मंगलवार, 12 मार्च, 2024

चालीसे का चौथा सप्ताह

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📒 पहला पाठ : एज़ेकिएल 47:1-9, 12

1) वह मुझे मंदिर के द्वार पर वापस ले आया। वहाँ मैंने देखा कि मन्दिर की देहली के नीचे से पूर्व की ओर जल निकल कर बह रहा है, क्योंकि मन्दिर का मुख पूर्व की ओर था। जल वेदी के दक्षिण में मन्दिर के दक्षिण पाश्र्व के नीचे से बह रहा था।

2) वह मुझे उत्तरी फाटक से बाहर-बाहर घुमा कर पूर्व के बाह्य फाटक तक ले गया। वहाँ मैंने देखा कि जल दक्षिण पाश्र्व से टपक रहा है।

3) उसने हाथ में माप की डोरी ले कर पूर्व की ओर जाते हुए एक हजार हाथ की दूरी नापी। तब उसने मुझे जलधारा को पार करने को कहा- पानी टखनों तक था।

4) उसने फिर एक हज़ार हाथ नाप कर मुझ से जलधारा को पार करने को कहा- पानी घुटनों तक था। उसने फिर एक हज़ार हाथ नाप कर मुझ से जलधारा को पार करने के कहा- पानी कमर तक था।

5) उसने फिर एक हज़ार हाथ की दूरी नापी- अब मैं उस जलधारा को पार नहीं कर सकता था, पानी इतना बढ़ गया था कि तैर कर ही पार करना संभव था। वह जलधारा ऐसी थी कि उसे कोई पार नहीं कर सकता था।

6) उसने मुझ से कहा, ’’मानवपुत्र! क्या तुमने इसे देखा?’’ तब वह मुझे ले गया और बाद में उसने मुझे फिर जलधारा के किनारे पर पहुँचा दिया।

7) वहाँ से लौटने पर मुझे जलधारा के दोनों तटों पर बहुत-से पेड़ दिखाई पड़े।

8) उसने मुझ से कहा, ’’यह जल पूर्व की ओर बह कर अराबा घाटी तक पहुँचता और समुद्र में गिरता है। यह उस समुद्र के खारे पानी को मीठा बना देता है।

9) यह नदी जहाँ कहीं गुज़रती है, वहाँ पृथ्वी पर विचरने वाले प्राणियों को जीवन प्रदान करती है। वहाँ बहुत-सी मछलिया पाय जायेंगी, क्योंकि वह धारा समुद्र का पानी मीठा कर देती है। और जहाँ कहीं भी पहुचती है, जीवन प्रदान करती है।

12) नदी के दोनों तटों पर हर प्रकार के फलदार पेड़े उगेंगे- उनके पत्ते नहीं मुरझायेंगें और उन पर कभी फलों की कमी नहीं होगी। वे हर महीने नये फल उत्पन्न करेंगे; क्योंकि उनका जल मंदिर से आता है। उनके फल भोजन और उनके पत्ते दवा के काम आयेंगे।

📙 सुसमाचार : सन्त योहन 5:1-6

1) इसके कुछ समय बाद ईसा यहूदियों के किसी पर्व के अवसर पर येरुसालेम गये।

2) येरुसालेम में भेड़-फाटक के पास एक कुण्ड है, जो इब्रानी भाषा में बेथेस्दा कहलाता है। उसके पाँच मण्डप हैं।

3) उन में बहुत-से रोगी-अन्धे, लँगड़े और अद्र्धांगरोगी-पड़े हुए थे। (वे पानी के लहराने की राह देख रहे थे,

4) क्योंकि प्रभु का दूत समय-समय पर कुण्ड में उतर कर पानी हिला देता था। पानी के लहराने के बाद जो सब से पहले कुण्ड में उतरता था- चाहे वह किसी भी रोग से पीडि़त क्यों न हो- अच्छा हो जाता था।)

5) वहाँ एक मनुष्य था, जो अड़तीस वर्षों से बीमार था।

6) ईसा ने उसे पड़ा हुआ देखा और, यह जान कर कि वह बहुत समय से इसी तरह पड़ा हुआ है, उस से कहा, ‘‘क्या तुम अच्छा हो जाना चाहते हो’’

