अप्रैल 19, 2024, शुक्रवार

पास्का का तीसरा सप्ताह

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📒 पहला पाठ :प्रेरित-चरित 9:1-20

1) साऊल पर अब भी प्रभु के शिष्यों को धमकाने तथा मार डालने की धुन सवार थी।

2) उसने प्रधानयाजक के पास जा कर दमिश्क के सभागृहों के नाम पत्र माँगे, जिन में उसे यह अधिकार दिया गया कि यदि वह वहाँ नवीन पन्थ के अनुयायियों का पता लगाये, तो वह उन्हें-चाहे वे पुरुष हों या स्त्रियाँ-बाँध कर येरुसालेम ले आये।

3) जब वह यात्रा करते-करते दमिश्क के पास पहुँचा, तो एकाएक आकाश से एक ज्येाति उसके चारों और चमक उठी।

4) वह भूमि पर गिर पड़ा और उसे एक वाणी यह कहती हुई सुनाई दी, "साऊल! साऊल! तुम मुझ पर क्यों अत्याचार करते हो?"

5) उसने कहा, "प्रभु! आप कौन हैं?" उत्तर मिला, "मैं ईसा हूँ, जिस पर तुम अत्याचार करते हो।

6) उठो और शहर जाओ। तुम्हें जो करना है, वह तुम्हें बताया जायेगा।

7) उसके साथ यात्रा करने वाले दंग रह गये। वे वाणी तो सुन रहे थे, किन्तु किसी को नहीं देख पा रहे थे।

8) साऊल भूमि से उठा, किन्तु आँखें खोलने पर वह कुछ नहीं देख सका। इसलिए वे हाथ पकड़ कर उसे दमिश्क ले चले।

9) वह तीन दिनों तक अन्धा बना रहा और वह न तो खाता था न पीता था।

10) दमिश्क में अनानीयस नामक शिष्य रहता था। प्रभु ने उसे दर्शन दे कर कहा, "अनानीयस!" उसने उत्तर दिया, "प्रभु! प्रस्तुत हूँ"।

11) प्रभु ने उस से कहा, "तुरन्त ’सीधी’ नामक गली जाओ और यूदस के घर में साऊल तारसी का पता लगाओ। वह प्रार्थना कर रहा है।

12) उसने दर्शन में देखा कि अनानीयस नामक मनुष्य उसके पास आ कर उस पर हाथ रख रहा है, जिससे उसे दृष्टि प्राप्त हो जाये।"

13) अनानीयस ने आपत्ति करते हुए कहा, "प्रभु! मैंने अनेक लोगों से सुना है कि इस व्यक्ति ने येरुसालेम में आपके सन्तों पर कितना अत्याचार किया है।

14) उसे महायाजकों से यह अधिकार मिला है कि वह यहाँ उन सबों को गिरफ्तार कर ले, जो आपके नाम की दुहाई देते हैं।"

15) प्रभु ने अनानीयस से कहा, "जाओ। वह मेरा कृपापात्र है। वह गैर-यहूदियों, राजाओं तथा इस्राएलियों के बीच मेरे नाम का प्रचार करेगा।

16) मैं स्वयं उसे बताऊँगा कि उसे मेरे नाम के कारण कितना कष्ट भोगना होगा।"

17) तब अनानीयास चला गया और उस घर के अन्दर आया। उसने साऊल पर हाथ रख दिये और कहा, "भाई साऊल! प्रभु ईसा आप को आते समय रास्ते में दिखाई दिये थे। उन्होंने मुझे भेजा है, जिससे आपको दृष्टि प्राप्त हो और आप पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो जायें।"

18) उस क्षण ऐसा लग रहा था कि उसकी आँखों से छिलके गिर रहे हैं। उसे दृष्टि प्राप्त हो गयी और उसने तुरन्त बपतिस्मा ग्रहण किया।

19) उसने भोजन किया और उसके शरीर में बल आ गया। साऊल कुछ समय तक दमिश्क के शिष्यों के साथ रहा।

20) वह शीघ्र ही सभागृहों में ईसा के विषय में प्रचार करने लगा कि वह ईश्वर के पुत्र हैं।

📚 सुसमाचार : योहन 6:52-59

52) यहूदी आपस में यह कहते हुए वाद विवाद कर रहे थे, "यह हमें खाने के लिए अपना मांस कैसे दे सकता है?"

