरु! अनन्त जीवन प्राप्त करने के लिए मुझे क्या करना चाहिए? (लूकस 18:18) आज्ञाओं के पालन करने बावजूद भी येसु का अनुसरण नहीं कर सका क्योंकि वह ईश्वर को सारे दिल और सामर्थ्य नहीं प्रेम करता था। आज्ञायें उसके लिये मात्र नियमों की खानापूर्ति थी। वह येसु की आज्ञानुसार अपना धन गरीबों को नहीं बांट सका क्योंकि उसे धन से अधिक प्रेम था। ऐसे अनुयायियों को येसु चेतावनी देते तथा आज्ञाओं को कार्यों में ढालने पर जोर देते हुये कहते हैं, ’’जो मेरी ये बातें सुनता है, किन्तु उन पर नहीं चलता, वह उस मूर्ख के सदृश है, जिसने बालू पर अपना घर बनवाया।’’ (मत्ती 7:26)

जब कोई ईश्वर को सचमुच में प्रेम करता है तो इस बात का अहसास होता है कि उसने जो कुछ बनाया वह अच्छा है। वे दूसरों में ईश्वर को देखता तथा इसका अनुभव करता हैं। यह अनुभव उसे दूसरों को प्रेम करने के लिये प्रेरित करता है। जितना वह दूसरों को प्रेम करता है वह उतना ही स्वर्गराज्य के करीब आता है। दया के कार्यों के अभाव में हमारी आराधना अधूरी ही रह जाती है।

- फादर रोनाल्ड वाँन


📚 REFLECTION

The Scribe listens and affirms the truth when he hears it from the Lord which prompted the Lord to say ‘You are not far from the Kingdom of God.” Here we must pay attention that to love God is a conscious and an all-out effort. The Scribe knew and acknowledged before Jesus the way to reach heaven but to enter the kingdom he has to do more. So, If the scribe is not far, what will bring him closer or even into the kingdom of God? The answer is to translate this command, “love God with all your heart, with all your soul, with all your mind and with all your strength and love your neighbour as yourself” into action.

The young rich man who came Jesus asking, ‘Good Teacher, what must I do to inherit eternal life?’ (Luke 18:18) could not follow Jesus inspite of keeping the law because he had reduced his faith to mere fulfilling few rules and regulations. He could not obey the Lord and failed to distribute his riches to the poor. His love of God was devoid of love for the poor. Jesus warns such followers and insisted on doing the will of God, “And everyone who hears these words of mine and does not act on them will be like a foolish man who built his house on sand.” (Mt.7:26)

When one truly begins to love God, he realises that all that he created is also good. He discovers the existence of God in other as well and by this experience and understanding he loves others. The more he loves others that more he comes closers to the Kingdom. Worship without the works of mercy and love for others is mere ritual. One must move forward to share God’s compassion with others.

-Fr. Ronald Vaughan