7) रोगी ने उत्तर दिया, ‘‘महोदय; मेरा कोई नहीं है, जो पानी के लहराते ही मुझे कुण्ड में उतार दे। मेरे पहुँचने से पहले ही उस में कोई और उतर पड़ता है।’’

8) ईसा ने उस से कहा, ‘‘उठ कर खड़े हो जाओ; अपनी चारपाई उठाओ और चलो’’।

9) उसी क्षण वह मनुष्य अच्छा हो गया और अपनी चारपाई उठा कर चलने-फिरने लगा।

10) वह विश्राम का दिन था। इसलिए यहूदियों ने उस से, जो अच्छा हो गया था, कहा, ‘‘आज विश्राम का दिन है। चारपाई उठाना तुम्हारे लिए उचित नहीं है।’’

11) उसने उत्तर दिया, ‘‘जिसने मुझे अच्छा किया, उसी ने मुझ से कहा- अपनी चार पाई उठाओ और चलो’’।

12) उन्होंने उस से पूछा, ‘‘कौन है वह, जिसने तुम से कहा- अपनी चारपाई उठाओ और चलो?’’

13) चंगा किया हुआ मनुष्य नहीं जानता था कि वह कौन है, क्योंकि उस जगह बहुत भीड़ थी और ईसा वहाँ से निकल गये थे।

14) बाद में मंदिर में मिलने पर ईसा ने उस से कहा, ‘‘देखो, तुम चंगे हो गये हो। फिर पाप नहीं करो। कहीं ऐसा न हो कि तुम पर और भी भारी संकट आ पड़े।’’

15) उस मनुष्य ने जा कर यहूदियों को बताया कि जिन्होंने मुझे चंगा किया है, वह ईसा हैं।

16) यहूदी ईसा को इसलिए सताते थे कि वे विश्राम के दिन ऐसे काम किया करते थे।

📚 मनन-चिंतन

आज, हम येसु को एक ऐसे व्यक्ति को चंगा करते हुए पाते हैं जो 38 वर्षों से बीमार था। जब बीमारी लंबी होती है तो हम उम्मीद खोने लगते हैं। यरूसालेम में बेथेस्दा कूण्ड के पास लेटा हुआ आदमी अभी भी आशावान था और उसकी आशा को येसु ने पुरस्कृत किया। उस व्यक्ति ने येसु से कहा, “हे प्रभु, मेरे पास कोई नहीं है जो मुझे कुण्ड में डाल दे, जब पानी हिलाया जाए; और जब मैं अपना रास्ता बना रहा हूं, तो कोई और मुझसे आगे निकल जाता है"। यह लाचारी और परित्यक्त होने की उनकी भावना की अभिव्यक्ति थी। स्तोत्रकार कहता है, "वह दरिद्र को, अर्थात् कंगालों और जिनका कोई सहायक नहीं होता, उनका उद्धार करता है" (स्तोत्र 72:12)। असहायों की सहायता करने से प्रभु प्रसन्न होते हैं। एस्तेर की प्रार्थना बहुत महत्वपूर्ण है। वह प्रार्थना करती है, “इब्राहीम, इसहाक और याकूब के ईश्वर! तू धन्य है! मुझ एकाकिनी की सहायता कर। प्रभु! तेरे सिवा मेरा कोई रक्षक नहीं। (एस्तेर 4:17q)। ईश्वर ने एस्तेर की प्रार्थना का उत्तर दिया और इस्राएलियों को बचाया। हमें ईसाई होने के नाते कभी भी अकेलापन महसूस नहीं करना चाहिए। हमारा प्रभु इम्मानुएल है, "प्रभु हमारे साथ"।

- फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

Today, we find Jesus healing a man who had been ill for 38 years. When sickness prolongs we begin to lose hope. The man lying at the Bethesda pool in Jerusalem was still hopeful and his hope was rewarded by Jesus. The man told Jesus, “Sir, I have no one to put me into the pool when the water is stirred up; and while I am making my way, someone else steps down ahead of me”. This was the expression of his helplessness and his feeling of being abandoned. The Psalmist says, “For he delivers the needy when they call, the poor and those who have no helper” (Ps 72:12). God takes pleasure in being the helper of the helpless. Esther’s prayer is very significant. She prays, “O my Lord, you only are our king; help me, who am alone and have no helper but you, for my danger is in my hand.” (Esth 14:3-4). God responded to the prayer of Esther and saved the Israelites. We as Christians should never feel lonely. Our God is Immanuel, “God with-us”.