53) इस लिए ईसा ने उन से कहा, "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- यदि तुम मानव पुत्र का मांस नहीं खाओगे और उसका रक्त नहीं पियोगे, तो तुम्हें जीवन प्राप्त नहीं होगा।

54) जो मेरा मांस खाता और मेरा रक्त पीता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है और मैं उसे अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूँगा;

55) क्योंकि मेरा मांस सच्चा भोजन है और मेरा रक्त सच्चा पेय।

56) जो मेरा मांस खाता और मेरा रक्त पीता है, वह मुझ में निवास करता है और मैं उस में।

57) जिस तरह जीवन्त पिता ने मुझे भेजा है और मुझे पिता से जीवन मिलता है, उसी तरह जो मुझे खाता है, उसको मुझ से जीवन मिलेगा। यही वह रोटी है, जो स्वर्ग से उतरी है।

58) यह उस रोटी के सदृश नहीं है, जिसे तुम्हारे पूर्वजों ने खायी थी। वे तो मर गये, किन्तु जो यह रोटी खायेगा, वह अनन्त काल तक जीवित रहेगा।"

59) ईसा ने कफरनाहूम के सभागृह में शिक्षा देते समय यह सब कहा।

📚 मनन-चिंतन

ईश्वरीय बुलाहट हर एक व्यक्ति की अलग है। सबों को प्रभु अलग-अलग तरीके से बुलाते हैं। ईश्वर धर्मियों को बुलाते हैं एवं पापियों को भी बुलाता हैं। साउल जो एक अत्याचारी था, प्रभु उसे बुलाते हैं। दमिश्क में उसकी मुलाकात प्रभु के साथ हुई। वह मुलाकात अद्भुत थी। उस मुलाकात ने साउल को पौलूस बना दिया, एक अत्याचारी से वह सुसमाचार-वाहक बना।

यहूदी लोग प्रभु येसु की बातों को समझ नही पा रहे थे, और उन से विवाद करने लगते हैं। प्रभु येसु कहते हैं, “जो मेरा मांस खाता और मेरा रक्त पीता है, वह मुझ में निवास करता है और मैं उस में”। जब हम प्रभु को ग्रहण करेंगे तो वह जरूर हम में निवास करेंगे। प्रभु का आत्मा हमारे द्वारा कार्य करेगा तथा हम सुसमाचार के वाहक बनेंगे। आइये, हम प्रभु की बुलाहट को समझने की कोशिश करें।

- फादर साइमन मोहता (इंदौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

The divine calling is different for each person. The Lord calls everyone in different ways. God calls the righteous and also calls the sinners. Saul who was a tyrant, the Lord calls him. He met the Lord in Damascus. That meeting was wonderful. That meeting turned Saul into Paul, from a tyrant to an evangelist.

The Jews were not able to understand the words of Lord Jesus, and started arguing with him. Lord Jesus says, “He who eats my flesh and drinks my blood, lives in me and I in him”. When we accept the Lord, He will definitely reside in us. The Spirit of the Lord will work through us and we will be the bearers of the Gospel. Let us try to understand the call of the Lord.

-Fr. Simon Mohta (Indore Diocese)