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन - 2

बेथस्दा के कुण्ड के पास अडतीस साल से बीमार व्यक्ति लम्बे समय से वहॉ पडा हुआ था। येसु भी उसकी स्थिति जानते थे। येसु उस पर तरस खाते हुये पूछते हैं, ’’क्या तुम अच्छा हो जाना चाहते हो?’’ येसु उससे बातचीत कर उसे चंगाई प्रदान करते हैं। अंत में उसे सावधान रहने को चेताते हुये उससे कहते हैं, ’’देखो, तुम चंगे हो गये हो। फिर पाप नहीं करो। कहीं ऐसा न हो कि तुम पर और भी भारी संकट आ पड़े।’’ येसु न सिर्फ उस मनुष्य का इतिहास जानते थे बल्कि वे इस मानवीय स्वाभाव से भी परिचित थे कि यदि हम स्वयं रक्षा नहीं करे और जीवन को अच्छी बातों से नहीं भरे तो हम अपने पुराने पापमय स्वाभाव की ओर लौट सकते हैं।

संत मत्ती के सुसमाचार 12ः45 में इस मानवीय पहलू पर और अधिक प्रकाष डालते हुये प्रभु कहते हैं, ’’तब वह (अषुद्ध आत्मा) जा कर अपने से भी बुरे सात आत्माओं को ले आता है और वे उस घर में घुस कर वहीं बस जाते हैं। इस तरह उस मनुष्य की यह पिछली दशा पहली से भी बुरी हो जाती है।’’ (मत्ती 12ः45)

चंगाई हमें नया जीवन जीने का अवसर प्रदान करती है। लेकिन बुराई के विरूद्ध हमारी लडाई सदैव चलनी चाहिये अन्यथा हमारे पुराने पापमय स्वाभाव की इच्छाई पुनः बलवत हो उठती है। बुराई की ताकतों में बहुत जुझारूपन होता है। वे हमेषा हमें प्रलोभन देती रहती है। हमें चाहिये कि हम हमारे नये स्वाभाव को प्रार्थना के द्वारा येसु से भरे। हमेें येसु के प्रति उत्साह तथा प्रतिबद्धता दिखाना चाहिये ताकि फालतू की बातों की ओर हमारा ध्यान आर्कषित न हो। हमें याद रखना चाहिेये कि जब येसु हमारे साथ रहते हैं तो शैतान हम से दूरी बनाये रखता है। संत याकूब का पत्र हमें सलाह तथा मनोबल बढाते हुये कहता है, ’’आप लोग ईश्वर के अधीन रहें। शैतान का सामना करें और वह आपके पास से भाग जायेगा। ईश्वर के पास जायें और वह आपके पास आयेगा।’’ (याकूब 4ः7-8) आईये हम इन बातों पर ध्यान दे।

- फादर रोनाल्ड वाँन


📚 REFLECTION

The man at the pool called Bethesda was ill for thirty-eight years. He was there for a long time and Jesus knew it. Jesus takes pity on this man and asks, “Do you want to be well again?” And talking to him Jesus heals the man. At the end of this episode of healing Jesus bid this man goodbye with this advice, “Now you are well again, do not sin anymore or something worse may happen to you.” The Lord cautions the man not to return to his sinful self otherwise his condition will be worse than the first.

Jesus knew not only the history of the just healed man but also the nature of human beings in general that if we don’t protect and fill ourselves with good things we would return to the previous state of life.

In Mt. 12:45 Jesus throws more light on this aspect of human nature, “Then it (the unclean spirit) goes and brings along seven other spirits more evil than itself, and they enter and live there; and the last state of that person is worse than the first.”

Although the healing gives new lease of life but a constant fight against evil is a must in order to ward off the dangers of returning to the evil ways or state of life. It is always a possibility and a threat because there is a terrible persistence in wickedness. We need to through prayers fill our emptiness with Christ.

To remain in the state of grace we need the passionate and positive commitment to Jesus, otherwise our emptiness invites a lot of worse and unwanted things. Remember that when Jesus Christ comes to live in us the devils keep their distance. Let us pay attention to the advice and encouragement in the letter of St. James, “Resist the devil, and he will flee from you. Draw near to God, and he will draw near to you.” (James 4:7-8)

-Fr. Ronald Vaughan