📚 मनन-चिंतन- 2

शाऊल की कहानी एक नाटकीय और आमूल परिवर्तन की बात करती है। कौन कभी सोच सकता था कि यीशु मसीह के नाम की घोषणा करने वाले इतने लोगों को मारने के लिए जिम्मेदार व्यक्ति एक दिन उनके सबसे उत्साही और मुखर समर्थकों में से एक होगा! यह कहानी हम में से प्रत्येक के लिए एक प्रोत्साहन की बात है। जब हम सोचते हैं कि हमने इतना गहरा गड्ढा खोदा है, या हम अपने कठिन और क्रूर, या स्वार्थी तरीकों को संभवतः नहीं बदल सकते हैं, तो हम शाऊल के परिवर्तन पर ध्यान दे सकते हैं। हममे बदलाव के लिए कितनी रूचि है? क्या हम अपनी आंखों से तराजू को गिरने देने के लिए तैयार हैं ताकि हम वास्तविकता देख सकें कि हम कौन हैं - ईश्वर के प्यारे बच्चे, अंतर्निहित गरिमा के साथ, और मौलिक रूप से प्यार करने के लिए बुलाए गए, जैसे यीशु प्यार करता है। मेरे हृदय को मौलिक रूप से परिवर्तन करने के लिए मुझे क्या करना है?

- फादर पायस लकड़ा


📚 REFLECTION

In today’s gospel passage, we find in the words of Jesus as part of His discourse on the Bread of Life, an obvious reference to His presence in the Eucharist. He says: “For my flesh is true food and my blood is true drink. Whoever eats my flesh and drinks my blood remains in me and I in him,” (vv. 55-56). Jesus reaffirms the reality of His physical presence by saying: “I say to you, unless you eat the flesh of the Son of Man and drink his blood, you do not have life within you,” (v. 53). Here Jesus does not say, ‘unless you eat the symbol of my flesh….’ And so therefore, His presence in the Sacrament of the Eucharist is not merely symbolic but real.

In the Eucharist, by God’s power, the reality of the bread has truly become the reality of Jesus’ glorified body and the reality of the wine, the reality of Jesus’ blood.”

Let us become what we eat.

-Fr. Pius Lakra

📚 मनन-चिंतन -2

हिंदी में एक कहावत है - “जैसा खाया अन्न वैसा हुआ मन।” अर्थात जैसा हम भोजन करते हैं, वैसे ही हम बनते जाते हैं। भोजन का और हमारे शरीर के विकास का सीधा-सीधा सम्बन्ध है। अगर हम पौष्टिक भोजन खाते हैं तो हमारा शरीर भी स्वस्थ रहेगा। अगर हमारे भोजन में किसी पौष्टिक पदार्थ की कमी है तो वह हमारे शरीर में बीमारी के रूप में प्रकट होगी। हम वही बनते जाते हैं जो हम खाते हैं। जब हम प्रभु येसु का माँस खाते और रक्त पीते हैं तो हम वही बन जाते हैं, यानि कि प्रभु येसु का शरीर और रक्त।इसलिए हम प्रेरित चरित में पढ़ते हैं कि लोगों के सताने के बाद प्रभु के दर्शन के समय साउल उनसे पूछता है -“प्रभु आप कौन हैं?” और प्रभु येसु अपना परिचय देते हैं - “मैं ईसा हूँ जिस पर तुम अत्याचार करते हो।” (प्रेरित-चरित ९:५)। हम हैं प्रभु येसु का जीवंत शरीर। हमें अदृश्य प्रभु का प्रत्यक्ष उदाहरण बनना है। क्या हम पवित्र यूखरिस्त में प्रभु येसु के शरीर और रक्त को ग्रहण कर उनके जैसे बन रहे हैं?

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

There is a saying in Hindi -“What we become is because of what we eat.” Which means what we eat that affects our whole person. Food and our growth are interrelated. If we take nutritious food, it will help our body to be healthy. If our food is missing some nutritional element which is required by body, it will show itself as deficiency and sickness in our body. Food makes our body. When we consume the body and blood of our Lord Jesus Christ in a worthy manner, our earthly body changes into heavenly body of Christ. The Acts of the Apostles in chapter 9 describes how when Soul encountered Jesus, asked 'who are you Lord?’ And the reply came -‘I am Jesus who you are persecuting…’ (Cf Acts 9:5). We know Soul was actually persecuting the followers of Jesus not Jesus himself. It is because we are the living body of Jesus. We have to become visible sign of the invisible Lord. Do we become the Body of Christ when we regularly receive the Body and blood of Christ in the Holy Eucharist?

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)